Sunday, 21 March 2021

सरकारी बनाम निजी

अभी कुछ दिन पूर्व ही हम मित्रों में चर्चा चल रही थी। कुछ का कहना था कि सरकार देश बेच रही है। सरकारी उपक्रमो में, जिनमें ऐसे उपक्रम भी सम्मिलित है जो मुनाफ़े में हैं, सरकार विनिवेश कर रही है; अपनी हिस्सेदारी कम कर रही है। मैंने कहा कि इसमें क्या बुरा है?  बोले देश पुनः गुलाम हो जाएगा। मैंने पूछा कैसे ? तो जवाब मिला कि विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (FDI) को देश में लाया जा रहा है जिससे पैसा बाहर जाएगा। मैंने कहा कि किसी भी सरकार का काम होता है नीतियां बनाना।  न कि रेल चलाना, बसे चलाना, बैंक चलाना, टेलीफोन कम्पनियां चलाना या फिर ऐसे ही अन्य कार्य करना। किसी भी विकसित देश को ले लो, वँहा की सरकार नीति निर्धारण का काम करती है बाकी कार्य तो सब निजी क्षेत्र के पास है। हाँ, सरकार को नियामकों (रेगुलेटर्स) को जरूर अपने पास रखना चाहिए, जिससे इन निजी क्षेत्रों पर कुछ हद तक नियंत्रण रखा जा सके जिससे ये मनमाने तरीके से जन सामान्य का दोहन न कर सकें। तो इस पर कुछ मित्रों का विचार था कि ये पूंजीवादी सोच है। खैर, इस चर्चा को रखने का उद्देश्य इतना ही था कि सरकारी और निजी कंपनियों के कार्य करने के तरीके की भूमिका तैयार की जा सके।

चलिए इस अंतर को एक परिदृश्य से समझते हैं। मेरे निजी अनुभव है कोई काल्पनिक घटना नही । बात कर रहा हूँ सरकारी टेलीफ़ोन कम्पनी की और निजी टेलीफ़ोन कम्पनी की। मेरे घर पर कुछ वर्ष पूर्व सरकारी टेलीफोन कम्पनी का फ़ाइबर कनेक्शन लगा था। सरकारी इसलिए लेना पड़ा कि उन दिनों निजी कंपनियों का फ़ाइबर मेरे क्षेत्र में उपलब्ध नहीं था। खैर एक फॉर्म भरना पड़ा। कुछ मॉडम की सिक्योरिटी राशि जमा करवाई। कुछ दिन के बाद कनेक्शन डाल के एक मॉडम दे दिया गया। उसमें बस पॉवर की LED हरी थी। बाकी डेटा LED लाल जलती रही। कई दिन बाद कुछ लोग आए, कुछ कुछ करते रहे जिससे बाकी LED भी अब हरी हो गईं। पर नेट नहीं चल रहा था। जो व्यक्ति आये थे उन्हें शायद उतनी तकनीकी जानकारी नहीं थी । खैर, एक साहब आये और कम्प्यूटर या लैपटॉप मांगा और IP एड्रेस, गेटवे एड्रेस डाल कर नेट चलाया। मैंने कहा कि ये तो वायर्ड कनेक्शन है मुझे तो wifi राऊटर चाहिए जिससे में वायरलैस नेट चला सकूँ। तो पता चला कि कम्पनी तो वायर्ड ही उपलब्ध कराती है। वायरलैस चाहिए तो अपना राऊटर खरीदिये। मैंने अमेज़न से 1200 रुपये का सस्ता सा wifi राऊटर मंगाया और स्वयं ही कॉन्फ़िगर कर चालू किया। FFTH का ये कनेक्शन जब तक चलता, स्पीड के मामले में घिसट घिसट कर चलता। और जब भी LED लाल हो जाती तो कभी भी सप्ताह से पहले ठीक नहीं होता। शायद ही कभी 35-40  mbps से अधिक स्पीड मुझे मिल पाई हो। इसके साथ जो एक लैंडलाइन टेलीफोन कनेक्शन दिया गया उसमें लाइन पर इतना शोर था कि आपके कान में समस्या हो जाये। तो लैंडलाइन उपकरण उठा कर रख दिया। आप चाहे व्हाट्सएप्प वीडियो कॉल करें या प्राइम/नेटफ्लिक्स देखना चाहें, स्ट्रीमिंग इतनी स्लो कि आप फ़िल्म कम और स्क्रीन पर चक्र घूमता ज़्यादा देखेंगे। और भुगतान के मामले में, तो तीन महीने का अग्रिम रेंटल आप से ले लिया जाता। एक दिन भी पेमेंट में देरी हो जाये तो 100 रुपये सीधा लेट फ़ी के आप पर थोप दिए जाते थे। आपका कनेक्शन चाहे 10 दिन डाउन पड़ा रहे उसकी कोई रिबेट आपको नहीं दी जाती थी। वो तो जब तक एक परिचित तीस हजारी एक्सचेंज में थे, फोन पर लिहाज़ कर शिकायत अटेंड करवा देता थे। जब से वो रिटायर हुए, तब से तो शिक़ायत कई कई दिनों तक "पेंडिंग एट FOD" में ही पड़ी रहती थी। 13 तारीख़ को शिक़ायत दर्ज कराई थी आज 20 तारीख़ को जब तक मैं तंग आ कर कनेक्शन ही कटवा चुका था, एक सज़्ज़न पूछने आये थे कि नेट चल रहा है क्या?

अब देखिए निजी कम्पनी की एक झलक! मैंने रात फोन किया कि मुझे एक कनेक्शन लगवाना है। क्या प्लान्स हैं? तुरन्त मेरे व्हाटसअप पर सारे प्लान्स की डिटेल भेज दी गई। मैंने पूछा ,कब तक लग जायेगा तो बोले जब आप कहें। मैंने पूछा कल लग सकता है क्या? बोले बिल्कुल। मैंने कहा पर मैं तो साढ़े आठ तक निकल जाता हूँ। तो बोले कल आठ बजे मैं आपसे मिलता हूँ। अंतर देखिए सरकारी टेलीफोन कम्पनी में आपको जाने पर भी 11 बजे तक भी कोई अटेंड कर ले तो भाग्यशाली समझिये अपने आप को। ठीक 8 बजे सुबह, वो व्यक्ति मेरे दरवाज़े पर था। मैंने सोचा कोई फॉर्म भरवायेगा और मुझे देर होगी। पर उसने मेरा आधार कार्ड मांगा। मेरी एक फोटो अपने मोबाईल से ली। एक OTP जो मेरे मोबाईल पर आया था , मांगा और कहा कि आपके मोबाईल पर पेमेंट लिंक आया होगा। मैंने लिंक पर जा भुगतान किया और दस मिनट में वो जा चुका था। मैं ठीक समय पर ऑफिस निकल गया। मैं अभी लिफ़्ट में ही था कि टेक्नीशियन का फ़ोन आया कि मैं आपकी कॉलोनी में हूँ। कनेक्शन लगाना है। कोई 12 बजे तक कनेक्शन लगा, चालू कर वो चला गया। शाम को मैं आया तो देखा मेरा राउटर एक तरफ पड़ा है। और एक सुंदर सा ड्यूल बैंड मॉडम-कम- wifi राऊटर लगा हुआ था। 5G बैंड पर स्पीड 200 mbps+ आ रही थी। और कोई सिक्योरिटी नहीं। लागत सरकारी से थोड़ी कम। 

इधर सरकारी टेलीफोन एक्सचैंज में जब मैंने किसी को कनेक्शन सरेंडर करने के लिए, मॉडम और फ़ोन इंस्ट्रूमेंट के साथ भेजा तो एक्सचेंज ने लेने से मना कर दिया क्योंकि सम्बन्धित कर्मचारी साइट पर था। किसी भूतपूर्व अधिकारी से फ़ोन करवाया तब कहीं जाकर वो समान जमा हो सका। उस पर मेरा पैन कार्ड मांगा गया। मेरी समझ नहीं आ रहा कि कनेक्शन काटने में पैन कार्ड का क्या काम ?  सिक्योरिटी रिफंड के बारे में पूछने पर एक माह बाद आने को कहा गया। वो व्यक्ति तो सामान जमा कराने गया था सुबह 10 बजे से वहाँ धक्के खाता रहा और तीन बजे वापस आ पाया। अब ऐसे विभाग को क्या कहें जो अपना सामान लेने में ही आनाकानी कर रहा है। किसके पास इतना समय है जो इनके चक्कर लगाए! इन्हें तन्खाह समय से पूरी मिल जाती है। इन्हें कोई मतलब नहीं कि ग्राहक परेशान हो रहा है या हमें छोड़ जाएगा। इनकी बला से सारे ग्राहक ही निजी ऑपरेटर के पास चले जायें। इसकी विपरीत , आप अपना मोबाईल नम्बर एक निजी सेवा दाता से दूसरे निजी सेवा दाता के पास पोर्ट करा कर तो देखिए, ऐसे चिरौरी करेंगे मानो उनकी जॉब ही जा रही हो। ये अंतर है ,सरकारी में और निजी क्षेत्र में।

ऐसे ही बैंक के मेरे पास कई अनुभव है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की सेवाएं, उनके कर्मचारियों का व्यवहार तो इतना खराब है कि क्या बतायें। ये ठीक है कि सभी सरकारी कर्मचारी ख़राब नही होते। मैंने भी सरकार में सेवाएं दी हैं। परंतु ये भी सत्य है कि अधिकतर विभागों में स्थितियां खराब है विशेषकर उन विभागों में जहाँ जन सामान्य को इन सरकारी विभागों से कम पड़ता है।

अब सरकार ठीक कर रही है या गलत, ये बहस बेमानी है। सत्य तो ये है कि आम आदमी को इन भृष्ट, कामचोर सरकारी कर्मचारियों से मुक्ति चाहिए और निजीकरण के अलावा इसका कोई विकल्प नहीं है।

Thursday, 18 March 2021

चौकीदार

रात अभी बीती ही थी। भोर का तारा आसमान पर चमकते हुए कुछ फीकी चमक लिए उदित ही हुआ था। चाँद पश्चिमी दिशा की और अग्रसर था। अल्ल सुबह उठने वाले पक्षी भी अपने अपने नीड़ों में अकुला रहे थे। थके कदमों से वो भी घर की ओर चले जा रहा था। पूरी रात डंडा खड़कता, सीटी बजाता वो थक चुका था। सुनसान सड़क पर उसके भारी जूतों की आवाज़ गूंज रही थी। सड़क के दोनों और लगे पेड़ो से ओस अभी भी टपक रही थी। उसने अपना कनटोप नीचे खींच कानों को पूरी तरह ढक लिया। ओवर कोट में अब गर्मी बाकी नहीं बची थी। बस दिखावे भर को था। उसने डंडा बगल में दबा कर दोनों हाथ कोट की जेब  में डाल लिए। अंदर पड़ी टॉर्च बर्फ जैसी ठंडी थी। कुछ कुत्ते उसके पीछे पीछे चल रहे थे। शुरू शुरू में तो इन कुत्तों ने उसे बड़ा तंग किया था। पर अब तो अच्छे से पहचानते हैं। मानो रात में उनके साम्रज्य में उन्होंने इस बूढ़े की उपस्थिति स्वीकार कर ली थी। वो उस पुलिया पर आ चुका था जिसके पास पोखर था। ये जगह उसे वर्षो से अच्छी लगती थी। पोखर में जब कमल खिलते तो वो देर तक उन्हें निहारा करता। ये पोखर सिंघाड़ों के लिए भी जाना जाता था। जब वो युवा था तो औरों के साथ मिल कर खूब सिंघाड़े निकालता था इस पोखर से। ऊपर से हरे और अंदर से दूधिया सिघाड़े का स्वाद याद आते ही उसके मुंह मे घुल गया। उसकी जिव्हा ने उस स्वाद को वास्तव मे महसूस किया होगा तभी वो ऐसे मुँह चलाने लगा मानो सिंघाड़ा चबा रहा हो। आगे लम्बी सड़क थी। उसने जेब टटोली और मुसा तुसा बीड़ी का बंडल निकाला। बामुश्किल एक बीड़ी उस बंडल से मिल पाई। उसने कागज़ नीचे गिरा दिया और बीड़ी सूखे बेज़ान से होंठो में दबा ली। ऊपर की जेब से दियासलाई निकाल वो बीड़ी सुलगाने का उपक्रम करने लगा। दोनों हाथों से ओट कर उसने बीड़ी सुलगाई और जल्दी ज़ल्दी दो चार लम्बे कश लिए। बीड़ी का अगला भाग अंगारे की तरह दहकने लगा। तम्बाकू की चिर परिचित महक उसके नथुनों में प्रविष्ट हुई। उसने धुंआ उड़ा दिया। नाक पर लगे मोटे शीशों के चश्में को जो इस उपक्रम में नीचे खिसक आया था, उसने यथा स्थान चढ़ा दिया और चाल बढ़ा दी। पक्षियों का कलरव दोनों और लगे पेड़ो पर प्रारंभ हो चुका था। सड़क पर भी अब आवाजाही बढ़ गई थी। दूध वाले, अखबार वाले अपनी अपनी दिनचर्या पर निकल चुके थे। भोर का तारा भी अब नहीं दीख पड़ रहा था। मक्खन टोस्ट वाला अपनी साइकिल पर पीछे बंधे सन्दूक में मक्खन टोस्ट ओर अंडे लिए उसके साथ से गुजरा। एक फ़ीकी सी मुुस्कान से दोनों में दुआ सलाम हुई। "मक्खन लो ,टोस्ट लो, अंडे लो" की आवाज लगता वो आगे बढ़ गया। वो अपने घर के पास आ गया था। लकड़ी का टूटा पड़ा दरवाज़ा जो अहाते तक ले जाता था अधखुला पड़ा था। अहाते में आ कर उसने पारिजात के पेड़ पर शोर मचाती चिड़ियों को देखा। ये पारिजात का पेड़ भी कितने वर्षों से इस आंगन में है। प्रतिदिन फूलों की चादर से बिछ जाती है इसके नीचे अश्विन, कार्तिक में। सारा आहता खुशबू से भर उठता है उन दिनों। तब उसकी पत्नी जिंदा थी। उसी की ज़िद पर वो ये पारिजात का पौधा लाया था इस आँगन में रोप ने के लिए। अब ये पेड़ बन चुका है। कई बार वो हँसते हुए अपनी पत्नी से कहता था कि जैसे भगवान कृष्ण रुक्मणी को प्रसन्न करने के लिए इंद्र सभा से पारिजात लाये थे वैसे ही वो भी उसकी प्रसन्नता हेतु ये पारिजात का पौधा लाया है। तो वो हाथ नचा कर कहती थी, " आह आह! तो तुम अपने को भगवान कृष्ण समझते हो।" और वो भी कह उठता था ," तो तुम्हें भी तो देवी रुक्मणी कह रहा हूँ।" क्या समय था वो भी! जूते उतारते हुए वो सोचने लगा। कितना भरा पूरा घर हुआ करता था। चारों तरफ़ चहल पहल। और अब कितना सन्नाटा पसर गया है। एक एक करके सभी चले गए। कुछ भगवान के पास तो कुछ दूर परदेस, अपनी किस्मत आजमाने। रह गया तो वह ही। दो जून की रोटी कमाने के लिए उसने चौकीदारी का काम पकड़ लिया। वैसे भी रात में नींद तो अब आती नहीं। आँगन में लगे तुलसी चौरा के पास रखे घड़े से पानी निकालते हुए इसकी नज़र तुलसी चौरा पर गई। कितना जर्जर हो गया है ये बीते कुछ सालों में! कहाँ ये समय समय पर लाल गेरू से पुता होता था जिस पर सफ़ेद खड़िया से चित्रकारी की होती थी। रँगे पुते चौरा पर हरा भरा तुलसी का पौधा जिस पर रोज़ संध्या दीपक जगमगाता था, कितना भला लगता था। समय भी क्या क्या रंग दिखाता है जीवन में। ठंडे पानी से मुँह धोते हुए उसे कंपकपी हुई। अंगोछे से हाथ मुँह पोंछता हुआ वो भीतर आ गया। ठंडे पड़े चूल्हे को गर्म कर उसने चाय का पानी चढ़ा दिया। चाय पी कर वो थोड़ा सो लेना चाहता है। जब लोगो का आधा दिन बीत चुका होगा तो उसकी सुबह होगी। ऐसे ही आधी अधूरी जिंदगी काट रहा है वह। सब उसे चौकीदार के रूप में जानते है। उन्हें क्या पता कि बचा खुचा समय उसकी चौकीदारी कर रहा है। क्या पता वो कब समय को धता बताता हुआ धीरे से दबे पाँव निकल ले अपने अंतिम गन्तव्य की ओर।