Thursday, 18 March 2021
चौकीदार
रात अभी बीती ही थी। भोर का तारा आसमान पर चमकते हुए कुछ फीकी चमक लिए उदित ही हुआ था। चाँद पश्चिमी दिशा की और अग्रसर था। अल्ल सुबह उठने वाले पक्षी भी अपने अपने नीड़ों में अकुला रहे थे। थके कदमों से वो भी घर की ओर चले जा रहा था। पूरी रात डंडा खड़कता, सीटी बजाता वो थक चुका था। सुनसान सड़क पर उसके भारी जूतों की आवाज़ गूंज रही थी। सड़क के दोनों और लगे पेड़ो से ओस अभी भी टपक रही थी। उसने अपना कनटोप नीचे खींच कानों को पूरी तरह ढक लिया। ओवर कोट में अब गर्मी बाकी नहीं बची थी। बस दिखावे भर को था। उसने डंडा बगल में दबा कर दोनों हाथ कोट की जेब में डाल लिए। अंदर पड़ी टॉर्च बर्फ जैसी ठंडी थी। कुछ कुत्ते उसके पीछे पीछे चल रहे थे। शुरू शुरू में तो इन कुत्तों ने उसे बड़ा तंग किया था। पर अब तो अच्छे से पहचानते हैं। मानो रात में उनके साम्रज्य में उन्होंने इस बूढ़े की उपस्थिति स्वीकार कर ली थी। वो उस पुलिया पर आ चुका था जिसके पास पोखर था। ये जगह उसे वर्षो से अच्छी लगती थी। पोखर में जब कमल खिलते तो वो देर तक उन्हें निहारा करता। ये पोखर सिंघाड़ों के लिए भी जाना जाता था। जब वो युवा था तो औरों के साथ मिल कर खूब सिंघाड़े निकालता था इस पोखर से। ऊपर से हरे और अंदर से दूधिया सिघाड़े का स्वाद याद आते ही उसके मुंह मे घुल गया। उसकी जिव्हा ने उस स्वाद को वास्तव मे महसूस किया होगा तभी वो ऐसे मुँह चलाने लगा मानो सिंघाड़ा चबा रहा हो। आगे लम्बी सड़क थी। उसने जेब टटोली और मुसा तुसा बीड़ी का बंडल निकाला। बामुश्किल एक बीड़ी उस बंडल से मिल पाई। उसने कागज़ नीचे गिरा दिया और बीड़ी सूखे बेज़ान से होंठो में दबा ली। ऊपर की जेब से दियासलाई निकाल वो बीड़ी सुलगाने का उपक्रम करने लगा। दोनों हाथों से ओट कर उसने बीड़ी सुलगाई और जल्दी ज़ल्दी दो चार लम्बे कश लिए। बीड़ी का अगला भाग अंगारे की तरह दहकने लगा। तम्बाकू की चिर परिचित महक उसके नथुनों में प्रविष्ट हुई। उसने धुंआ उड़ा दिया। नाक पर लगे मोटे शीशों के चश्में को जो इस उपक्रम में नीचे खिसक आया था, उसने यथा स्थान चढ़ा दिया और चाल बढ़ा दी। पक्षियों का कलरव दोनों और लगे पेड़ो पर प्रारंभ हो चुका था। सड़क पर भी अब आवाजाही बढ़ गई थी। दूध वाले, अखबार वाले अपनी अपनी दिनचर्या पर निकल चुके थे। भोर का तारा भी अब नहीं दीख पड़ रहा था। मक्खन टोस्ट वाला अपनी साइकिल पर पीछे बंधे सन्दूक में मक्खन टोस्ट ओर अंडे लिए उसके साथ से गुजरा। एक फ़ीकी सी मुुस्कान से दोनों में दुआ सलाम हुई। "मक्खन लो ,टोस्ट लो, अंडे लो" की आवाज लगता वो आगे बढ़ गया। वो अपने घर के पास आ गया था। लकड़ी का टूटा पड़ा दरवाज़ा जो अहाते तक ले जाता था अधखुला पड़ा था। अहाते में आ कर उसने पारिजात के पेड़ पर शोर मचाती चिड़ियों को देखा। ये पारिजात का पेड़ भी कितने वर्षों से इस आंगन में है। प्रतिदिन फूलों की चादर से बिछ जाती है इसके नीचे अश्विन, कार्तिक में। सारा आहता खुशबू से भर उठता है उन दिनों। तब उसकी पत्नी जिंदा थी। उसी की ज़िद पर वो ये पारिजात का पौधा लाया था इस आँगन में रोप ने के लिए। अब ये पेड़ बन चुका है। कई बार वो हँसते हुए अपनी पत्नी से कहता था कि जैसे भगवान कृष्ण रुक्मणी को प्रसन्न करने के लिए इंद्र सभा से पारिजात लाये थे वैसे ही वो भी उसकी प्रसन्नता हेतु ये पारिजात का पौधा लाया है। तो वो हाथ नचा कर कहती थी, " आह आह! तो तुम अपने को भगवान कृष्ण समझते हो।" और वो भी कह उठता था ," तो तुम्हें भी तो देवी रुक्मणी कह रहा हूँ।" क्या समय था वो भी! जूते उतारते हुए वो सोचने लगा। कितना भरा पूरा घर हुआ करता था। चारों तरफ़ चहल पहल। और अब कितना सन्नाटा पसर गया है। एक एक करके सभी चले गए। कुछ भगवान के पास तो कुछ दूर परदेस, अपनी किस्मत आजमाने। रह गया तो वह ही। दो जून की रोटी कमाने के लिए उसने चौकीदारी का काम पकड़ लिया। वैसे भी रात में नींद तो अब आती नहीं। आँगन में लगे तुलसी चौरा के पास रखे घड़े से पानी निकालते हुए इसकी नज़र तुलसी चौरा पर गई। कितना जर्जर हो गया है ये बीते कुछ सालों में! कहाँ ये समय समय पर लाल गेरू से पुता होता था जिस पर सफ़ेद खड़िया से चित्रकारी की होती थी। रँगे पुते चौरा पर हरा भरा तुलसी का पौधा जिस पर रोज़ संध्या दीपक जगमगाता था, कितना भला लगता था। समय भी क्या क्या रंग दिखाता है जीवन में। ठंडे पानी से मुँह धोते हुए उसे कंपकपी हुई। अंगोछे से हाथ मुँह पोंछता हुआ वो भीतर आ गया। ठंडे पड़े चूल्हे को गर्म कर उसने चाय का पानी चढ़ा दिया। चाय पी कर वो थोड़ा सो लेना चाहता है। जब लोगो का आधा दिन बीत चुका होगा तो उसकी सुबह होगी। ऐसे ही आधी अधूरी जिंदगी काट रहा है वह। सब उसे चौकीदार के रूप में जानते है। उन्हें क्या पता कि बचा खुचा समय उसकी चौकीदारी कर रहा है। क्या पता वो कब समय को धता बताता हुआ धीरे से दबे पाँव निकल ले अपने अंतिम गन्तव्य की ओर।
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