आज तथाकथित नव वर्ष की पूर्व संध्या है। सुबह से मोबाइल पर नव वर्ष के बधाई सन्देश आ रहे हैँ। शिष्टाचार वश जवाब भी देना पड़ता है। कल तो आधा दिन इन्हीं बधाईंयों के आदान प्रदान मेँ निकलेगा। आज रात कनाट प्लेस में आधी रात तक खूब हुड़दंग होगा। बाजे बजेंगे, लोग नाचेंगे। शराब परोसी जायेगी और न जाने क्या क्या। पर क्या हम अपना चैत्र संवत्सर भी इसी उत्साह व् जोश खरोश से मनाते हैं? चैत्र संवत्सर ? ये क्या होता है ? जी हाँ, हममें से बहुतों को तो ये मालूम ही नहीं कि ये होता क्या है। आता कब है । इसका महत्व क्या है। विशेष कर बच्चों को तो पता ही नहीं। होगा कँहा से जब उनके माता पिता को भी ठीक से नहीं पता। हाँ, दादा, दादी, नाना, नानी जो अब दादू और नानू कहलाते हैं उन्होंने कभी जिक्र छेड़ा भी हो तो यही सुनने को मिला होगा - "क्या ये बुढ़िया पुराण बच्चों को पढ़ा रहे हो। दुनिया कँहा से कँहा पहुचं गई और आप अभी भी चैत्र संवत्सर से आगे ही नहीं बढे।" सच है दुनिया बहुत आगे बढ़ गई। पेड़ का बढ़ना तभी तक है जब तक वो अपनी जड़ो से जुड़ा है। जड़ से उखड कर पड़े सूखे वृक्ष को आंधी मीलों दूर ले जा के पटक दे तो उसे आगे बढ़ना नहीं कहते। आज की पीढ़ी कुछ इसी तरह आगे बढ़ी जा रही है। निश्चित तौर से 1 जनवरी हम भारतीयों का नव वर्ष नहीं है। ये क्यों शुरू हुआ। कब से हुआ, ये पोस्ट इन सब को बताने के उद्देश्य से नहीं लिखी जा रही है। इस बारे मेँ बहुत सारा ज्ञान एवम् जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध है। इस पोस्ट का उद्देश्य तो आप को झिंझोड़ना भर है। जागिये । अपनी जड़ो को पहचानिए। अपनी संस्कृति से जुड़िये। वरना वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब हमारी हालात उस सूखे वृक्ष सी होगी जो जड़ से उखड़ कर आधुनिकता की आँधी में बहुत आगे बढ़ गया हो।
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