Tuesday, 12 May 2020

तन और मन

मन का और तन का बहुत गहरा रिश्ता है। मन दुःखी तो तन भी निस्तेज़। मन क्लान्त तो तन भी थका थका। मन आनंदित तो तन भी चौकड़ी भरता। जब भी मैं थका, टूटा सा होता हूँ, अपने मन का सूक्ष्म निरीक्षण करता हूँ और हर बार पाता हूँ कि तन की थकान कँही न कँही मन से जुड़ी है। ऐसा आज से हो ऐसा नहीं है। मैं तो बचपन से ही ऐसा हूँ। पहले समझ नहीं पाता था अब समझ आता है। जीवन के पन्ने जो सहज़ रक्खें हैं कुछ पीछे पलटता हूँ। मेरा बचपन तो नहीं, हाँ किशोरावस्था और उसके बाद का एक बड़ा हिस्सा रेलवे क्वाटर में गुजरा है। रेलवे कॉलोनियां अक्सर रेल की पटरी के पास होती हैं। और हमारा क्वाटर तो बिल्कुल रेलवे पटरी के पास ही था। साथ ही लगता सब्ज़ी मंडी का स्टेशन । रेलगाड़ी आती, रुकती और चली जाती। हमारे क्वाटर के साथ ही एल आकार की कच्ची जमीन थी। जिसके चारों और  मेहँदी की घनी बाड़ लगी थी। खिड़की से बिल्कुल लगा एक चंपा का पेड़ था जिसके फूलों की मदहोश करने वाली महक  विशेष कर रात में पूरे घर में तैरती रहती। मेहँदी की बाड़ में कुछ दूरी पर दो शहतूत के पेड़ अपने आप ही उग आए थे। पूरे गार्डन में क्वाटर की दीवार के साथ साथ देसी ग़ुलाब लगा था। फूल इतने उतरते कि गुलकंद बना लो। आँगन की तरफ़ बाहर की और बोगनविलिया की लता चढ़ गई थी जो रानी कलर के पुष्पों से लदी रहती थी। पीछे से चढ़ कर लता अंदर आँगन के ऊपर दीवार के साथ साथ छा गई थी। जिस पर गौरैया फुदकती रहती और गिलहरियाँ चढ़ती उतरती रहती। इस लता ने आँगन के एक हिस्से के ऊपर छत सी तान दी थी। इसी के नीचे ठंडक में मैं खाट डाल कर पढ़ता था। जब कभी मन क्लान्त होता ये कुंज मेरे को बड़ी राहत देता। ठंडी हवा बहती हुई अपने साथ स्टीम इंजन के धुएं की गंध भी ले आती। पक्षियों का स्वर और गिलहरियों का शोर मुझ पर मरहम का काम करता। साथ मे लगी रसोईघर की खिड़की में माँ काम करती दृष्टिगोचर होती रहती। दीवार के पीछे लगे ग़ुलाब भी हवा के किसी झोंके के साथ अपनी ख़ुशबू अंदर आँगन में उँड़ेल देते। क्लान्त मन प्रफुलित हो उठता। तन में आनन्द भर जाता। खाट पर खड़ा हो मैं हाथ से बोगनविलिया की लता हिलाता तो वो लता ढेर सारे पुष्पों की मुझ पर वर्षा कर देती। मुझे याद आता जब मैं बहुत छोटा अज़मेर चाचा जी के यँहा जाया करता था तो उनके क्वाटर के बाहर एक पारिजात का वृक्ष लगा था जो अल्ल सुबह अपने सारे पुष्प पृथ्वी पर गिरा उस धरा की पूजा करता था जिसने उसे धारण किया था। मुझे लगता कि बोगनविलिया की ये लता पुष्प वर्षा कर मेरा अभिनन्दन कर रही है। मन में छाए आनन्द का तन पर तुरंत प्रभाव पड़ता और मेरी सारी थकान न जाने कँहा गायब हो जाती। मैं आनन्दित हो बाहर निकल आता और नंगे पैर ही बाहर बिछी हरी घास के मैदान में दोनों हाथ फैला कर दौड़ता। बहती हवा मेरे चहरे से टकराती और मुझे एक नई ऊर्जा से भर देती। रेलगाड़ी मेरे सामने से गति बढ़ाती निकलती तो मैं साथ साथ दौड़ता जब तक वह मुझसे आगे नहीं निकल जाती। पास में उगे आक के पौधों को देखता मैं लौट पड़ता। एक नई ऊर्जा के साथ। हवा में चौलाई लहराती रहती। और हिलोरे लेता मेरा मन तैयार होता एक नया आकाश छूने को।



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