Tuesday, 29 March 2016

आइस पाइस, ठप्पा

"जोर से बोलो जय माता की"। "आवाज नहीं आई"। "मैं नहीं सुनया"। "जोर से बोलो"। ये आवाजें तेज होती जा रही थी। एक महिला अपने बाल खोले जोर जोर से अपना सिर धुन रही थी। लोगों की भीड़ उसे घेरे खड़ी थी।उसका शरीर पसीने पसीने हो रहा था। हम बच्चे भी कौतुहल वश उस भीड़ में खड़े थे। धीरे धीरे उस महिला के हिलने की गति कम पड़ती गई। थोड़ी देर में वह सामान्य हो गई। कुछ महिलाएं उसे पानी पिला रही थी। मानो उस पर कोई आवेश आया था जो अब नहीं रहा। जागरण अपने पूरे जोर शोर से चल रहा था। रात गहरा गई थी। हम बच्चे भी मंदिर से बाहर आ गए। अब दुबारा चाय वितरण में देर थी। तब तक हमारी टोली बिलकुल खाली थी।

फरीदाबाद न्यू टाउनशिप के माता मंदिर में इस प्रकार के जागरण होते ही रहते थे। जागरण के बीच किसी महिला को अक्सर "माता" आ जाती थी। उस आवेश में वह जोर जोर से अपना सिर घुमाती। लोग उससे अपने प्रश्न करते और वह समाधान करती। हम बच्चों की टोली के लिए तो जागरण का मतलब था रात भर मौज मस्ती। मुफ्त की चाय और नाश्ता । फिर अल्ल सुबह का प्रसाद। कोई 12 से 15 बच्चों की ये टोली जागरण शुरू होने से पहले ही अपनी अपनी चादर ले कर मंदिर में आ धमकती। देर रात तक खेल, थक हार मंदिर में ही चादर ओढ़ कर इस टोली के बच्चे सोये रहते। सुबह जब प्रसाद वितरण होता, तो सबसे पहले लाइन में लगने वाले हम बच्चे ही होते थे।

आज भी कुछ इसी तरह का अवसर था। चाय अब सुबह 2 बजे से पहले नहीं मिलनी थी । हमारी टोली को चल रहे जागरण से कोई लेना देना नहीं था। इस टोली में 4 कक्षा से लेकर कक्षा 10 तक के बच्चे थे। सभी लड़के। मैं सबसे छोटा था। और जो सबसे बड़ा था उसको हम सब "गंजा" बुलाते थे। उसका ये नाम क्यों पड़ा, ये तो मुझे नहीं पता पर वह गंजा कदापि नहीं था। गंजे के पिता के ट्रक चलते थे और खेती भी थी। घर से सम्पन्न था वह। सबसे अभाव ग्रस्त था सुरेन्द्र। पिता के मरने के बाद जैसे तैसे माँ उसे पाल रही थी। सुबह खा लिया तो शाम का पता नहीं। पर बाल मन तो निश्छल होता है। वँहा अमीरी गरीबी बीच में नहीं आती। अगर दोस्त है तो फिर दोस्त है।

सुबह सुबह चार बजे गंजे के पिता ट्रक ले कर खेतों में जाते। कई बार हम बच्चे भी ट्रक में सवार हो जाते। खेतों में जाने का एक मात्र उद्देश्य वँहा की 3 फ़ीट गहरी ट्यूब वेल की हौद में नहाना होता था। मोटी जल धारा उस हौद में गिरती रहती और फिर पानी वँहा से खेत में जाता। हम तो जाते ही कपङे उतार उस हौद में उतर जाते । वो हमारे लिए किसी तरण ताल से कम नहीं था। जी भर कर पानी उछालते और मस्ती करते। आते समय खेतों से ताज़ी सब्जियां तोड़ कर खाते। कच्ची भिन्डी खानी मैनें वंही से शुरू की थी।

एक दिन हम बच्चे ट्रक पर सवार थे। पौ अभी फटी नहीं थीं। आसमान में अंधकार था। कि अचानक बीच सड़क में ट्रक रुक गया। हम सब खुले ट्रक में पीछे खड़े थे। ड्राईवर केबिन से एक छोटी खिड़की पीछे खुलती थी । गंजे के पिता जी ने खिड़की खोल चुप रहने का इशारा किया। हम 4 बच्चे पीछे थे। गंजा आगे पिता जी के साथ था। उन्होंने एक एक करके हम बच्चों को खिड़की के रास्ते ड्राईवर केबिन में ले लिया। खिड़की बंद करके उन्होंने ट्रक की हेडलाइट्स जलाई। सामने सड़क पर एक तेंदुआ पसरा हुआ था।  शायद सो रहा था। इक्का दुक्का भेड़िये, लकड़बग्गे और सियार तो कॉलोनी के आसपास देखे गए थे। पर तेंदुआ पहली बार सामने था  अब हमें मामले की नज़ाकत समझ आई। इतने में उन्होंने हॉर्न बजाय। तेंदुआ उठा और एक लंबी अंगड़ाई ली। उसने एक बार हमारी और देखा। फिर एक छलांग के साथ पास के जंगल में अदृश्य हो गया। तब कँही जाकर हमारा ट्रक आगे बढ़ पाया।

इन्हीं सब कारणों से गंजा हमारा हीरो था और टोली का नेता भी। रात को हमारा पसंददीदा खेल था - आइस पाइस। आज भी सबने तय किया कि आइस पाइस खेलेंगे। गंजे ने खेल की सीमा तय की। तय की गई सीमा से बाहर जाकर छिपना वर्जित था। पुगम पुगाई हुई और मेरी बारी आ गई। बाकी सबने छिपना था और मुझे ढूंढना था।और यदि इसी बीच किसी ने मुझे पीछे से आकर "ठप्पा" कर दिया तो मुझे दुबारा बारी देनी थी। मैनेँ मंदिर की दीवार की तरफ मुँह करके 100 तक गिनती गिनी। इसी बीच बाकी सब दूर दूर जा कर छिप गए। इतनी बड़ी सीमा में रात में इतने बच्चों को खोज निकालना मेरे बस का तो था नहीं। मैं मंदिर में आया, चादर ओढ़ , दरी पर लेट गया। पता नहीं कब मुझे नींद आ गई। छिपे छिपे सारे बच्चे मेरा इंतज़ार ही करते रहे। फिर थक कर एक एक कर स्वयं ही बाहर निकल आये। झुण्ड बना कर अब वो सब मुझे ढूंढते फिर रहे थे। इतने में मंदिर में चाय मिलने लगी। सभी खेल छोड़कर चाय की लाइन में आ लगे। तभी किसीने मुझे सोता पाया। खूब झगड़ा हुआ। मुझे चाय के बाद फिर से बारी देनी थी। और मैं फिर न सो जाऊँ इसलिए मेरे साथ सुरेन्द्र की भी बारी लगा दी थी गंजे ने। अब तो ढूंढना ही पड़ेगा।

सभी जा कर छिप चुके थे। हम दोनों खोजने निकले।  सुरेंद्र इस काम में बहुत तेज था। फिर दो होने का हमें लाभ भी था। एक दूसरे से पीठ सटा कर ढूंढ रहे थे। अब हमारी चार आँखे थी - दो आगे तो दो पीछे। मज़ाल है कोई "ठप्पा" कर पाये। इधर उधर से एक एक करके सभी को खोज निकाला। जिसे भी हम "आइस पाइस" कर ढूंढ लेते, वो भी हमारे साथ हो लेता। अभी तक गंजा नहीं मिला था। न जाने कँहा जा छिपा था। हम बच्चों का हुजूम गंजे की तलाश में रात के अँधेरे में भटक रहा था। उधर मंदिर में अरदास चल रही थी।

सुबह के कोई 3 बजे होंगे। अचानक वँहा खड़े एक ट्रक के नीचे "गंजा" दिखाई दिया। ट्रक के बायें तरफ नाला था और दायीं तरफ सड़क। कल उतारी गई रोड़ी का पास में ढेर लगा था। मैं सड़क पर लेट कर चिल्लाया, "गंजे, आइस पाइस ।गंजे, आइस पाइस। बाहर आ ।" पर गंजा तो हिला ही नहीं। साथ के बच्चों ने भी गुहार लगाई। पर गंजा वंही छिपा रहा। बच्चे तो वानर टोली होती है। पास पड़ी रोड़ी उठाई और लगे मारने। पर गंजा नहीं निकला। अब तो हम बच्चों का रहा सहा धैर्य भी जवाब दे गया। कुछ बच्चे ट्रक के नीचे घुस गए, गंजे को बाहर खीचने के लिए। तभी अचानक "गंजा" दूसरी तरफ से बाहर निकला और भागा। वानर सेना उस पर पथराव करती पीछे भागी। शायद एक पत्थर "गंजे" के पैर पर लगा और वो गिर पड़ा। गिरते ही वानर सेना ने उसे घेर लिया। "गंजे, तू भाग क्यों रहा था?"
पर यह क्या! गंजे की जगह ये तो कोई और था! अरे, ये तो कोई और है! सभी बच्चे चिल्लाये। वो व्यक्ति फिर से भागने का उपक्रम करता दिखा, तो बच्चों ने दबोच लिया।
सभी बच्चे "चोर, चोर" चिल्लाने लगे। तब तक जागरण में से कुछ बड़े लोग भी आ गए। उसे पकड़ के पास के पुलिस स्टेशन ले गए। बाद में पता चला कि वो वास्तव में कोई चोर था जो चोरी करने आया था। पर जागरण के चलते और हम बच्चों की वज़ह से अवसर नहीं मिला। हम सब बच्चे कॉलोनी के हीरो हो गए। गंजा इस बीच कँहा छिपा रहा ये तो उसने हमें नहीं बताया। उसका कहना था फिर वो छिपने की जगह हम सब जान जायेंगे और वो अगली बार वँहा नहीं छिप सकेगा। पर कुछ भी हो, चोर को पकड़वाने का असली श्रेय तो गंजे का ही था, जो हम सब बच्चों ने ले लिया था।

Tuesday, 22 March 2016

स्मृतियों के झरोखों से

"चाय, गर्म चाय" की कर्कश आवाज से मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। मैंने स्वयं को प्लेटफार्म पर सोते पाया। नीचे तौलिया बिछा था और बैग का तकिया लगा कर मैं प्लेटफार्म पर लेटा था। जूते पास में पड़े थे। सामने कोई गाड़ी आ कर रुकी थी और चाय वाले केतली ले कर कर्कश आवाज में हर डिब्बे के सामने जा जा कर चाय बेच रहे थे। एक पल को तो मुझे समझ नहीं आया कि मैं कँहा हूँ। फिर अगले ही पल पिछली रात की सारी घटना आँखों के सामने घूम गई। आसमान अभी भी अंधकार से घिरा था। मैंने कलाई घड़ी पर नज़र डाली। सुबह के तीन बजे थे। ये एच एम टी की कलाई घडी मैंने हाल में ही 175 रुपये की ली थी। ये मेरी अपने वेतन से खरीदी हुई एकमात्र सम्पति थी। स्टेनलेस स्टील फ्रेम में काला डायल और उस पर रेडियम युक्त नम्बर व् सुइयां। अपने नाम जैसी कोहिनूर थी ये घडी। मैंने आँखे मल कर एक बार फिर इस पर नज़र डाली और उठ खड़ा हुआ। तौलिये को झाड़ कर बैग में ठूंसा, जूते पहन कर बैग कंधे पर ले लिया। सामने वाली गाड़ी ने सीटी दे दी थी और धीरे धीरे खिसकने लगी थी। मैंने पास के नल से मुंह धोया। नींद अभी भी आँखों में भरी थी। एक कप चाय ली और बैंच पर बैठ कर पीने लगा। सामने वाली गाड़ी जा चुकी थी। दूर अंधकार में उसके अंतिम डिब्बे के पीछे लगी लाल लाइट धुँधली पड़ती जा रही थी। प्लेटफार्म पर सन्नाटा पसर चुका था। काश ये गाड़ी दिल्ली की ओर जा रही होती तो क्या ही अच्छा होता! पर ये तो उल्टी दिशा में जा चुकी थी। अब क्या? एक बड़ा प्रश्न चिन्ह चाय की भाप में से बार बार निकल कर सामने उपस्थित हो रहा था। मैंने इधर उधर गर्दन घुमाई; ये जानने को कि ये कौन सा स्टेशन था। कुछ पता नहीं लगा। चाय वाले से पूछने पर जवाब मिला , "सादूलपुर"। उन दिनों दिल्ली जोधपुर के बीच मीटर गेज थी। एकमात्र सीधी गाड़ी जोधपुर मेल थी जो रतनगढ़, चुरू, सादुलपुर व् लुहारू होते हुए 625 किलोमीटर का सफ़र 16 घंटे में पूरा करती थी। अभी तो दिल्ली करीब 225 किलोमीटर दूर है, मैंने सोचा। क्या मेरा पेपर छूट जायगा? कुछ देर में जोधपुर मेल दिल्ली पहुँचती होगी। घर पर सब लोग मेरा इंतज़ार करते होंगे। उन्हें कैसे सूचित करूँ कि मैं यँहा अटका हूँ?

बात 1979 के मध्य की है। रेलवे में नोकरी लगे एक साल हो चुका था। जोधपुर पोस्टिंग थी। बी कॉम द्वितीय वर्ष की बाह्य छात्र के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय की परीक्षा सिर पर थी। डेट शीट अभी आनी थी। इधर अचानक विभागीय परीक्षा भी आ गई थी। किसे छोड़ू और कौनसी परीक्षा दूँ, समझ नहीं आ रहा था। तय किया दोनों दी जायँ। देने में क्या नुक्सान है! बस एक ही चिंता थी कि दोनों परीक्षाये एक ही दिन न पड़ जाएं। बहरहाल, तैयारी शुरू कर दी। सुबह उठना, खाना बनाना, ऑफिस जाना, फिर शाम का खाना तैयार करना। बाहर का खाना मुझे कभी रास नहीं आया। एक दो दिन तो ठीक है पर रोज़ नहीं खाया जा सकता था।  कपडे रविवार को ही धोता था। वैसे भी जोधपुर में उन दिनों पानी की बड़ी किल्लत थी। तो पढ़ने को तो रात ही मिलती थी। बाकी तो कुछ छोड़ा नहीं जा सकता था। नींद में ही कटौती कर समय निकलना था। गर्मियों के दिन थे। बाहर खुली छत पर चारपाई लगा एक लैम्प लगा लेता था। रात 1 बजे तक सो जाता था। सुबह किताबें उलटी हुई मिलती। सामने की छत पर एक और लड़का भी मेज कुर्सी पर लैंप लगा कर पढ़ा करता था। जब वह चाय बनाता तो मैं भी अपना बत्ती वाला स्टोव जला कर एक कप कड़क चाय बना लेता। मेरे लिए वह एक प्रेरणा स्तोत्र था। ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह मुझसे पहले सोया हो। एक दिन मैंने फैसला किया कि आज इसके सोने के बाद ही सोऊंगा। रात 9 बजे हम दोनों पढ़ने बैठे। 1 बजे तक तो मैं रोज ही जागता था। अब 2 बजे, फिर 3 और देखते ही देखते सुबह के 5 बज गए। रात भर में कई चाय के दौर भी चले। सुबह साढे 5 बजे उसने लैंप बंद किया। मेरी तो नींद से बुरी हालत थी। मैं भी बत्ती बंद कर वंही लुढक गया। 10 बजे आँख खुली। सूरज  आसमान में काफी चढ़ चुका  था। ऑफिस जाने का तो प्रश्न ही नहीं था। चारपाई अंदर कमरे में डाली और फिर सो गया। तब से तय किया कि इससे मुकाबला नहीं करूँगा। बाद में पता चला की वह जनाब दिन भर सोते थे और रात भर पढ़ते थे। शायद राजस्थान प्रशासनिक सेवा की तैयारी कर रहे थे।

हाँ, तो मैं बात कर रहा था दो दो परीक्षाओं की तैयारी की। तैयारी ठीक ठाक थी। विभागीय परीक्षा की तिथियां घोषित हो चुकी थी। यूनिवर्सिटी परीक्षा का अभी अता पता नहीं था। मैं निश्चिन्त था। कल  विभागीय परीक्षा का अंतिम पेपर था। अचानक घर से सन्देश मिला कि यूनिवर्सिटी की डेट शीट आ चुकी थी और रोल नम्बर भी आ गया था। परीक्षा परसों से प्रारम्भ थी। मैं दुविधा में पड़ गया। कल पेपर 1 बजे समाप्त हो जायगा। जोधपुर मेल दोपहर 2.30 पर चलती थी। परसों सुबह 6.30 पर दिल्ली पहुँच जाऊंगा। दोपहर 3 बजे पहला पेपर था। पर क्या जोधपुर मेल में जगह मिल पायेगी। मैंने घर सन्देश भिजवा दिया कि परसों सुबह जोधपुर मेल से पहुँच रहा हूँ।आनन फानन में पास लिया और मुख्यालय कोटे के लिए दे दिया।  बैग ले कर पेपर केंद्र पहुंचा , पेपर दिया और सीधा स्टेशन आ गया। चार्ट में कँही भी मेरा नाम नहीं था। प्रतीक्षा सूची लंबी थी। आरक्षित डिब्बे में तो जा नहीं सकता था, सो अनारक्षित डिब्बे का रुख किया। पर वँहा तो तिल रखने को भी जगह नहीं थी। आदमी बाहर तक लटके थे। अगला डिब्बा सेना के जवानों के लिए आरक्षित था। उन्होंने कँहा सिविलियन को घुसने देना था। सो उतार दिया गया। आरक्षित डिब्बे के कोच कंडक्टर से बात की, तो बोला अभी तो कोई गुंजाईश नहीं है, रतनगढ़ पर देखेंगे। गाड़ी का सिग्नल हो चुका था। कभी भी चल सकती थी। ज्यादा सोचने का समय नहीं था। भाग कर डाइनिंग कार में चढ़ गया।

डाइनिंग कार का मतलब पटरियों पर भागता रेस्तरां। डाईनिंग कार का आनंद वो ही जान सकते हैँ जिन्होंने इस में यात्रा करी है। आजकल तो ये सुविधा बंद हो चुकी है और इसकी जगह पेंट्री कार ने ले ली है। पर पेंट्री कार और डाइनिंग कार की कोई तुलना हो ही नहीं सकती। डाइनिंग कार में मेज कुर्सी लगे होते थे, जिसमें यात्री बैठ कर चाय,नाश्ते व् खाने का आर्डर दे सकते थे। चलती गाडी में चाय नाश्ते का लुत्फ़ उठाना किसी राजसी ठाठ का एहसास देता था। चाय बिलकुल अंग्रेजी स्टाइल में सर्व की जाती थी । चीनी मिट्टी की केतली में चाय, दूध दानी में अलग से दूध, और चीनी अलग से। चाय की केतली मोटे कपडे के कवर से ढकी रहती थी जिसे टिकोजी कहते थे; जिससे चाय जल्द ठंडी न होने पाये। सिकी हुई ब्रेड और मक्खन का सुबह की चाय के साथ मैंने जोधपुर जाते हुए कई बार आनंद लिया है। ब्रश कर के कुर्ते पायजामे में डाइनिंग कार में सुबह का चाय नाश्ता करना अपने आप में एक अविस्मरणीय अनुभव था। साथ चलती पेड़ों की कतारों के पीछे भुवन भास्कर उदय हो रहे होते थे। खुली खिड़की से ठंडी हवा के झोंके बची खुची खुमारी भी उतार देते थे। ऐसे में सुबह की चाय पीना किसे नहीं अच्छा लगेगा।

डाइनिंग कार का मैनेजर मेरा परिचित था। मैंने उसे अपनी समस्या बताई। वो सहर्ष मुझे रतनगढ़ तक ले चलने को तैयार हो गया। रतनगढ़ में डाइनिंग कार काट दी जाती थी। मैंने शाम की चाय व रात्रि का भोजन डाइनिंग कार में ही किया। रात साढे नो बजते बजते रतनगढ़ आ गया। गाडी यहाँ करीब आधा घंटा रूकती थी।कुछ डिब्बे कटते थे। मैं हमेशा स्टेशन से बाहर जाकर कढ़ाई का गर्म दूध पिया करता था। पर आज तो मझे इस के लिए समय नहीं था। कोच कंडक्टर को जा के पकड़ा। वो कोच के बाहर खड़ा था। उसने कहा अभी कुछ नहीं कह सकता। रतनगढ़ कोटे की स्थिति गाड़ी चलने के बाद ही पता चलेगी।जनरल कोच में तो हालात जोधपुर से भी बदतर थे। इंजन से लेकर गार्ड के डिब्बे तक दो तीन चक्कर काट चुका था। पर जगह कँही नहीं थी। सिग्नल हो चुका था। कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या किया जाय। तभी ऊपर नज़र गई। जितने यात्री गाड़ी में होंगे शायद उतने ही छत पर चढ़े हुए थे। सोचने का समय नहीं था। बैग कंधे पर संभाला और कपलिंग पर होते हुए सीढ़ी से ऊपर चढ़ने लगा। ऊपर जा कर देखा तो डर लगा। विचार बदल दिया। वापस नीचे आने को था तो पाया मेरे पीछे सीढ़ी पर तीन चार और चढ़ चुके थे । वो मुझे मारवाड़ी में ऊपर जाने को कह रहे थे। मैंने कहा मुझे नीचे उतरना है। वह बोले पहले ऊपर पहुँचो जिससे वो चढ़ पायें। कोई रास्ता नहीं था सिवाय ऊपर चढ़ने के। इतने में गाड़ी चल पड़ी। मैं छत पर आ चुका था। मेरे पीछे वाले भी छत पर आ चुके थे। पूरी गाड़ी की छत रंग बिरंगे पग्गड़ बांधे लोगो से भरी थी। बच्चे, युवा, बूढे सब तरह के लोग थे जो अपनी अपनी गठरी थामे बैठे थे। मैं कपलिंग के पास ही सीढ़ी की तरफ पैर लटका के बैठ गया जिससे डर लगने पर नीचे जा सकूँ। पर जैसे ही गाड़ी मुड़ी दोनों डिब्बे जो अब तक एक सीध में थे सीध में नहीं रहे। मुझे लगा यहाँ तो मैं नीचे जा गिरूँगा। सो बीच छत पर जाने में ही भलाई समझी।

गाडी गति पकड़ चुकी थी। वैसे तो छत पर यात्रा करने का यह मेरा तीसरा अनुभव था। पर पहली दो यात्रायें बहुत छोटी थी और दिन में की गई थी। छत पर बैठे बाकी यात्री इस तरह यात्रा के आदि लगते थे। चलती गाडी में जहां  मुझे बैठना मुश्किल हो रहा था, वह भाग रहे थे। एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे पर कूद कर चले जाते। आसमान में चाँद चमक रहा था। दोनों तरफ का जंगल उसकी रौशनी में नहाया हुआ था। पेड़ो पर जुगनू जग मग करते दीख पड़ते थे। तेज हवा चल रही थी जिसमें डीज़ल की गंध भरी थी। कभी कभी इंजन से गाड़े काले रंग के धुंए का गुबार उठता जो चाँद को आच्छादित कर देता था। पर पुनः चाँद चमक उठता था। चाँद हमारी गाड़ी के साथ साथ चलता प्रतीत होता था। हवा इतनी तेज थी कि कंधे पर लटका मेरा बैग उसके वेग से उड़ने लगता। मुझे लगा कि इसके साथ मैं भी नीचे गिर जाऊंगा। ये ख्याल आते ही सिरहन सी दौड़ जाती । अगर मैं गिरा तो मुझे सुबह तक तो कोई देख नहीं पायगा। और दिन में भी कौन आएगा यहाँ जंगल में । तो क्या मैं इसी जंगल में पड़ा रहूँगा? क्यों चढ़ा मैं छत पर इन सब की देखा देखी! इन्हें देखो कैसे भाग रहे हैं। मैनें बैग कंधे से उतार कर सामने रख लिया और कस के पकड़ के बैठ गया। मीटर गेज़ की गाडी की छत एक तो वैसे ही छोटी होती है। ऊपर से दोनों ओर से ढलाव लिए हुए। पकड़ने को कुछ होता नहीं है। गाड़ी की गति अब कम हो रही थी। शायद चुरू आ रहा था। मैंने सोच लिया यहाँ  उतर जाऊंगा। थोड़ी देर में चुरू आ गया। गाड़ी रुकते ही नीचे खड़ी भीड़ ने छत का रुख किया। मुझे कौन उतरने देता । लोग अभी भी सीढ़ी पर लटके थे। गाडी चल पड़ी थी और मैं छत पर ही था।

रात गहरा रही थी। नींद ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया था। मैं लेटना चाहता था। सीधा लेटता तो लुढक कर नीचे गिरने का भय था। कुछ और लोग भी आड़े लेटे थे अपनी गठरी सिर पर लगाये। मुझे पता था कि यदि मैं लेटा तो तुरंत सो जाऊँगा। मैंने बैठे रहना ही सुरक्षित समझा। तभी किसी ने बीड़ी सुलगाई। मानो आतिशबाज़ी हुई हो। बहुत सी चिंगारियां हवा में उड़ती दूर तक चली गई। कुछ लोग चिल्लाये कि बीड़ी बंद कर। मुझे तेज नींद का झोंका आया। लुढकने ही वाला था कि पास वाले ने थाम लिया। मरणा है क्या? वो चिल्लाया। मैंने सोच लिया कि क्या होगा गिर ही तो जाऊंगा। पर नींद अब बर्दाश्त से बाहर थी। मैं लेट कर सो जाना चाहता था बिना ये सोचे कि मेरा क्या होगा। मैं आड़ा लेट गया। कमर को कुछ आराम मिला । नींद को दूर रखने का मैं भरसक प्रयत्न कर रहा था।गाडी की गति पुनः धीमी हो रही थी। कौनसा स्टेशन है मुझे नहीं देखना था। बस , रुकते ही प्लेटफॉर्म पर कूद जाना था। मैं उठ कर बैठ गया। जैसे ही गाडी रुकी मैंने प्लेटफॉर्म पर छलांग लगा दी। मुझे नहीं याद चोट आई थी या नहीं। उठा, कपडे झाड़े, बैग से तौलिया निकाल वहीं प्लेटफॉर्म पर  बिछाया। जूते उतार, बैग का तकिया बना सो रहा। बेसुध।

रात को जान बचाने की चिंता ने पेपर को पीछे धकेल दिया था। अब जब जान बच चुकी थी पेपर फिर आगे आ कर खड़ा हो गया था। अभी 11 घण्टे है। कोशिश करूँ तो पेपर दिया जा सकता है। कदम स्टेशन मास्टर के कमरे की और बढ़ चले। बिना किसी भूमिका के मैंने अपना परिचय दिया और कहा मुझे दिल्ली जाना है।  कोई गाडी मिलेगी? उसने कहा थोड़ी देर में रेवाडी पैसेंजर जायगी ।  वहाँ से कोई गाड़ी मिल जायगी। उसने एक पोर्टर मेरे साथ कर दिया जो मुझे यार्ड में खड़ी गाडी तक ले गया। मैंने ऊपर की एक बर्थ ली और सो गया। आँख खुली तो गाड़ी भाग रही थी। नीचे लोगों का जमावड़ा था। एक तो ऊपर आकर मेरे पैरों के पास भी बैठा था। सुबह हो चुकी थी। मैंने पूछा , " रेवाड़ी आने में कितना समय लगेगा?" पता चला गाड़ी रेवाड़ी पहुँचने वाली थी। मैं नीचे उतर आया। रेवाड़ी पर जैसे ही उतरा , सामने के प्लेटफार्म से रेवाड़ी - दिल्ली पैसेन्जर चलने को तैयार थी। अँधा क्या चाहे - दो आँखे। भाग कर चढ़ गया।

कुछ ही घंटो में मैं सराय रोहिल्ला स्टेशन पर था। वँहा से सब्ज़ी मंडी रेलवे कॉलोनी तक का रास्ता पैदल तय किया। 12 बजे के आस पास घर पंहुचा। माँ अत्यधिक चिंतित थी। " कँहा रह गया था? गाड़ी कब की आ चुकी है। " मैंने कहा शाम को बात करता हूँ। जल्दी कुछ खाने को दो और रोल नम्बर दो। सेंटर शिवाजी कॉलेज में था। बस से समय पर पंहुच गया। सारे पेपर दिए। और विभागीय एवम् यूनिवर्सिटी दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण भी हुआ।

पर आज सोचता हूँ कि एक परीक्षा के लिए इतना बड़ा जोखिम उठाना क्या ठीक था? शायद नहीं। पर अब तो सब इतिहास हो चुका है। समय की धूल भी जम चुकी है इन घटनाओं पर। स्मृतियां धुंधली हो चुकी है। समय की धूल झाड़ कर लिपिबद्ध करने का प्रयास कर रहा हूँ ताकि सनद रहे। कोहिनूर आज भी मेरे पास है। चाबी दो और चल पड़ती है। कहते हैं न हीरा है सदा के लिए।

Sunday, 20 March 2016

गोरैया - विश्व् गोरैया दिवस पर विशेष

चैत्र आते ही आँखे तलाशने लगती है उस छोटी सी चिड़िया और चिड़े को जो बरसों पहले इस मौसम मेँ नीड बनाते दिखा करते थे।तब मुझे नहीं मालूम था कि इसे गोरैया कहते हैँ। तब ये बहुतायत मेँ हुआ करती थीं । और आज आँखे बस तलाशती ही रह जाती हैँ। कँहा विलुप्त हो गई ये मासूम सी प्रजाति इस  शहरीकरण मेँ! क्या कभी वापस आ पाएंगी या आने वाली पौध इनकी कहानियाँ किस्से बस नानी माँ से सुना करेंगे या किताबों में ही पढ़ा करेंगे।

मेरे मकान में छत पट्टियों की थी। उन के बीच में एक आड़ी लोहे की रेल पड़ी हुई थी ताकि छत का भार वह संभाल ले। उस रेल के बीच मेँ एक हुक लगा था जिस पर उषा का एक पंखा टंगा था। उस पंखे के ऊपर का कप रेल के कारण ऊपर तक नहीं जा पाता था। और यही जगह गोरैया ने चुन ली थी अपने नीड़ के लिए। इसके अलावा कमरे मेँ बने ताक और रौशनदान भी गोरैया की मनपसंद जगह थी। चैत्र से पहले ही नर और मादा जुटाने लगते थे तिनका तिनका। रस्सी का टुकड़ा हो या फूल झाड़ू के तिनके, पता नहीं कँहा कँहा से बीन कर लाते थे। रुई के फोहे भी मिल जाते तो उन्हें गुरेज़ नहीं था। बस एक आरामदायक नीड का निर्माण करना ही इन परिंदों का एक मात्र ध्येय था।

स्कूल की छुट्टियां पड़ जाती थी। मेरा काम इन के कार्य कलापो को ध्यान से देखने का होता था। चीं चीं कर के कमरे के जब ये पक्षी चक्कर लगाते, तो मुझे पंखा बंद करना पड़ता कि कहीं ये चलते पंखे की चपेट मेँ न आ जाएं। फिर भी एक दो घायल हो गिर पड़ते थे। जूते के पुराने डिब्बे मेँ रुई के पैल बिछा कर इन घायल पक्षियों को में उसमें रख देता। दाना पानी की व्यवस्था करता। और बिल्ली से बचा कर रखता। कुछ तो ठीक हो कर उड़ जाते और कुछ मर भी जाते। मुझे सदा ऐसा लगता कि मेरी देखभाल मेँ कमी के चलते ये पक्षी नहीं बच पाया।

दुःख तो तब भी होता जब इनके छोटे से चितकबरे अंडे नीचे गिर कर टूट जाते। बेचारे बिन बोलते पक्षी किससे अपनी व्यथा कहते। नीड़ सूना सा हो जाता।
समय आने पर इनके घोसलों से नन्हें पक्षियों की चेचाहट सुनाई देने लगती। भूखे बच्चे चीं चीं कर अपनी माँ को पुकारते। कमरे के कई चक्कर लगा सशंकित सी माँ चोंच में दाना ले आती। उचक उचक कर छोटी सी चोंच खोल कर ये नन्हे दाना मांगते। चोंच मेँ चोंच डाल कर माँ इन्हें खिलाती। मुझे यह सब देखने में बहुत सकून मिलता। माँ गोरैया को दूर न जाना पड़े इस लिए मेँ एक पात्र मेँ दाना आस पास ही रख देता। दाना पाने की होड़ मेँ एक दो नन्हें नीचे आ पड़ते। इतने ऊपर घोसलें मेँ तो उन्हें वापस पहुँचाया नहीं जा सकता था। हाँ, उसी जूते के डिब्बे वाले घर मेँ मैं उन्हें रख देता। पर ये निर्मोही गोरैया फिर उनकी सुध नहीं लेती थी। माँ कहती अब चिड़िया इन्हें नहीं ले जायगी क्योंकि तुम ने इन्हें छुआ है। इन में तुम्हारी गंध आ गई है। कारण चाहे जो भी हो, गोरैया इन बच्चों का परित्याग ही कर देती थी। बिना माँ की देखभाल के ये परित्यक्त बच्चे ज्यादा दिन नहीं जी पाते थे। मुझे माँ गोरैया पर बहुत क्रोध आता। पर कर क्या सकता था।

पंख आने पर माँ इन्हें उड़ना सिखाती। पहले तो कमरे मेँ ही नीचे ले आती। फिर चोंच मार मार कर उड़ाती। धीरे धीरे बच्चों को रोशनदान तक लाती। फिर चोंच से धक्का देती। कुछ दिनों  मेँ ही बच्चे अपनी नैसर्गिक कला को निखार लेते। अब बारी आती बाहर की दुनियाँ मेँ आने की। बाहर आँगन की मुंडेर पर बैठे बच्चों मेँ और वयस्क गोरैया मेँ अन्तर करना अब मुश्किल हो जाता। चोंच से ही पता चलता था कि कौन बच्चा है और कौन वयस्क।

लगता अब घर सूना हो जायेगा। उड़ जायँगे ये पक्षी अपना जीवन जीने को। फिर अचानक एक शाम कोई नहीं लौटता नीड़ मेँ। न बच्चे, न ही उनके माता पिता। छत पर जाकर देखता तो खुले आकाश मेँ सैकड़ो गोरैया मंडराती दिखती। इनमें से मेरे घर वाली कौनसी है , यही सोचता। शाम को लिसोड़े के पेड़ पर यह पक्षी खूब शोर मचाते। फिर अचानक इनका शोर थम जाता। मानों सारे मिल कर वेद की ऋचाएँ पढ़ रहे थे। जो अब समाप्त हो गई है।

हर वर्ष जब भी चैत्र आता है मुझे गोरैया याद आती है। पर वो तो रूठ कर जा चुकी है। कभी न आने के लिए।

Thursday, 3 March 2016

श्रद्धांजलि

मेरे अनुज, परम् मित्र,सुहृदय एवम् शुभ चिंतक प्रिय संजीव की आदरणीय माता जी, जिन्हें हम भाभी कह कर संबोधित करते थे, का आज दोपहर निधन हो गया। भाभी कल से कूल्हे की अस्थि टूट जाने के कारण अस्पताल मेँ भर्ती थी। आज शाम हम उनसे मिलने जाने वाले थे, परन्तु दोपहर में समाचार मिला की अकस्मात ह्रदय गति रुक जाने से भाभी नहीं रहीं।उनका स्वास्थ्य वैसे तो पिछले काफी समय से ठीक नहीं चल रहा था। परन्तु अकस्मात विदा ले लेंगी ऐसा ज्ञात नहीं था। 90 वर्ष से अधिक की अवस्था मेँ भी भाभी सीधी चलती थीं। हम दम्पति पर तो उनका स्नेह कुछ अधिक ही था। हम जब उनके घर जाते थे तो पता चलता था कि वह हमें याद कर रही थीं। पिछली बार जब हमारा जाना हुआ था तो भाभी सो रही थी इसलिए हम उनके आशीर्वाद से वंचित रह गए थे। वह अक्सर कहती थीं कि भगवान् मुझे भूल गया है तभी तो बुला नहीं रहा। पिछले कुछ समय से भाभी स्वयं से उठ बैठ भी नहीं पा रही थीं। न जाने कैसे और क्यों वह उठ के चल दी और गिर पड़ी। जिससे कूल्हे की अस्थि भंग हो गयी। मुझे याद है काफी समय पहले भाभी का हमारे घर आना हुआ था। ढेर सारे सूखे मेवे बच्चों के लिए ले कर आई थीं वह। ऐसा स्नेह था। पिछले दो दशकों मेँ भाभी ने कई झटके झेले जब उनकी आँखों के सामने उनके प्रिय जन  प्रभु के धाम चले गए। फिर भी वह एक जीवट वाली महिला थीं जो पुनः खड़ा होना जानती थीं।प्रभु की परम् भक्त थीं। एकादशी, सोमवती अमावस्या आदि विशेष तिथियां और पर्व उन्हें खूब याद रहते थे। कभी कभी अपने पुराने किस्से सुनाने लगतीं, तो लगता परत दर परत यादों के पन्नें खुलते चले जा रहे हों। आज जब चिता की लपटें भाभी के पार्थिव शरीर को लील रही थीं तो मैं संजीव के पास ही खड़ा था। मात्र अस्थियों का पिंजर ही रह गया था। यूँ तो भाभी ने अपनी आयु जी ली पर हर सदस्य का घर मेँ एक विशेष स्थान होता है। आज से भाभी का कमरा खाली हो गया है। दिल का एक कोना भी खाली सा लग रहा होगा संजीव को।  शिंजा को भी लगेगा मानो सब काम समाप्त हो गए हों। इस खालीपन को भरने मेँ समय लगेगा। प्रभु से प्रार्थना है कि परिवार जनों को इस शोक को सहने की शक्ति दे। और भाभी को अपने चरणों में स्थान प्रदान करे। गीता का एक शलोक उधृत करना चाहूँगा-

श्लोक:
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि॥

भावार्थ:
क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषय में तू शोक करने योग्य नहीं है।