Tuesday, 22 March 2016

स्मृतियों के झरोखों से

"चाय, गर्म चाय" की कर्कश आवाज से मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। मैंने स्वयं को प्लेटफार्म पर सोते पाया। नीचे तौलिया बिछा था और बैग का तकिया लगा कर मैं प्लेटफार्म पर लेटा था। जूते पास में पड़े थे। सामने कोई गाड़ी आ कर रुकी थी और चाय वाले केतली ले कर कर्कश आवाज में हर डिब्बे के सामने जा जा कर चाय बेच रहे थे। एक पल को तो मुझे समझ नहीं आया कि मैं कँहा हूँ। फिर अगले ही पल पिछली रात की सारी घटना आँखों के सामने घूम गई। आसमान अभी भी अंधकार से घिरा था। मैंने कलाई घड़ी पर नज़र डाली। सुबह के तीन बजे थे। ये एच एम टी की कलाई घडी मैंने हाल में ही 175 रुपये की ली थी। ये मेरी अपने वेतन से खरीदी हुई एकमात्र सम्पति थी। स्टेनलेस स्टील फ्रेम में काला डायल और उस पर रेडियम युक्त नम्बर व् सुइयां। अपने नाम जैसी कोहिनूर थी ये घडी। मैंने आँखे मल कर एक बार फिर इस पर नज़र डाली और उठ खड़ा हुआ। तौलिये को झाड़ कर बैग में ठूंसा, जूते पहन कर बैग कंधे पर ले लिया। सामने वाली गाड़ी ने सीटी दे दी थी और धीरे धीरे खिसकने लगी थी। मैंने पास के नल से मुंह धोया। नींद अभी भी आँखों में भरी थी। एक कप चाय ली और बैंच पर बैठ कर पीने लगा। सामने वाली गाड़ी जा चुकी थी। दूर अंधकार में उसके अंतिम डिब्बे के पीछे लगी लाल लाइट धुँधली पड़ती जा रही थी। प्लेटफार्म पर सन्नाटा पसर चुका था। काश ये गाड़ी दिल्ली की ओर जा रही होती तो क्या ही अच्छा होता! पर ये तो उल्टी दिशा में जा चुकी थी। अब क्या? एक बड़ा प्रश्न चिन्ह चाय की भाप में से बार बार निकल कर सामने उपस्थित हो रहा था। मैंने इधर उधर गर्दन घुमाई; ये जानने को कि ये कौन सा स्टेशन था। कुछ पता नहीं लगा। चाय वाले से पूछने पर जवाब मिला , "सादूलपुर"। उन दिनों दिल्ली जोधपुर के बीच मीटर गेज थी। एकमात्र सीधी गाड़ी जोधपुर मेल थी जो रतनगढ़, चुरू, सादुलपुर व् लुहारू होते हुए 625 किलोमीटर का सफ़र 16 घंटे में पूरा करती थी। अभी तो दिल्ली करीब 225 किलोमीटर दूर है, मैंने सोचा। क्या मेरा पेपर छूट जायगा? कुछ देर में जोधपुर मेल दिल्ली पहुँचती होगी। घर पर सब लोग मेरा इंतज़ार करते होंगे। उन्हें कैसे सूचित करूँ कि मैं यँहा अटका हूँ?

बात 1979 के मध्य की है। रेलवे में नोकरी लगे एक साल हो चुका था। जोधपुर पोस्टिंग थी। बी कॉम द्वितीय वर्ष की बाह्य छात्र के रूप में दिल्ली विश्वविद्यालय की परीक्षा सिर पर थी। डेट शीट अभी आनी थी। इधर अचानक विभागीय परीक्षा भी आ गई थी। किसे छोड़ू और कौनसी परीक्षा दूँ, समझ नहीं आ रहा था। तय किया दोनों दी जायँ। देने में क्या नुक्सान है! बस एक ही चिंता थी कि दोनों परीक्षाये एक ही दिन न पड़ जाएं। बहरहाल, तैयारी शुरू कर दी। सुबह उठना, खाना बनाना, ऑफिस जाना, फिर शाम का खाना तैयार करना। बाहर का खाना मुझे कभी रास नहीं आया। एक दो दिन तो ठीक है पर रोज़ नहीं खाया जा सकता था।  कपडे रविवार को ही धोता था। वैसे भी जोधपुर में उन दिनों पानी की बड़ी किल्लत थी। तो पढ़ने को तो रात ही मिलती थी। बाकी तो कुछ छोड़ा नहीं जा सकता था। नींद में ही कटौती कर समय निकलना था। गर्मियों के दिन थे। बाहर खुली छत पर चारपाई लगा एक लैम्प लगा लेता था। रात 1 बजे तक सो जाता था। सुबह किताबें उलटी हुई मिलती। सामने की छत पर एक और लड़का भी मेज कुर्सी पर लैंप लगा कर पढ़ा करता था। जब वह चाय बनाता तो मैं भी अपना बत्ती वाला स्टोव जला कर एक कप कड़क चाय बना लेता। मेरे लिए वह एक प्रेरणा स्तोत्र था। ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह मुझसे पहले सोया हो। एक दिन मैंने फैसला किया कि आज इसके सोने के बाद ही सोऊंगा। रात 9 बजे हम दोनों पढ़ने बैठे। 1 बजे तक तो मैं रोज ही जागता था। अब 2 बजे, फिर 3 और देखते ही देखते सुबह के 5 बज गए। रात भर में कई चाय के दौर भी चले। सुबह साढे 5 बजे उसने लैंप बंद किया। मेरी तो नींद से बुरी हालत थी। मैं भी बत्ती बंद कर वंही लुढक गया। 10 बजे आँख खुली। सूरज  आसमान में काफी चढ़ चुका  था। ऑफिस जाने का तो प्रश्न ही नहीं था। चारपाई अंदर कमरे में डाली और फिर सो गया। तब से तय किया कि इससे मुकाबला नहीं करूँगा। बाद में पता चला की वह जनाब दिन भर सोते थे और रात भर पढ़ते थे। शायद राजस्थान प्रशासनिक सेवा की तैयारी कर रहे थे।

हाँ, तो मैं बात कर रहा था दो दो परीक्षाओं की तैयारी की। तैयारी ठीक ठाक थी। विभागीय परीक्षा की तिथियां घोषित हो चुकी थी। यूनिवर्सिटी परीक्षा का अभी अता पता नहीं था। मैं निश्चिन्त था। कल  विभागीय परीक्षा का अंतिम पेपर था। अचानक घर से सन्देश मिला कि यूनिवर्सिटी की डेट शीट आ चुकी थी और रोल नम्बर भी आ गया था। परीक्षा परसों से प्रारम्भ थी। मैं दुविधा में पड़ गया। कल पेपर 1 बजे समाप्त हो जायगा। जोधपुर मेल दोपहर 2.30 पर चलती थी। परसों सुबह 6.30 पर दिल्ली पहुँच जाऊंगा। दोपहर 3 बजे पहला पेपर था। पर क्या जोधपुर मेल में जगह मिल पायेगी। मैंने घर सन्देश भिजवा दिया कि परसों सुबह जोधपुर मेल से पहुँच रहा हूँ।आनन फानन में पास लिया और मुख्यालय कोटे के लिए दे दिया।  बैग ले कर पेपर केंद्र पहुंचा , पेपर दिया और सीधा स्टेशन आ गया। चार्ट में कँही भी मेरा नाम नहीं था। प्रतीक्षा सूची लंबी थी। आरक्षित डिब्बे में तो जा नहीं सकता था, सो अनारक्षित डिब्बे का रुख किया। पर वँहा तो तिल रखने को भी जगह नहीं थी। आदमी बाहर तक लटके थे। अगला डिब्बा सेना के जवानों के लिए आरक्षित था। उन्होंने कँहा सिविलियन को घुसने देना था। सो उतार दिया गया। आरक्षित डिब्बे के कोच कंडक्टर से बात की, तो बोला अभी तो कोई गुंजाईश नहीं है, रतनगढ़ पर देखेंगे। गाड़ी का सिग्नल हो चुका था। कभी भी चल सकती थी। ज्यादा सोचने का समय नहीं था। भाग कर डाइनिंग कार में चढ़ गया।

डाइनिंग कार का मतलब पटरियों पर भागता रेस्तरां। डाईनिंग कार का आनंद वो ही जान सकते हैँ जिन्होंने इस में यात्रा करी है। आजकल तो ये सुविधा बंद हो चुकी है और इसकी जगह पेंट्री कार ने ले ली है। पर पेंट्री कार और डाइनिंग कार की कोई तुलना हो ही नहीं सकती। डाइनिंग कार में मेज कुर्सी लगे होते थे, जिसमें यात्री बैठ कर चाय,नाश्ते व् खाने का आर्डर दे सकते थे। चलती गाडी में चाय नाश्ते का लुत्फ़ उठाना किसी राजसी ठाठ का एहसास देता था। चाय बिलकुल अंग्रेजी स्टाइल में सर्व की जाती थी । चीनी मिट्टी की केतली में चाय, दूध दानी में अलग से दूध, और चीनी अलग से। चाय की केतली मोटे कपडे के कवर से ढकी रहती थी जिसे टिकोजी कहते थे; जिससे चाय जल्द ठंडी न होने पाये। सिकी हुई ब्रेड और मक्खन का सुबह की चाय के साथ मैंने जोधपुर जाते हुए कई बार आनंद लिया है। ब्रश कर के कुर्ते पायजामे में डाइनिंग कार में सुबह का चाय नाश्ता करना अपने आप में एक अविस्मरणीय अनुभव था। साथ चलती पेड़ों की कतारों के पीछे भुवन भास्कर उदय हो रहे होते थे। खुली खिड़की से ठंडी हवा के झोंके बची खुची खुमारी भी उतार देते थे। ऐसे में सुबह की चाय पीना किसे नहीं अच्छा लगेगा।

डाइनिंग कार का मैनेजर मेरा परिचित था। मैंने उसे अपनी समस्या बताई। वो सहर्ष मुझे रतनगढ़ तक ले चलने को तैयार हो गया। रतनगढ़ में डाइनिंग कार काट दी जाती थी। मैंने शाम की चाय व रात्रि का भोजन डाइनिंग कार में ही किया। रात साढे नो बजते बजते रतनगढ़ आ गया। गाडी यहाँ करीब आधा घंटा रूकती थी।कुछ डिब्बे कटते थे। मैं हमेशा स्टेशन से बाहर जाकर कढ़ाई का गर्म दूध पिया करता था। पर आज तो मझे इस के लिए समय नहीं था। कोच कंडक्टर को जा के पकड़ा। वो कोच के बाहर खड़ा था। उसने कहा अभी कुछ नहीं कह सकता। रतनगढ़ कोटे की स्थिति गाड़ी चलने के बाद ही पता चलेगी।जनरल कोच में तो हालात जोधपुर से भी बदतर थे। इंजन से लेकर गार्ड के डिब्बे तक दो तीन चक्कर काट चुका था। पर जगह कँही नहीं थी। सिग्नल हो चुका था। कुछ समझ नहीं आ रहा था क्या किया जाय। तभी ऊपर नज़र गई। जितने यात्री गाड़ी में होंगे शायद उतने ही छत पर चढ़े हुए थे। सोचने का समय नहीं था। बैग कंधे पर संभाला और कपलिंग पर होते हुए सीढ़ी से ऊपर चढ़ने लगा। ऊपर जा कर देखा तो डर लगा। विचार बदल दिया। वापस नीचे आने को था तो पाया मेरे पीछे सीढ़ी पर तीन चार और चढ़ चुके थे । वो मुझे मारवाड़ी में ऊपर जाने को कह रहे थे। मैंने कहा मुझे नीचे उतरना है। वह बोले पहले ऊपर पहुँचो जिससे वो चढ़ पायें। कोई रास्ता नहीं था सिवाय ऊपर चढ़ने के। इतने में गाड़ी चल पड़ी। मैं छत पर आ चुका था। मेरे पीछे वाले भी छत पर आ चुके थे। पूरी गाड़ी की छत रंग बिरंगे पग्गड़ बांधे लोगो से भरी थी। बच्चे, युवा, बूढे सब तरह के लोग थे जो अपनी अपनी गठरी थामे बैठे थे। मैं कपलिंग के पास ही सीढ़ी की तरफ पैर लटका के बैठ गया जिससे डर लगने पर नीचे जा सकूँ। पर जैसे ही गाड़ी मुड़ी दोनों डिब्बे जो अब तक एक सीध में थे सीध में नहीं रहे। मुझे लगा यहाँ तो मैं नीचे जा गिरूँगा। सो बीच छत पर जाने में ही भलाई समझी।

गाडी गति पकड़ चुकी थी। वैसे तो छत पर यात्रा करने का यह मेरा तीसरा अनुभव था। पर पहली दो यात्रायें बहुत छोटी थी और दिन में की गई थी। छत पर बैठे बाकी यात्री इस तरह यात्रा के आदि लगते थे। चलती गाडी में जहां  मुझे बैठना मुश्किल हो रहा था, वह भाग रहे थे। एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे पर कूद कर चले जाते। आसमान में चाँद चमक रहा था। दोनों तरफ का जंगल उसकी रौशनी में नहाया हुआ था। पेड़ो पर जुगनू जग मग करते दीख पड़ते थे। तेज हवा चल रही थी जिसमें डीज़ल की गंध भरी थी। कभी कभी इंजन से गाड़े काले रंग के धुंए का गुबार उठता जो चाँद को आच्छादित कर देता था। पर पुनः चाँद चमक उठता था। चाँद हमारी गाड़ी के साथ साथ चलता प्रतीत होता था। हवा इतनी तेज थी कि कंधे पर लटका मेरा बैग उसके वेग से उड़ने लगता। मुझे लगा कि इसके साथ मैं भी नीचे गिर जाऊंगा। ये ख्याल आते ही सिरहन सी दौड़ जाती । अगर मैं गिरा तो मुझे सुबह तक तो कोई देख नहीं पायगा। और दिन में भी कौन आएगा यहाँ जंगल में । तो क्या मैं इसी जंगल में पड़ा रहूँगा? क्यों चढ़ा मैं छत पर इन सब की देखा देखी! इन्हें देखो कैसे भाग रहे हैं। मैनें बैग कंधे से उतार कर सामने रख लिया और कस के पकड़ के बैठ गया। मीटर गेज़ की गाडी की छत एक तो वैसे ही छोटी होती है। ऊपर से दोनों ओर से ढलाव लिए हुए। पकड़ने को कुछ होता नहीं है। गाड़ी की गति अब कम हो रही थी। शायद चुरू आ रहा था। मैंने सोच लिया यहाँ  उतर जाऊंगा। थोड़ी देर में चुरू आ गया। गाड़ी रुकते ही नीचे खड़ी भीड़ ने छत का रुख किया। मुझे कौन उतरने देता । लोग अभी भी सीढ़ी पर लटके थे। गाडी चल पड़ी थी और मैं छत पर ही था।

रात गहरा रही थी। नींद ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया था। मैं लेटना चाहता था। सीधा लेटता तो लुढक कर नीचे गिरने का भय था। कुछ और लोग भी आड़े लेटे थे अपनी गठरी सिर पर लगाये। मुझे पता था कि यदि मैं लेटा तो तुरंत सो जाऊँगा। मैंने बैठे रहना ही सुरक्षित समझा। तभी किसी ने बीड़ी सुलगाई। मानो आतिशबाज़ी हुई हो। बहुत सी चिंगारियां हवा में उड़ती दूर तक चली गई। कुछ लोग चिल्लाये कि बीड़ी बंद कर। मुझे तेज नींद का झोंका आया। लुढकने ही वाला था कि पास वाले ने थाम लिया। मरणा है क्या? वो चिल्लाया। मैंने सोच लिया कि क्या होगा गिर ही तो जाऊंगा। पर नींद अब बर्दाश्त से बाहर थी। मैं लेट कर सो जाना चाहता था बिना ये सोचे कि मेरा क्या होगा। मैं आड़ा लेट गया। कमर को कुछ आराम मिला । नींद को दूर रखने का मैं भरसक प्रयत्न कर रहा था।गाडी की गति पुनः धीमी हो रही थी। कौनसा स्टेशन है मुझे नहीं देखना था। बस , रुकते ही प्लेटफॉर्म पर कूद जाना था। मैं उठ कर बैठ गया। जैसे ही गाडी रुकी मैंने प्लेटफॉर्म पर छलांग लगा दी। मुझे नहीं याद चोट आई थी या नहीं। उठा, कपडे झाड़े, बैग से तौलिया निकाल वहीं प्लेटफॉर्म पर  बिछाया। जूते उतार, बैग का तकिया बना सो रहा। बेसुध।

रात को जान बचाने की चिंता ने पेपर को पीछे धकेल दिया था। अब जब जान बच चुकी थी पेपर फिर आगे आ कर खड़ा हो गया था। अभी 11 घण्टे है। कोशिश करूँ तो पेपर दिया जा सकता है। कदम स्टेशन मास्टर के कमरे की और बढ़ चले। बिना किसी भूमिका के मैंने अपना परिचय दिया और कहा मुझे दिल्ली जाना है।  कोई गाडी मिलेगी? उसने कहा थोड़ी देर में रेवाडी पैसेंजर जायगी ।  वहाँ से कोई गाड़ी मिल जायगी। उसने एक पोर्टर मेरे साथ कर दिया जो मुझे यार्ड में खड़ी गाडी तक ले गया। मैंने ऊपर की एक बर्थ ली और सो गया। आँख खुली तो गाड़ी भाग रही थी। नीचे लोगों का जमावड़ा था। एक तो ऊपर आकर मेरे पैरों के पास भी बैठा था। सुबह हो चुकी थी। मैंने पूछा , " रेवाड़ी आने में कितना समय लगेगा?" पता चला गाड़ी रेवाड़ी पहुँचने वाली थी। मैं नीचे उतर आया। रेवाड़ी पर जैसे ही उतरा , सामने के प्लेटफार्म से रेवाड़ी - दिल्ली पैसेन्जर चलने को तैयार थी। अँधा क्या चाहे - दो आँखे। भाग कर चढ़ गया।

कुछ ही घंटो में मैं सराय रोहिल्ला स्टेशन पर था। वँहा से सब्ज़ी मंडी रेलवे कॉलोनी तक का रास्ता पैदल तय किया। 12 बजे के आस पास घर पंहुचा। माँ अत्यधिक चिंतित थी। " कँहा रह गया था? गाड़ी कब की आ चुकी है। " मैंने कहा शाम को बात करता हूँ। जल्दी कुछ खाने को दो और रोल नम्बर दो। सेंटर शिवाजी कॉलेज में था। बस से समय पर पंहुच गया। सारे पेपर दिए। और विभागीय एवम् यूनिवर्सिटी दोनों परीक्षाओं में उत्तीर्ण भी हुआ।

पर आज सोचता हूँ कि एक परीक्षा के लिए इतना बड़ा जोखिम उठाना क्या ठीक था? शायद नहीं। पर अब तो सब इतिहास हो चुका है। समय की धूल भी जम चुकी है इन घटनाओं पर। स्मृतियां धुंधली हो चुकी है। समय की धूल झाड़ कर लिपिबद्ध करने का प्रयास कर रहा हूँ ताकि सनद रहे। कोहिनूर आज भी मेरे पास है। चाबी दो और चल पड़ती है। कहते हैं न हीरा है सदा के लिए।

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