Saturday, 2 May 2020

बेसुरी जिंदगी

आज सुबह भी सैर पर नहीं जा सका। दूध और सब्जी ला उसे रखने में ही आठ बजे गए। धूप चढ़ आई थी तो सैर का विचार त्याग दिया। इस कोरोना और लॉक डाउन ने जीवन की लय, ताल सब बदल दी। बज तो रहा है पर सुर कहीं खो गए हैं। दूध लाओ तो पहले थैली साबुन में धो। सब्जी लाओ तो पहले उसे नमक ओर सोडे के घोल में डुबो के रखो। फिर रगड़ के साफ पानी से धो और पोंछो। कुछ लोग तो पॉलिथीन की थैलियों को भी धो कर सुखा रहे हैं। बाहर निकलो तो मुख लँगोट धारण करो। कोई खाँस दे या छींक दे तो लोग ऐसे भागते हैं, मानो साक्षात मृत्यु के  दर्शन कर लिये हों। मरनेे से कितना डरता है आदमी ! ये जानते हुए भी कि एक दिन सभी को मरना है। फिर भी हर कोई चाहता है कि बस मैं न मरूँ। जब कि सत्य ये है कि जन्म के साथ ही मृत्यु भी जन्म लेती है। उसका तरीका, स्थान और समय सब जन्म के साथ ही निश्चित हो जाता है। पर फिर भी इन्सान कितना भयभीत रहता है। पर कर्म करना तो व्यक्ति का अधिकार है। इसलिए जब तक संभव हो मृत्यु को टालने के लिए, उससे बचने के लिए हर संभव प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि शरीर से ही अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष - चारो पुरुषार्थ सधते हैं। मुझे लगता है हम सब वही कर रहे हैं। बस अंतर इतना है कि डर कर कर रहें है। इसी भय ने जिंदगी बेसुरी सी कर दी।

इन्हीं खो गए सुरों को ढूढ़ने मैं संध्या को बाहर आ गया। वैसे भी मधुमेह के रोगी को रोज़ चलना अनिवार्य है। बाहर हवा अच्छी चल रही थी। पेड़ साथ साथ झूम रहे थे। आकाश कँही नीला तो कँही सपाट सफ़ेद सा था। पक्षी अपने डैन फैलाये उड़ रहे थे। कितनी सरलता से हवा में तैरते है ये पक्षी भी। कभी कभी पंख फड़फड़ा के अपनी उड़ान को गति देते हैं और फिर पँख फैलाये तैरते चले जाते है। अबाध आकाश में। इन्हें पिंजरे में कैसा लगता होगा ये इंसान शायद अब अच्छी तरह से समझ रहा होगा जब वह स्वयं कैद है। इन दिनों आकाश में कोई जहाज़ भी नज़र नहीं आ रहा। कोरोना ने सब को ज़मीन पर ला खड़ा किया है। नहीं तो एक के पीछे एक लाल नीली बत्तियों को जलाते बुझाते ये उड़ते ही रहते थे। पास ही कँही मोर कूक रहा था - "मेह आओ"। शायद बारिश हो रात में। हवा में तो ठंडक सी थी। पीपल के पेड़ तले दो दिए जगमगा रहे थे। अगरबत्ती की सुगंध आस पास फैल रही थी। आकाश भी नीलिमा छोड़  कालिमा ओढ़ चला था। एक चमगादड़ अंजीर के पेड़ से उड़ा और घने नीम में जा ओझल हो गया। यही तो है सारे फ़साद की जड़ जिसने जीवन को रोक सा दिया है। पर इसने कब चाहा था कि ऐसा हो। आदमी ने अपनी जिव्हा के स्वाद के लिए, इस निरीह पक्षी की भी बलि चढ़ा दी तो प्रकृति कुपित हो गई। आख़िर प्रकृति सब की माता है। पर ये वॉयरस तो बड़ा ही कृतघ्न निकला। जिस इंसानी जिस्म ने इसे आश्रय दिया उसी पर कब्ज़ा कर उसे नष्ट करने पर आमादा है। देखा जाय तो ये अस्तित्व की लड़ाई है। वॉयरस अपने अस्तित्व के लिए लड़ रहा है और इंसान अपने अस्तित्व के लिए। जीत तो अंत में इंसान की ही तय है। देखना ये है कि इस में समय कितना लगता है और इस युद्ध में कितने इंसानों की बलि चढ़ती है।
 
कॉलोनी में आने वाली एक कार से विचारों की श्रंखला भंग होती है। थक भी चुका हूँ। संध्या बीत रही है। मैं अंदर आ जाता हूँ। रसोई घर से आलू की टिक्की की ख़ुशबू उड़ रही है। आज रात्रि का भोज यही है। अच्छे से सिक कर करारी हो तो चटनी और सौंठ के संग स्वाद लिया जाए। शायद जिंदगी सुर में आ जाये। 

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