Thursday, 31 December 2015

हमारा नव वर्ष

आज तथाकथित नव वर्ष की पूर्व संध्या है। सुबह से मोबाइल पर नव वर्ष के बधाई सन्देश आ रहे हैँ। शिष्टाचार वश जवाब भी देना पड़ता है। कल तो आधा दिन इन्हीं बधाईंयों के आदान प्रदान मेँ निकलेगा। आज रात कनाट प्लेस में आधी रात तक खूब हुड़दंग होगा। बाजे बजेंगे, लोग नाचेंगे। शराब परोसी जायेगी और न जाने क्या क्या। पर क्या हम अपना चैत्र संवत्सर भी इसी उत्साह व् जोश खरोश से मनाते हैं? चैत्र संवत्सर ? ये क्या होता है ? जी हाँ, हममें से बहुतों को तो ये मालूम ही नहीं कि ये होता क्या है। आता कब है । इसका महत्व क्या है। विशेष कर बच्चों को तो पता ही नहीं। होगा कँहा से जब उनके माता पिता को भी ठीक से नहीं पता। हाँ, दादा,  दादी, नाना, नानी जो अब दादू और नानू कहलाते हैं उन्होंने कभी जिक्र छेड़ा भी हो तो यही सुनने को मिला होगा -   "क्या ये बुढ़िया पुराण बच्चों को पढ़ा रहे हो। दुनिया कँहा से कँहा पहुचं गई और आप अभी भी चैत्र संवत्सर से आगे ही नहीं बढे।" सच है दुनिया बहुत आगे बढ़ गई। पेड़ का बढ़ना तभी तक है जब तक वो अपनी जड़ो से जुड़ा है। जड़ से उखड कर पड़े सूखे वृक्ष को आंधी मीलों दूर ले जा के पटक दे तो उसे आगे बढ़ना नहीं कहते। आज की पीढ़ी कुछ इसी तरह आगे बढ़ी जा रही है। निश्चित तौर से 1 जनवरी हम भारतीयों का नव वर्ष नहीं है। ये क्यों शुरू हुआ। कब से हुआ, ये पोस्ट इन सब को बताने के उद्देश्य से नहीं लिखी जा रही है। इस बारे मेँ बहुत सारा ज्ञान एवम् जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध है। इस पोस्ट का उद्देश्य तो आप को झिंझोड़ना भर है। जागिये । अपनी जड़ो को पहचानिए। अपनी संस्कृति से जुड़िये। वरना वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब हमारी हालात उस सूखे वृक्ष सी होगी जो जड़ से उखड़ कर आधुनिकता की आँधी में बहुत आगे बढ़ गया हो।

Friday, 25 December 2015

मुन्ने चाचा

यूँ तो सभी रिश्तों की अपनी एक गर्माहट होती है, पर ये जो चाचा भतीजे का रिश्ता है इसका एक अलग ही स्थान है। और फिर अगर चाचा भतीजे की उम्र का अन्तर कम हो तो सम्बन्ध की औपचारिकताएं समाप्त हो जाती हैं और वो मित्रता के सम्बन्ध मेँ परिवर्तित हो जाता है। कुछ ऐसा ही रिश्ता था मेरा और मुन्ने चाचा का। हाँलाकि हम साथ कम ही रहे पर जब भी रहे मित्रवत रहे।

वैसे हम दोनों का उम्र का अंतर इतना भी कम नहीं था, पर फिर भी हमारे बीच सम्बन्ध की औपचारिकता नहीं थी। मेरा जब जन्म हुआ तो मुन्ने चाचा 12 -13 वर्ष के रहे होंगे। वैसे तो उनका नाम सतीश था, पर सबसे छोटा होने के कारण सभी उन्हें मुन्ना कह कर बुलाते थे। तब संयुक्त परिवार की प्रथा थी। माँ बताया करती थी कि जब उन्हें शाम का खाना बनाना होता था तो वह मुझे मुन्ने चाचा को पकड़ा देती थीं।और वही उनका छत पर जा कर पतंग उड़ाने का समय होता था। अब वह मुझे संभाले या पतंग उड़ाए? और जब तक मैं रोऊँ नहीं , माँ मुझे उनसे ले नहीं। बस वो मुझे रुलाने के लिए जोर से नोंच लेते। और जब मेँ नोंचने के दर्द से रोता तो वह " भाभी, ये रो रहा है" कह कर मुझे माँ को थमा, अपनी पतंग उड़ने चल देते। अब जो बच्चा बोलना ही नहीं जानता, वो शिकायत कैसे करे। ये राज भी इन्होंने ही माँ को बताया था।

जब मैं मैट्रिक मेँ पंहुचा तब तक मुन्ने चाचा वयस्क हो चुके थे। अब वह हमारे साथ नहीं रहते थे। अजमेर में दादा जी व दो और बड़े भाइयों के साथ रहते थे। राजस्थान के वाटर वर्क्स विभाग मेँ उनकी नोकरी लग गई थी। उनकी पोस्टिंग अक्सर अजमेर के आस पास के ग्रामीण संभाग मेँ रही थी। मैं जब भी अजमेर दादा जी के पास जाता, उनसे मेरी खूब पटती। एक वो ही थे जो मुझे अपनी साइकल देने मे कभी ना नुकर नहीं करते। और साइकल उन दिनों  मेरे लिए सबसे बड़ी नियामत होती थी।

उनका वयक्तित्व इतना प्रभावशाली था  कि किसी को तो उनसे कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं होती थी। किसी की तरफ यदि आँख उठा कर देख लिया तो उसकी तो समझो सिट्टी पिट्टी गुम! छे  फ़ीट की लंबी कद काठी, गठीला बदन, रौब दार चेहरा, भगत सिंह जैसी मूँछे और उस पर बड़ी बड़ी आँखे।

जैसा डील डौल था वैसी ही हिम्मत भी थी उनमें। डर तो जैसे उन्हें छू ही नहीं गया था। वह एक मंझे हुए तैराक थे। गहरे गहरे पाताल फोड़ कुओं मेँ वे बिना एक पल सोचे कूद जाते थे। जहरीले सापों से तो उनका रात दिन पाला पड़ता ही रहता था। पेड़ पर चढ़ने मेँ उन्हें महारथ हांसिल थी। पर जितना वो बाहर से सख्त दीखते थे अंदर से उतने ही कोमल ह्रदय थे।दूध जलेबी उन्हें बहुत प्रिय था। मैं जब भी अजमेर जाता, मुझे साइकल पर बैठा के दूध जलेबी खिलाने जरूर ले जाते थे।

एकदम बिंदास प्रकृति थी उनकी। अब तक उनका विवाह नहीं हुआ था। ये तब की बात है जब मैं हॉयर सेकेण्डरी के पेपर दे चुका था और परिणाम आने मेँ समय था। पापा ने मुझे दादी के पास अजमेर भेज दिया था। इसी बीच दादी की बहन के बेटे का भरतपुर मेँ विवाह तय हो गया । दादी मुझे भी अपने साथ भरतपुर लें गई। मुन्ने चाचा भी साथ थे। हम अजमेर से बांदीकुई होते हुए भरतपुर पंहुचे। बारात करौली जानी थी। हम सब बस से बारात मेँ करौली पंहुचे। विवाह सम्पन्न हो गया। और हम भरतपुर वापस आ गए। घर में मेहमानों का जमघट था और नहाने धोने के लिए इंतज़ार करना पड़ता था। एक दिन मुन्ने चाचा का नहाने का नंबर नहीं आ रहा था। उनका धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने गमछा उठाया और बोले , " मैं नहर पर जा रहा हूँ।" मैनेँ कहा, "मैं भी साथ चलूँगा ।" वो सहर्ष तैयार हो गए। बोले, "कपडे और तौलिया ले ले।" दादी ने कहा, "इसका ध्यान रखियो।" "अरे अम्मा, क्या बात करती हो, इसे डूबने दूंगा क्या?" ,उन्होंने कहा। और हम दोनों नहर की और चल पड़े जो घर से कुछ ही दूर थी।

जिन पाठकों को भरतपुर नहर की जानकारी न हो, उनके लिए यँहा बता दूँ कि भरतपुर किले के, जिसे लोहागढ़ फोर्ट भी कहते हैं , चारों और ये नहर फैली है। किले को सुरक्षित रखने के लिए इसका निर्माण किया गया था। ये खाई 250 फुट चोड़ी और 20 फुट गहरी है। वैसे कहा तो यह जाता है कि इसकी गहराई का ठीक ठीक किसीको पता नहीं है। इसका पानी खड़ा है और बहता नहीं है। पर फिर भी ये नहर के नाम से जानी जाती है।भरतपुर के लिए पानी का यही एक श्रोत हुआ करता था। इसके आस पास रहने वाले सभी अच्छे  तैराक हो गए थे। किले की विपरीत दिशा मेँ घाट बने हुए हैं। जिस पर लोग नहाते और कपडे धोते थे। इस पार बनी ऊँची बुर्जियों से बच्चे पानी मेँ कूदते और मछली की तरह तैर कर ऊपर आ जाते।

मुझे तो तैरना आता नहीं था। नहर पर पहुँच कर मुन्ने चाचा तो तैरने लगे और मैं घाट पर बैठ लौटे से पानी उलीच कर नहाने लगा। मेरे सामने की और नहर, किले की दीवार तक जा रही थी। मुन्ने चाचा एक कुशल तैराक की तरह तैर रहे थे। उनके तैरने मेँ एक लय थी। ऐसा लग रहा था कि तैरने मेँ उन्हें कोई श्रम ही नहीं करना पड़ रहा था।मेरी ओर आते हुए वो मुझे देख कर हँसते और फिर किले की और तैर जाते।

उन्हेँ ऐसे तैरते देख कर मेरा भी मन तैरने को मचल उठा। "मैं भी तैरना सीखूंगा। मुझे भी सिखाओ", मैनेँ चिल्ला कर कहा। ये सुन वह तैरते हुए घाट पर आये। उनकी पीठ किले की तरफ थी और वो घाट की सीढ़ियों पर कमर तक पानी में खड़े थे। उन्होंने अपनी बाहें फैला ली और मुझे अपनी बाँहों पर लिटाते हुए बोले, "तैरने से पहले फ्लोटिंग सीखनी पड़ेगी।" उनकी बाँहो पर मैं पानी में हाथ पैर मारने लगा। पानी उथला था और मैं बार बार घाट की सीढ़ियों से टकरा रहा था। मैं एक कुशल तैराक की देख रेख में था और इसलिए मुझे यह पक्का विश्वास था कि मैं ड़ूब तो नहीं सकता। मैनेँ इनसे दो सीढ़ी और पीछे जाने को कहा। वह हँसते हुए एक सीढ़ी और पीछे गए।मैं अभी भी उनकी बाँहो के ऊपर पानी मेँ था। " बस एक सीढ़ी और चाचा ", मैनेँ अनुनय की। न वह इस बात को जानते थे और न मैं ही कि जिस सीढ़ी पर वह खड़े थे वो घाट की अंतिम सीढ़ी थी।मेरे कहने से वह एक कदम और पीछे हटे कि बस ! मैं गहरे पानी मेँ था। मेरे मुँह से निकला, " ये क्या हुआ !" और फेफड़ो में कैद रही सही हवा भी निकल गई। मैं लगातार गहरे और गहरे पानी मेँ उतरा जा रहा था। मुन्ने चाचा का कोई पता नहीं था। पानी का तापमान कम होता जा रहा था। अँधेरा भी बढ़ रहा था। मुझे पानी का कोई अनुभव नहीं था। साँस लेने मेँ हवा का महत्व तब पता चलता है जब आप पानी मेँ या किसी ऊँचे पर्वत पर, जँहा ऑक्सीजन नहीं होती, वँहा होते हैँ। साँस कितनी देर रोकी जा सकती थी ? मैं लगातार बेतरतीब हाथ पैर मार रहा था। तभी किसी का पैर मेरे हाथ मेँ आ गया। मैनेँ उसे पकड़ना चाहा पर उस व्यक्ति ने झटक के मुझे परे कर दिया। ऐसा शायद दो तीन बार हुआ। मैं जब भी पैर पकड़ने की कोशिश करता, वह झटक के मुझे अलग कर देता। मैनेँ बचने की आस छोड़ दी थी। एक पल को माँ, पापा, भाई, बहन के चेहरे ह्रदय पटल पर कौंधे और फिर चेतना लुप्त हो गई।

चेतना जब वापस लौटी तो मैनेँ अपने आप को घाट पर पेट के बल लेटा पाया। कुछ लोग दवाब डाल कर पेट से पानी निकाल रहे थे। पास ही मुन्ने चाचा खड़े थे। उन्होंने कहा, "अब ठीक है ?" मैनेँ स्वीकृति मेँ सिर हिलाया। शायद घर खबर पंहुच गई थी। घर से भी कुछ लोग नहर पर आ गए थे।

बाद मेँ पता चला कि मुझे बचा के लाने वाला और कोई नहीं मुन्ने चाचा ही थे। वैसे तो घाट पर बैठे कुछ लोग हमें डूबता देख नहर मेँ कूदे थे। पर वो मुन्ने चाचा ही थे जो तब तक बाहर नहीं आये जब तक मैं उनके हाथ नहीं आ गया। जब तक मुझ में चेतना रही मैं उनका पैर पकड़ने का प्रयत्न करता रहा। और जैसा उन्होंने बाद मेँ बताया कि यदि वह मुझे न झटकते तो हम दोनों का डूबना निश्चित था। जब मेरी चेतना चली गई तो उन्होंने मुझे पकड़ा और बाहर खींच लाये। उन्होंने अपनी जान जोखिम मेँ डाल कर मुझे बचाया। क्योंकि हम दोनों मेँ से कोई  भी बाहर नहीं आया था, घाट पर बैठे लोगों ने सोचा कि हम दोनों ही डूब गए। और उनमें से कुछ हमें बचाने कूद पड़े थे।

यूं तो बचाने वाला भगवान् ही है। पर मुझे बचाने मेँ उसने मुन्ने चाचा को निमित्त बनाया। उसके कुछ समय बाद मुन्ने चाचा का विवाह हो गया। एक बेटा भी हुआ। पर वैवाहिक जीवन का सुख उनके भाग्य मेँ अधिक नहीं था। दूसरा बेटा होने से पहले ही, टिटनेस जैसी घातक बीमारी ने उन्हें इस नश्वर संसार से विदा कर दिया। उन्हें दिवंगत हुए आज शायद 35 वर्ष से अधिक का समय हो गया है, पर आज भी उनकी बड़ी बड़ी आँखों वाला वो मुस्कराता हुआ चेहरा आँखों मेँ तैर जाता है। ये पोस्ट उन्हें एक श्रद्धांजलि है जो बहुत विलम्ब से  दी जा रही है।

Thursday, 17 December 2015

नावों का पुल

लोहे के पुल का वर्णन करते हुए मैनेँ उसे मुख्य पुल कहा था। इसका कारण था कि इसी पुल के समान्तर एक और छोटा पुल था जिसे नावों का पुल कहा जाता था। ये एक काम चलाऊ पुल था जो बारिशों मेँ कुछ महीनों के लिए जब यमुना का जल स्तर बढ़ जाता था, उठा लिया जाता था। और बाद मेँ पुनः बनाया जाता था। इस पुल का निर्माण यमुना मेँ कई नावों को बाँध कर उनके ऊपर किया जाता था। इसीलिए इसे नावों का पुल कहा जाता था। ये पुल हल्के वाहनों के लिए इस्तेमाल किया जाता था जिनमें मुख्यत साइकिले थीं। ये पुल लोहे के पुल पर से हल्के वाहनों का भार अपने ऊपर ले कर मुख्य पुल का यातायात कम करता था।

इस पुल की और जाते समय यमुना रेत और लाल बदरपुर से बने रास्ते से गुजरना होता था। फिर यमुना पर बंधी नावों पर लोहे की चादरों पर बदरपुर बिछी काम चलाऊ सड़क से यमुना पार करते हुए  उस पार रेत और बदरपुर की कच्ची सड़क पर होते हुए मुख्य सड़क पर आ मिलते थे। मैनेँ अनगिनत बार इस पुल को साइकल से पार किया होगा। वरन जब ये पुल होता था तो मैं लोहे की पुल पर जाने की अपेक्षा इस का प्रयोग करता था। इसके कई कारण थे।

पहला कारण तो हल्के वाहनों के कारण यँहा ज्यादा भीड़ भाड़ नहीं होती थी। दूसरा कारण इस पुल से यमुना जल को छुआ जा सकता था। आचमन भी कर सकते थे। तीसरा कारण इस की और जाता रास्ता सब्जियों के खेतों से हो कर जाता था और मुझे इस से गुजरना बहुत भला लगता था। चौथा कारण इस की ओर जाते रास्ते पर दोनों तरफ खेतों से आई ताज़ी सब्ज़ियां मिलती थी। बड़े बड़े तरबूज़ों की बेले खेतों मेँ फैली रहती थी। पर सबसे बड़ा कारण था यँहा मिलने वाला गन्ने का रस।

गन्ने के मौसम मेँ , गांधी नगर की ओर से यदि आप नावों के पुल पर जाते थे तो यमुना का पाट शुरू होने से पहले आपके दायीं ओर तम्बुओं की कतार लगी मिल जाती थी। गन्ने पेरने की मशीन उन दिनों भैंसा गाड़ी से चलाई जाती थी। मोटी धूप बत्ती का धुंआ भीनी भीनी सुगंध बिखेरता रहता था। इस धुंए से मक्खियाँ नहीं आती थी। कँही कँही इस काम के लिए उपले भी जलाये जाते थे। मोटे मोटे रसीले गन्ने जब पेरे जाते थे तो गाढा गाढा फेन दार रस निकलता था। गन्ने के साथ साथ अदरक, पोदीना और नीबू भी पेरा जाता था। बोरियों में लिपटी बर्फ की सिल्ली में से बर्फ तोड़ कर ठंडा ठंडा रस जब पिया जाता था तो जो तृप्ति मिलती थी वो शब्दों मेँ नहीं लिखी जा सकती। अपनी अपनी साइकल स्टेण्ड पर लगा के कितने ही लोग इस रस के मोह में खींचे चले आते थे। ऑफिस से लौटते समय यमुना किनारे मूढो पर बैठ कर ढलती शाम मेँ इस रस का आनंद लेना ग्राहकों के लिए अपने आप में एक अलग ही अनुभव हुआ करता था। मैनेँ असंख्य बार इस रस का आस्वादन किया होगा।

आज न नावों का वो पुल है। न ही वो गन्ने का रस। समय के साथ साथ सब बदल गया। कँही अतीत में लुप्त हो गया। आज हम अपने बच्चों को गन्ने का रस नहीं पीने देते। कच्ची बर्फ डला तो कतई नहीं। एमोबाइसिस,  हेपिटाइटिस और न जाने क्या क्या घातक बीमारियां डराती है। पानी भी आर ओ का पिया जाता है। कँहा गए वो दिन जब यमुना का ससुस्वाद मीठा जल चुल्लू भर भर पीते थे। कच्ची बर्फ डले गन्ने के रस का बेख़ौफ़ सुस्वाद लेते थे। कच्ची बर्फ के ही गोले रंग बिरंगे रंग डाल कर चूसते थे। हैण्ड पंप से निकाल ठंडा मीठा जल प्रयोग करते थे।आज यमुना की दुर्दशा पर दुःख होता है। पीना तो दूर , आचमन की भी आप नहीं सोच सकते। कौन जिम्मेदार है इस दुर्दशा का? 

इसी दुर्दशा ने कितना बदल दिया है तब का और अब का बचपन। और इस बदलाव के साक्ष्य मेँ खड़ा होता वो नावों का पुल अगर आज वो होता।