चैत्र आते ही आँखे तलाशने लगती है उस छोटी सी चिड़िया और चिड़े को जो बरसों पहले इस मौसम मेँ नीड बनाते दिखा करते थे।तब मुझे नहीं मालूम था कि इसे गोरैया कहते हैँ। तब ये बहुतायत मेँ हुआ करती थीं । और आज आँखे बस तलाशती ही रह जाती हैँ। कँहा विलुप्त हो गई ये मासूम सी प्रजाति इस शहरीकरण मेँ! क्या कभी वापस आ पाएंगी या आने वाली पौध इनकी कहानियाँ किस्से बस नानी माँ से सुना करेंगे या किताबों में ही पढ़ा करेंगे।
मेरे मकान में छत पट्टियों की थी। उन के बीच में एक आड़ी लोहे की रेल पड़ी हुई थी ताकि छत का भार वह संभाल ले। उस रेल के बीच मेँ एक हुक लगा था जिस पर उषा का एक पंखा टंगा था। उस पंखे के ऊपर का कप रेल के कारण ऊपर तक नहीं जा पाता था। और यही जगह गोरैया ने चुन ली थी अपने नीड़ के लिए। इसके अलावा कमरे मेँ बने ताक और रौशनदान भी गोरैया की मनपसंद जगह थी। चैत्र से पहले ही नर और मादा जुटाने लगते थे तिनका तिनका। रस्सी का टुकड़ा हो या फूल झाड़ू के तिनके, पता नहीं कँहा कँहा से बीन कर लाते थे। रुई के फोहे भी मिल जाते तो उन्हें गुरेज़ नहीं था। बस एक आरामदायक नीड का निर्माण करना ही इन परिंदों का एक मात्र ध्येय था।
स्कूल की छुट्टियां पड़ जाती थी। मेरा काम इन के कार्य कलापो को ध्यान से देखने का होता था। चीं चीं कर के कमरे के जब ये पक्षी चक्कर लगाते, तो मुझे पंखा बंद करना पड़ता कि कहीं ये चलते पंखे की चपेट मेँ न आ जाएं। फिर भी एक दो घायल हो गिर पड़ते थे। जूते के पुराने डिब्बे मेँ रुई के पैल बिछा कर इन घायल पक्षियों को में उसमें रख देता। दाना पानी की व्यवस्था करता। और बिल्ली से बचा कर रखता। कुछ तो ठीक हो कर उड़ जाते और कुछ मर भी जाते। मुझे सदा ऐसा लगता कि मेरी देखभाल मेँ कमी के चलते ये पक्षी नहीं बच पाया।
दुःख तो तब भी होता जब इनके छोटे से चितकबरे अंडे नीचे गिर कर टूट जाते। बेचारे बिन बोलते पक्षी किससे अपनी व्यथा कहते। नीड़ सूना सा हो जाता।
समय आने पर इनके घोसलों से नन्हें पक्षियों की चेचाहट सुनाई देने लगती। भूखे बच्चे चीं चीं कर अपनी माँ को पुकारते। कमरे के कई चक्कर लगा सशंकित सी माँ चोंच में दाना ले आती। उचक उचक कर छोटी सी चोंच खोल कर ये नन्हे दाना मांगते। चोंच मेँ चोंच डाल कर माँ इन्हें खिलाती। मुझे यह सब देखने में बहुत सकून मिलता। माँ गोरैया को दूर न जाना पड़े इस लिए मेँ एक पात्र मेँ दाना आस पास ही रख देता। दाना पाने की होड़ मेँ एक दो नन्हें नीचे आ पड़ते। इतने ऊपर घोसलें मेँ तो उन्हें वापस पहुँचाया नहीं जा सकता था। हाँ, उसी जूते के डिब्बे वाले घर मेँ मैं उन्हें रख देता। पर ये निर्मोही गोरैया फिर उनकी सुध नहीं लेती थी। माँ कहती अब चिड़िया इन्हें नहीं ले जायगी क्योंकि तुम ने इन्हें छुआ है। इन में तुम्हारी गंध आ गई है। कारण चाहे जो भी हो, गोरैया इन बच्चों का परित्याग ही कर देती थी। बिना माँ की देखभाल के ये परित्यक्त बच्चे ज्यादा दिन नहीं जी पाते थे। मुझे माँ गोरैया पर बहुत क्रोध आता। पर कर क्या सकता था।
पंख आने पर माँ इन्हें उड़ना सिखाती। पहले तो कमरे मेँ ही नीचे ले आती। फिर चोंच मार मार कर उड़ाती। धीरे धीरे बच्चों को रोशनदान तक लाती। फिर चोंच से धक्का देती। कुछ दिनों मेँ ही बच्चे अपनी नैसर्गिक कला को निखार लेते। अब बारी आती बाहर की दुनियाँ मेँ आने की। बाहर आँगन की मुंडेर पर बैठे बच्चों मेँ और वयस्क गोरैया मेँ अन्तर करना अब मुश्किल हो जाता। चोंच से ही पता चलता था कि कौन बच्चा है और कौन वयस्क।
लगता अब घर सूना हो जायेगा। उड़ जायँगे ये पक्षी अपना जीवन जीने को। फिर अचानक एक शाम कोई नहीं लौटता नीड़ मेँ। न बच्चे, न ही उनके माता पिता। छत पर जाकर देखता तो खुले आकाश मेँ सैकड़ो गोरैया मंडराती दिखती। इनमें से मेरे घर वाली कौनसी है , यही सोचता। शाम को लिसोड़े के पेड़ पर यह पक्षी खूब शोर मचाते। फिर अचानक इनका शोर थम जाता। मानों सारे मिल कर वेद की ऋचाएँ पढ़ रहे थे। जो अब समाप्त हो गई है।
हर वर्ष जब भी चैत्र आता है मुझे गोरैया याद आती है। पर वो तो रूठ कर जा चुकी है। कभी न आने के लिए।
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