Sunday, 19 April 2020

मानव और प्रकृति

कल शाम अचानक तेज़ हवाएं चलने लगीं। आसमान काले बादलों से आच्छादित हो गया। और बारिश शुरू हो गई। मैं ड्राईंग रूम में खिड़की के पास लगे सोफ़े पर बैठा था। अक्सर धूल के कारण बंद रहने वाली खिड़की का एक शीशा आज खुला था। हवा के झोंके पास लगे पाम की पत्तियों से खिड़की की जाली बजा रहे थे। शीशा खुला रहने से हवा ने ड्राईंग रूम में अनाधिकार प्रवेश कर लिया था। मेरी पत्नी शीशा बंद करना चाहती थी पर मैंने मना कर दिया। बारिश की बूंदों के साथ मिट्टी की सौंधी सुगन्ध नासा छिद्रों से होती हुई सीधी ह्रदय तक उतर गई। मैंने लम्बी श्वास ली। मैं उस भीनी सी महक को अपने भीतर समा लेना चाहता था। तड़ तड़ बूंदे बजती रही। तप्त धरा इनका आघात भी कितनी प्रसन्नता से झेलती है। बूंदों का संगीत जारी था। बीच बीच में तड़ित कौंध जाती, मानो तबले पर संगत दे रही हो। अंधेरे आकाश में एक चमकती सी रेखा उदित होती और उसी क्षण लुप्त हो जाती। थोड़ी देर में वर्षा रुक गई। पर हवा अब भी चल रही थी। आकाश अब भी रह रह कर गरज़ रहा था। नींद से पलकें भारी हो रही थीं। मैं सोफ़े पर ही पसर गया।

सुबह जब सैर के लिए निकला तो कल की आंधी के निशान चहुं ओर सूखे पत्तों में बिखरे पड़े थे। आकाश में अब भी बादल थे। पर प्राची दिशा में भुवन भास्कर लालिमा फैलाए अपने आने का संदेश दे रहे थे। पतझड़ अब बीत ही चुका है। रहे सहे सूखे पीले पत्ते कल के अंधड़ से लड़ते हुए धराशायी हुए पड़े थे। सभी वृक्ष पत्तो से पूरी तरह भर गए हैं। दो पीपल के वृक्ष भी जो कल तक लाल लाल कोंपलों से सुसज्जित थे, बड़े बड़े गहरे हरे पत्तो से ढक गए हैं। वृहद नीम भी घना हो गया है। उस पर आयी  बौर आंधी की भेंट चढ़ गई है। उसके नीचे से गुज़रते हुए निबौली की चिर परिचित गन्ध आती है।  बचपन में हमारे घर के सामने एक बहुत घना नीम का वृक्ष था। उसके चारों ओर पक्का गोल चबूतरा था। मोहल्ले की महिलाओं की दोपहरी वहीं व्यतीत होती थी। और हम बच्चे, मूँज की खाट पर गीली धोती मुँह तक ओढ़ कर लेट जाते थे। भरी गर्मियों में वही हमारा वातानुकूलित स्थान था। भूख लगे तो पकी निबौलियों को चूस कर सारे में गुठलियां बिखेर देते। वर्षा ऋतु आती तो ढेर से नन्हें नन्हें नीम के पौधे कुकरमुत्तों से उग आते। आज भी बिल्कुल वही जानी पहचानी निबौलियों की सुगंध आ रही है। 

पास की दीवार पर चार पांच मधु मालती की बेलें चढ़ी थीं। उनमे से एक कल शाम की आंधी बारिश से नीचे आ पड़ी है। कुछ वर्ष पहले तक एक ऐसी ही घनी बेल हमारे रसोईघर की खिड़की के पास से होती हुई छत तक गई हुई थी। ग्रीष्म ऋतु में जब वह पुष्पों से भर जाती तो मधु मालती की गंध से आसपास तक का वातावरण महकता रहता। अब वो नहीं है। माली ने गिर पड़ने पर काट दी थी। कनेर भी पीले पुष्पों से पुष्पित हो रहा है। वन में जब भगवान कृष्ण गाय चराने जाते तो इन्हीं कनेर के पीताभ पुष्पों से अपने को सजाया करते थे। अनार का एक ही पेड़ है यँहा। उस पर कुछ लाल लाल पुष्प आ गए हैं। आम पर भी नए पत्ते आ चुके हैं। पर बौर इस वर्ष नहीं के बराबर है। गत वर्ष तो यह खूब फला था। कँही पास ही कोयल कूक रही है। कबूतर, तोते, मैना और कौवे पास ही दाना चुग रहे हैं। मेरे आने की आहट से उड़ कर तितर बितर हो जाते हैं। 

प्रकृति अपने पथ पर अग्रसर है। जब हम इसके साथ इतनी छेड़ खानी करते हैं कि अपनी सीमा लांघ जाते हैं तो ये पलटकर जवाब देने पर विवश होती है। क्यों हम अपनी हद पार करते हैं आखिर! क्या चाहिए हमें? मुझे नहीं पता । पर एक बात सिद्ध है कि मनुष्य इस विश्व का मालिक नहीं है। इस का संचालन हम नहीं कर रहें हैं। जितनी जल्द मनुष्य ये समझ जाएगा उतना ही उसका हित सधेगा। वरन वो ऐसे ही घरों में कैद हो कर रह जायेगा।
 

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