लोहे के पुल का वर्णन करते हुए मैनेँ उसे मुख्य पुल कहा था। इसका कारण था कि इसी पुल के समान्तर एक और छोटा पुल था जिसे नावों का पुल कहा जाता था। ये एक काम चलाऊ पुल था जो बारिशों मेँ कुछ महीनों के लिए जब यमुना का जल स्तर बढ़ जाता था, उठा लिया जाता था। और बाद मेँ पुनः बनाया जाता था। इस पुल का निर्माण यमुना मेँ कई नावों को बाँध कर उनके ऊपर किया जाता था। इसीलिए इसे नावों का पुल कहा जाता था। ये पुल हल्के वाहनों के लिए इस्तेमाल किया जाता था जिनमें मुख्यत साइकिले थीं। ये पुल लोहे के पुल पर से हल्के वाहनों का भार अपने ऊपर ले कर मुख्य पुल का यातायात कम करता था।
इस पुल की और जाते समय यमुना रेत और लाल बदरपुर से बने रास्ते से गुजरना होता था। फिर यमुना पर बंधी नावों पर लोहे की चादरों पर बदरपुर बिछी काम चलाऊ सड़क से यमुना पार करते हुए उस पार रेत और बदरपुर की कच्ची सड़क पर होते हुए मुख्य सड़क पर आ मिलते थे। मैनेँ अनगिनत बार इस पुल को साइकल से पार किया होगा। वरन जब ये पुल होता था तो मैं लोहे की पुल पर जाने की अपेक्षा इस का प्रयोग करता था। इसके कई कारण थे।
पहला कारण तो हल्के वाहनों के कारण यँहा ज्यादा भीड़ भाड़ नहीं होती थी। दूसरा कारण इस पुल से यमुना जल को छुआ जा सकता था। आचमन भी कर सकते थे। तीसरा कारण इस की और जाता रास्ता सब्जियों के खेतों से हो कर जाता था और मुझे इस से गुजरना बहुत भला लगता था। चौथा कारण इस की ओर जाते रास्ते पर दोनों तरफ खेतों से आई ताज़ी सब्ज़ियां मिलती थी। बड़े बड़े तरबूज़ों की बेले खेतों मेँ फैली रहती थी। पर सबसे बड़ा कारण था यँहा मिलने वाला गन्ने का रस।
गन्ने के मौसम मेँ , गांधी नगर की ओर से यदि आप नावों के पुल पर जाते थे तो यमुना का पाट शुरू होने से पहले आपके दायीं ओर तम्बुओं की कतार लगी मिल जाती थी। गन्ने पेरने की मशीन उन दिनों भैंसा गाड़ी से चलाई जाती थी। मोटी धूप बत्ती का धुंआ भीनी भीनी सुगंध बिखेरता रहता था। इस धुंए से मक्खियाँ नहीं आती थी। कँही कँही इस काम के लिए उपले भी जलाये जाते थे। मोटे मोटे रसीले गन्ने जब पेरे जाते थे तो गाढा गाढा फेन दार रस निकलता था। गन्ने के साथ साथ अदरक, पोदीना और नीबू भी पेरा जाता था। बोरियों में लिपटी बर्फ की सिल्ली में से बर्फ तोड़ कर ठंडा ठंडा रस जब पिया जाता था तो जो तृप्ति मिलती थी वो शब्दों मेँ नहीं लिखी जा सकती। अपनी अपनी साइकल स्टेण्ड पर लगा के कितने ही लोग इस रस के मोह में खींचे चले आते थे। ऑफिस से लौटते समय यमुना किनारे मूढो पर बैठ कर ढलती शाम मेँ इस रस का आनंद लेना ग्राहकों के लिए अपने आप में एक अलग ही अनुभव हुआ करता था। मैनेँ असंख्य बार इस रस का आस्वादन किया होगा।
आज न नावों का वो पुल है। न ही वो गन्ने का रस। समय के साथ साथ सब बदल गया। कँही अतीत में लुप्त हो गया। आज हम अपने बच्चों को गन्ने का रस नहीं पीने देते। कच्ची बर्फ डला तो कतई नहीं। एमोबाइसिस, हेपिटाइटिस और न जाने क्या क्या घातक बीमारियां डराती है। पानी भी आर ओ का पिया जाता है। कँहा गए वो दिन जब यमुना का ससुस्वाद मीठा जल चुल्लू भर भर पीते थे। कच्ची बर्फ डले गन्ने के रस का बेख़ौफ़ सुस्वाद लेते थे। कच्ची बर्फ के ही गोले रंग बिरंगे रंग डाल कर चूसते थे। हैण्ड पंप से निकाल ठंडा मीठा जल प्रयोग करते थे।आज यमुना की दुर्दशा पर दुःख होता है। पीना तो दूर , आचमन की भी आप नहीं सोच सकते। कौन जिम्मेदार है इस दुर्दशा का?
इसी दुर्दशा ने कितना बदल दिया है तब का और अब का बचपन। और इस बदलाव के साक्ष्य मेँ खड़ा होता वो नावों का पुल अगर आज वो होता।
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