Monday, 1 May 2023

सुखी राम के दास

आज कार्यालय में एक पुराने सहकर्मी आये। वैसे ये कोई पहली बार नहीं था। वो जब भी आस पास से गुजरते हैं, आ ही जाते हैं। अब ये कहना कठिन है कि उनका प्रेम उन्हें मुझ तक खींच लेता है या फिर एक अदद डायरी, कलेंडर आदि की चाह उन्हें मुझ तक ले आती है। मेरे पास ये चीजें न चाहने पर भी कहीं न कहीं से आती रहती हैं। मेरा इन सब से न तो कभी लगाव रहा और न ही अब है। डायरियां तो पड़े पड़े पुरानी हो जाती हैं। कलेंडर भी कुछ महीने बीतने के साथ रद्दी हो जाते है और डस्ट बिन में जगह पाते हैं। बैग इत्यादि मैं या तो स्वीकार ही नहीं करता या फिर किसी को दे देता हूँ। वो सहकर्मी जब भी आते हैं, एक अदद डायरी तो ले ही जाते हैं। आज भी बोले, " साहब, आप इतनी बड़े पद पर हो, एक आध डायरी तो दो।" मैं भी इस मांग का इंतज़ार ही कर रहा था। मैंने पूछा कि आख़िर डायरी का करते क्या हो? बोले, गाँव जा रहा हूँ। लोग मांगते हैं। मैंने कहा आख़िर वो क्या करते हैं। तो बोले, " कोर्ट कचहरी की तारीख़ लिखते हैं, ट्यूब वैल की बिजली का हिसाब रखते हैं, पैसे का लेन देन रखते हैं, आदि आदि। मैं सोचने लगा कि गाँव के लोग तो कमाल के हैं। फिर बोले, " फ़सल तैयार है, बच्चे हैं कि गाँव जाना ही नहीं चाहते। बड़ा बेटा तो विदेश में ही है। उसके दो बच्चे हैं। बेटी बड़ी है तो बेटा पाँच का हो चला है। जानते हैं आज सुबह जब वीडियो कॉल पर हमने पोते से बात करनी चाही, तो अंग्रेज़ी में बोला कि टाइम नहीं है। बड़ा बेटा कहता है यहाँ आ जाओ । मैं टिकिट करा देता हूँ। साहब, हमारा तो मन नहीं लगता। कैद है। क्या बतायें कैद से भी बदतर है। कैद में आप साथी कैदियों से बात तो कर सकते हो। वहाँ किस से बात करें। आ जा कहीं सकते नहीं। हम तो यहीं खुश हैं। हाँ, उसकी माँ कहती है कि जब टिकट करा रहा है तो जाने मैं क्या हर्ज है! जाएंगे। पर अभी तो गाँव जा रहे है।वैसे छोटा वाला भी कनाडा जाने के चक्कर में है। हमने कहा पहले अपना केस तो निबटने दो।" वो अपनी व्यथा सुनाते ही जा रहे थे। मैंने पूछा, "कौनसा केस?" बोलो, "डाइवोर्स का केस चल रहा है।" मैंने कहा, कोई बाल बच्चा है? बोले, "नहीं। ब्याह के एक वर्ष भीतर ही अनबन हो गई थी। तभी से अलग रहते हैं। खाना बाहर से मंगवा लेता है।" मैंने कहा तो तुम साथ क्यों नहीं रहते? कहने लगे, "हमें तो गाँव आना जाना लगा ही रहता है। हम तो जहां हैं वहीं ठीक हैं।" वो चलने को हुए तो मैंने एक डायरी थमा दी। उन्होंने उसे अपने बैग में रखा। और बोले, कोई अच्छा सा बैग वैग दिलवाए। मैंने कहा अब मैंने कोई बैग की एजेंसी तो ले नहीं रखी ! कहने लगे, "कॉम्पलेमेंट्री तो मिल ही जाते होंगे।" मैंने कहा तुम्हें तो पता है मैं कॉम्पलेमेंट्री किसी से कुछ नहीं लेता!  बोले सो तो है। मैं आपको जानता नहीं क्या! वो तो चले गए और मैं सोचने लगा, किसी ने ठीक ही कहा है, "कोई तन दुःखी, कोई मन दुःखी, कोई धन बिन रहत उदास। थोड़े थोड़े सब दुःखी, सुखी राम के दास।"


No comments:

Post a Comment