इन्हीं खो गए सुरों को ढूढ़ने मैं संध्या को बाहर आ गया। वैसे भी मधुमेह के रोगी को रोज़ चलना अनिवार्य है। बाहर हवा अच्छी चल रही थी। पेड़ साथ साथ झूम रहे थे। आकाश कँही नीला तो कँही सपाट सफ़ेद सा था। पक्षी अपने डैन फैलाये उड़ रहे थे। कितनी सरलता से हवा में तैरते है ये पक्षी भी। कभी कभी पंख फड़फड़ा के अपनी उड़ान को गति देते हैं और फिर पँख फैलाये तैरते चले जाते है। अबाध आकाश में। इन्हें पिंजरे में कैसा लगता होगा ये इंसान शायद अब अच्छी तरह से समझ रहा होगा जब वह स्वयं कैद है। इन दिनों आकाश में कोई जहाज़ भी नज़र नहीं आ रहा। कोरोना ने सब को ज़मीन पर ला खड़ा किया है। नहीं तो एक के पीछे एक लाल नीली बत्तियों को जलाते बुझाते ये उड़ते ही रहते थे। पास ही कँही मोर कूक रहा था - "मेह आओ"। शायद बारिश हो रात में। हवा में तो ठंडक सी थी। पीपल के पेड़ तले दो दिए जगमगा रहे थे। अगरबत्ती की सुगंध आस पास फैल रही थी। आकाश भी नीलिमा छोड़ कालिमा ओढ़ चला था। एक चमगादड़ अंजीर के पेड़ से उड़ा और घने नीम में जा ओझल हो गया। यही तो है सारे फ़साद की जड़ जिसने जीवन को रोक सा दिया है। पर इसने कब चाहा था कि ऐसा हो। आदमी ने अपनी जिव्हा के स्वाद के लिए, इस निरीह पक्षी की भी बलि चढ़ा दी तो प्रकृति कुपित हो गई। आख़िर प्रकृति सब की माता है। पर ये वॉयरस तो बड़ा ही कृतघ्न निकला। जिस इंसानी जिस्म ने इसे आश्रय दिया उसी पर कब्ज़ा कर उसे नष्ट करने पर आमादा है। देखा जाय तो ये अस्तित्व की लड़ाई है। वॉयरस अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है और इंसान अपने अस्तित्व के लिए। जीत तो अंत में इंसान की ही तय है। देखना ये है कि इस में समय कितना लगता है और इस युद्ध में कितने इंसानों की बलि चढ़ती है।
कॉलोनी में आने वाली एक कार से विचारों की श्रंखला भंग होती है। थक भी चुका हूँ। संध्या बीत रही है। मैं अंदर आ जाता हूँ। रसोई घर से आलू की टिक्की की ख़ुशबू उड़ रही है। आज रात्रि का भोज यही है। अच्छे से सिक कर करारी हो तो चटनी और सौंठ के संग स्वाद लिया जाए। शायद जिंदगी सुर में आ जाये।
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