आज किसी निकट के निधन पर शमशान जाना हुआ। एक मेला सा लगा हुआ था। एक के बाद एक आता ही चला आ रहा था। मानो एक होड़ सी मची हो - कि पहले कौन। सच है जाने वाले के साथ कोई नहीं जाता। दुःख भी परिवार के निकट सम्बन्धियों को ही होता है। बाकी तो बस एक कर्तव्य निभाने के लिए आते प्रतीत होते हैं। कोई मोबाइल पर लगा है तो कोई और किसी चर्चा मेँ व्यस्त है।पर मुझे लगता है कि न आने से तो कर्तव्य पालन को आना भी ठीक ही है। दुःख तो जुड़ाव से होता है। जिसका जितना जुड़ाव उतना अधिक दुःख। किसी और की शव यात्रा मेँ आई कुछ औरतेँ जोर जोर से विलाप कर रही थीं। पर दूसरे जिनका उस व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं था तटस्थ थे।
कर्म कांड करने वाला पंडित भी मात्र मशीनी मानव लग रहा था। एकदम तटस्थ और उदासीन। कोई आओ कोई जाओ उसे तो वो ही सब करना है।
मुझे किसी को गाड़ी पर विदा करने जाना पसंद नहीं है। कुछ कुछ वैसा ही लगता है मरघट मेँ आ कर। एक अजीब सा खाली पन। पास बहती हवा जलती चिताओं के धुंए को लेकर बह रही थी। यमुना भी सहजता से शांत थी । मानो शोकाकुल हो।दूर कभी कभी मेट्रो जाती दीख जाती थी। शिव शंकर की बड़ी सी प्रतिमा मानो कह रही थी -मैं ही सृजन करता हूँ और मैं ही विनाश। तेज धूप से बचने के लिए मैं एक पेड़ के नीचे आ जाता हूँ। सोचता हूँ कि पेड़ होता तो कितना सकून पाता।भावनाओं से तो परे होता। चिता की अग्नि तेज होती जा रही थी। तपत से बचने को मेँ बाहर आकर शेड मेँ बैठ जाता हूँ। कुछ और लोग भी वँहा बैठे हैं। एक कुत्ता पास पड़ी गीली रेत की ढेरी पर ठंडक में बैठा था।
शायद कार्य पूरा हो चुका था। लोग हाथ मुंह धोने जा रहे थे। मैं भी पीछे हो लिया। एक बचपन के मित्र मिले। बोले आजकल तो यह नहीं पता चलता की बीमार पहले जायेगा या फिर स्वस्थ चल देगा। मैने कहा कि एक बात तो पक्की है। जायँगे सब। कोई आगे कोई पीछे। बोले इसमें क्या शक है। एक साहिब जो बाहर से आये थे उन्हें घाट की व्यवस्था बहुत पसंद आई।
धूप प्रखर हो गयी थी। मैं विचलित सा खड़ा सोच रहा था कि क्यों इतनी भाग दौड़ करें जब सब यंही छोड़ के जाना है। फिर एक कवि की कुछ पंक्तियाँ याद हो आती है -
निर्भय स्वागत करो मृत्यु का
मृत्यु एक विश्राम स्थल है
जीव जँहा से फिर चलता है
धारण कर नव जीवन संबल।
मृत्यु एक सरिता है जिसमेँ
श्रम से कातर जीव नहा कर
फिर नूतन धारण करता है
काया रूपी वस्त्र बहा कर।
कब बाहर रिंग रोड पर गाड़ी आ गई पता ही नहीं चला। मरघट वैराग्य मरघट के निकास द्वार पर ही कहीँ छूट जाता है। बाहर की दुनियां वैसे ही भाग रही है जैसे सदा के लिए इस संसार मेँ रहना हो।
दिवंगत आत्मा की शांति की प्रार्थना लिए मैँ घर लौट आता हूँ।
कर्म कांड करने वाला पंडित भी मात्र मशीनी मानव लग रहा था। एकदम तटस्थ और उदासीन। कोई आओ कोई जाओ उसे तो वो ही सब करना है।
मुझे किसी को गाड़ी पर विदा करने जाना पसंद नहीं है। कुछ कुछ वैसा ही लगता है मरघट मेँ आ कर। एक अजीब सा खाली पन। पास बहती हवा जलती चिताओं के धुंए को लेकर बह रही थी। यमुना भी सहजता से शांत थी । मानो शोकाकुल हो।दूर कभी कभी मेट्रो जाती दीख जाती थी। शिव शंकर की बड़ी सी प्रतिमा मानो कह रही थी -मैं ही सृजन करता हूँ और मैं ही विनाश। तेज धूप से बचने के लिए मैं एक पेड़ के नीचे आ जाता हूँ। सोचता हूँ कि पेड़ होता तो कितना सकून पाता।भावनाओं से तो परे होता। चिता की अग्नि तेज होती जा रही थी। तपत से बचने को मेँ बाहर आकर शेड मेँ बैठ जाता हूँ। कुछ और लोग भी वँहा बैठे हैं। एक कुत्ता पास पड़ी गीली रेत की ढेरी पर ठंडक में बैठा था।
शायद कार्य पूरा हो चुका था। लोग हाथ मुंह धोने जा रहे थे। मैं भी पीछे हो लिया। एक बचपन के मित्र मिले। बोले आजकल तो यह नहीं पता चलता की बीमार पहले जायेगा या फिर स्वस्थ चल देगा। मैने कहा कि एक बात तो पक्की है। जायँगे सब। कोई आगे कोई पीछे। बोले इसमें क्या शक है। एक साहिब जो बाहर से आये थे उन्हें घाट की व्यवस्था बहुत पसंद आई।
धूप प्रखर हो गयी थी। मैं विचलित सा खड़ा सोच रहा था कि क्यों इतनी भाग दौड़ करें जब सब यंही छोड़ के जाना है। फिर एक कवि की कुछ पंक्तियाँ याद हो आती है -
निर्भय स्वागत करो मृत्यु का
मृत्यु एक विश्राम स्थल है
जीव जँहा से फिर चलता है
धारण कर नव जीवन संबल।
मृत्यु एक सरिता है जिसमेँ
श्रम से कातर जीव नहा कर
फिर नूतन धारण करता है
काया रूपी वस्त्र बहा कर।
कब बाहर रिंग रोड पर गाड़ी आ गई पता ही नहीं चला। मरघट वैराग्य मरघट के निकास द्वार पर ही कहीँ छूट जाता है। बाहर की दुनियां वैसे ही भाग रही है जैसे सदा के लिए इस संसार मेँ रहना हो।
दिवंगत आत्मा की शांति की प्रार्थना लिए मैँ घर लौट आता हूँ।
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