"जोर से बोलो जय माता की"। "आवाज नहीं आई"। "मैं नहीं सुनया"। "जोर से बोलो"। ये आवाजें तेज होती जा रही थी। एक महिला अपने बाल खोले जोर जोर से अपना सिर धुन रही थी। लोगों की भीड़ उसे घेरे खड़ी थी।उसका शरीर पसीने पसीने हो रहा था। हम बच्चे भी कौतुहल वश उस भीड़ में खड़े थे। धीरे धीरे उस महिला के हिलने की गति कम पड़ती गई। थोड़ी देर में वह सामान्य हो गई। कुछ महिलाएं उसे पानी पिला रही थी। मानो उस पर कोई आवेश आया था जो अब नहीं रहा। जागरण अपने पूरे जोर शोर से चल रहा था। रात गहरा गई थी। हम बच्चे भी मंदिर से बाहर आ गए। अब दुबारा चाय वितरण में देर थी। तब तक हमारी टोली बिलकुल खाली थी।
फरीदाबाद न्यू टाउनशिप के माता मंदिर में इस प्रकार के जागरण होते ही रहते थे। जागरण के बीच किसी महिला को अक्सर "माता" आ जाती थी। उस आवेश में वह जोर जोर से अपना सिर घुमाती। लोग उससे अपने प्रश्न करते और वह समाधान करती। हम बच्चों की टोली के लिए तो जागरण का मतलब था रात भर मौज मस्ती। मुफ्त की चाय और नाश्ता । फिर अल्ल सुबह का प्रसाद। कोई 12 से 15 बच्चों की ये टोली जागरण शुरू होने से पहले ही अपनी अपनी चादर ले कर मंदिर में आ धमकती। देर रात तक खेल, थक हार मंदिर में ही चादर ओढ़ कर इस टोली के बच्चे सोये रहते। सुबह जब प्रसाद वितरण होता, तो सबसे पहले लाइन में लगने वाले हम बच्चे ही होते थे।
आज भी कुछ इसी तरह का अवसर था। चाय अब सुबह 2 बजे से पहले नहीं मिलनी थी । हमारी टोली को चल रहे जागरण से कोई लेना देना नहीं था। इस टोली में 4 कक्षा से लेकर कक्षा 10 तक के बच्चे थे। सभी लड़के। मैं सबसे छोटा था। और जो सबसे बड़ा था उसको हम सब "गंजा" बुलाते थे। उसका ये नाम क्यों पड़ा, ये तो मुझे नहीं पता पर वह गंजा कदापि नहीं था। गंजे के पिता के ट्रक चलते थे और खेती भी थी। घर से सम्पन्न था वह। सबसे अभाव ग्रस्त था सुरेन्द्र। पिता के मरने के बाद जैसे तैसे माँ उसे पाल रही थी। सुबह खा लिया तो शाम का पता नहीं। पर बाल मन तो निश्छल होता है। वँहा अमीरी गरीबी बीच में नहीं आती। अगर दोस्त है तो फिर दोस्त है।
सुबह सुबह चार बजे गंजे के पिता ट्रक ले कर खेतों में जाते। कई बार हम बच्चे भी ट्रक में सवार हो जाते। खेतों में जाने का एक मात्र उद्देश्य वँहा की 3 फ़ीट गहरी ट्यूब वेल की हौद में नहाना होता था। मोटी जल धारा उस हौद में गिरती रहती और फिर पानी वँहा से खेत में जाता। हम तो जाते ही कपङे उतार उस हौद में उतर जाते । वो हमारे लिए किसी तरण ताल से कम नहीं था। जी भर कर पानी उछालते और मस्ती करते। आते समय खेतों से ताज़ी सब्जियां तोड़ कर खाते। कच्ची भिन्डी खानी मैनें वंही से शुरू की थी।
एक दिन हम बच्चे ट्रक पर सवार थे। पौ अभी फटी नहीं थीं। आसमान में अंधकार था। कि अचानक बीच सड़क में ट्रक रुक गया। हम सब खुले ट्रक में पीछे खड़े थे। ड्राईवर केबिन से एक छोटी खिड़की पीछे खुलती थी । गंजे के पिता जी ने खिड़की खोल चुप रहने का इशारा किया। हम 4 बच्चे पीछे थे। गंजा आगे पिता जी के साथ था। उन्होंने एक एक करके हम बच्चों को खिड़की के रास्ते ड्राईवर केबिन में ले लिया। खिड़की बंद करके उन्होंने ट्रक की हेडलाइट्स जलाई। सामने सड़क पर एक तेंदुआ पसरा हुआ था। शायद सो रहा था। इक्का दुक्का भेड़िये, लकड़बग्गे और सियार तो कॉलोनी के आसपास देखे गए थे। पर तेंदुआ पहली बार सामने था अब हमें मामले की नज़ाकत समझ आई। इतने में उन्होंने हॉर्न बजाय। तेंदुआ उठा और एक लंबी अंगड़ाई ली। उसने एक बार हमारी और देखा। फिर एक छलांग के साथ पास के जंगल में अदृश्य हो गया। तब कँही जाकर हमारा ट्रक आगे बढ़ पाया।
इन्हीं सब कारणों से गंजा हमारा हीरो था और टोली का नेता भी। रात को हमारा पसंददीदा खेल था - आइस पाइस। आज भी सबने तय किया कि आइस पाइस खेलेंगे। गंजे ने खेल की सीमा तय की। तय की गई सीमा से बाहर जाकर छिपना वर्जित था। पुगम पुगाई हुई और मेरी बारी आ गई। बाकी सबने छिपना था और मुझे ढूंढना था।और यदि इसी बीच किसी ने मुझे पीछे से आकर "ठप्पा" कर दिया तो मुझे दुबारा बारी देनी थी। मैनेँ मंदिर की दीवार की तरफ मुँह करके 100 तक गिनती गिनी। इसी बीच बाकी सब दूर दूर जा कर छिप गए। इतनी बड़ी सीमा में रात में इतने बच्चों को खोज निकालना मेरे बस का तो था नहीं। मैं मंदिर में आया, चादर ओढ़ , दरी पर लेट गया। पता नहीं कब मुझे नींद आ गई। छिपे छिपे सारे बच्चे मेरा इंतज़ार ही करते रहे। फिर थक कर एक एक कर स्वयं ही बाहर निकल आये। झुण्ड बना कर अब वो सब मुझे ढूंढते फिर रहे थे। इतने में मंदिर में चाय मिलने लगी। सभी खेल छोड़कर चाय की लाइन में आ लगे। तभी किसीने मुझे सोता पाया। खूब झगड़ा हुआ। मुझे चाय के बाद फिर से बारी देनी थी। और मैं फिर न सो जाऊँ इसलिए मेरे साथ सुरेन्द्र की भी बारी लगा दी थी गंजे ने। अब तो ढूंढना ही पड़ेगा।
सभी जा कर छिप चुके थे। हम दोनों खोजने निकले। सुरेंद्र इस काम में बहुत तेज था। फिर दो होने का हमें लाभ भी था। एक दूसरे से पीठ सटा कर ढूंढ रहे थे। अब हमारी चार आँखे थी - दो आगे तो दो पीछे। मज़ाल है कोई "ठप्पा" कर पाये। इधर उधर से एक एक करके सभी को खोज निकाला। जिसे भी हम "आइस पाइस" कर ढूंढ लेते, वो भी हमारे साथ हो लेता। अभी तक गंजा नहीं मिला था। न जाने कँहा जा छिपा था। हम बच्चों का हुजूम गंजे की तलाश में रात के अँधेरे में भटक रहा था। उधर मंदिर में अरदास चल रही थी।
सुबह के कोई 3 बजे होंगे। अचानक वँहा खड़े एक ट्रक के नीचे "गंजा" दिखाई दिया। ट्रक के बायें तरफ नाला था और दायीं तरफ सड़क। कल उतारी गई रोड़ी का पास में ढेर लगा था। मैं सड़क पर लेट कर चिल्लाया, "गंजे, आइस पाइस ।गंजे, आइस पाइस। बाहर आ ।" पर गंजा तो हिला ही नहीं। साथ के बच्चों ने भी गुहार लगाई। पर गंजा वंही छिपा रहा। बच्चे तो वानर टोली होती है। पास पड़ी रोड़ी उठाई और लगे मारने। पर गंजा नहीं निकला। अब तो हम बच्चों का रहा सहा धैर्य भी जवाब दे गया। कुछ बच्चे ट्रक के नीचे घुस गए, गंजे को बाहर खीचने के लिए। तभी अचानक "गंजा" दूसरी तरफ से बाहर निकला और भागा। वानर सेना उस पर पथराव करती पीछे भागी। शायद एक पत्थर "गंजे" के पैर पर लगा और वो गिर पड़ा। गिरते ही वानर सेना ने उसे घेर लिया। "गंजे, तू भाग क्यों रहा था?"
पर यह क्या! गंजे की जगह ये तो कोई और था! अरे, ये तो कोई और है! सभी बच्चे चिल्लाये। वो व्यक्ति फिर से भागने का उपक्रम करता दिखा, तो बच्चों ने दबोच लिया।
सभी बच्चे "चोर, चोर" चिल्लाने लगे। तब तक जागरण में से कुछ बड़े लोग भी आ गए। उसे पकड़ के पास के पुलिस स्टेशन ले गए। बाद में पता चला कि वो वास्तव में कोई चोर था जो चोरी करने आया था। पर जागरण के चलते और हम बच्चों की वज़ह से अवसर नहीं मिला। हम सब बच्चे कॉलोनी के हीरो हो गए। गंजा इस बीच कँहा छिपा रहा ये तो उसने हमें नहीं बताया। उसका कहना था फिर वो छिपने की जगह हम सब जान जायेंगे और वो अगली बार वँहा नहीं छिप सकेगा। पर कुछ भी हो, चोर को पकड़वाने का असली श्रेय तो गंजे का ही था, जो हम सब बच्चों ने ले लिया था।