हम कौन हैं? कँहा से आये हैं? क्यों आये हैं? कँहा जायेगें? यँहा आने से पहले हम कँहा थे? इस संसार में इतनी विषमता क्यों हैं? यदि हम सब का पिता परमेश्वर है, तो वह अपने बच्चो के प्रति इतना उदासीन क्यों हैं? दुनिया में इतने पाप क्यों हो रहे हैं? आदि आदि प्रश्न हमें समय समय पर उद्वेलित करते रहते है। पर यह भी सत्य है कि करोडो व्यक्तियों में केवल कुछ ही इन प्रश्नों पर विचार करते हैं। अधिकतर तो इस बारे में सोचते ही नहीं। उनके पास खाने, सोने और काम में लिप्त रहने के अलावा इन प्रश्नों पर विचार के लिए समय ही नहीं है। ऐसे लोगो के लिए जीवन का एक ही उद्देश्य है - खाओ, पियो और मौज करो। उनके लिए जीवन स्त्री पुरुष के रज और शुक्राणु के मिलने के कारण है। न इस जन्म से पहले ये जीवन था न बाद में होगा। उनका मानना है कि जन्म बस एक जैविक प्रक्रिया ही है।पर क्या ऐसा है? आइये इस पर विचार करें।
प्रथम प्रश्न- हम कौन है? हम निश्चित रूप से ये देह नहीं हैं। हम इस देह में रहने वाले उस परमपिता परमेश्वर के अंश है। अंशी होने के कारण उस के सभी गुण न्यून रूप में हम में भी हैं। हम देही हैं। ये देह जड़ है और हम चेतन हैं।ये देह आत्म तत्व की इसमें उपस्थिति के कारण ही कार्य कर पा रहा है। आत्मा की उपस्थिति ही इसकी इंद्रियों को चेतनता प्रदान किये हुए है। आत्मा तत्व निकलते ही ये देह जड़ हो जाता है। सड़ने लगता है। अपनी सारी शुचिता खो देता है। इससे सिद्ध होता है कि हम यह देह नहीं हैं। हम इस देह में रहने वाले, इसे संचालित करने वाले आत्म तत्व है। देह परिवर्तित होता रहता है पर आत्मा सदा एक सी रहती है। जो यह बचपन में होती है वही ये वर्द्धवस्था में होती है। जन्मना, बढ़ना और नष्ट हो जाना देह के गुण धर्म है। आत्मा के नही।आत्मा इनसे परे एक रूप,अविनाशी, अभेध्य और सनातन है।
दूसरा प्रश्न - हम कँहा से आये हैं? और कँहा जायेंगे ? दैनिक जीवन में भी प्रत्येक व्यक्ति का एक घर होता है, ठिकाना होता है। वो जँहा कँही भी जाता है, वंही से जाता है। और वंही लौटता है। इसी प्रकार आत्मा भी अपने घर से चली हुई है, जो प्रभु का निवास स्थान है।ये अनन्त यात्रा की पथिक है। विभिन्न योनियों में यात्रा कर रही है। उन उन देहों को अपना स्वरूप मानकर उनके सुख दुःख भोग रही है। जिस दिन इसे अपना स्वरूप समझ आ जायेगा ,उस दिन ये पुनः अपने घर वापस पंहुच जायगी। तब तक ये जीव रूपी पथिक माया के इस घोर जंगल में भटकता रहेगा। हम इस जन्म से पूर्व कितने ही देह धारण कर चुके हैं। कितने ही माता पिता, पत्नी, पुत्र, पुत्रियाँ और सम्बन्धी छोड़ आएं हैं। आज हमें उनकी याद तक नहीं कि वो जीवित है या नहीं। जीवित हैं तो किस हाल में हैं । हम बस इस जन्म के सम्बन्धियों के बारे में चिंतित है।
तीसरा प्रश्न- यंहा आने से पहले हम कँहा थे? हम सब अपने घर में थे। और घर से निकल कर आज तक विभिन्न योनियों में थे। और फिर अपने घर ही लौटना है।अगला प्रश्न- ये संसार इतना विषम क्यों है? ये जो विषमता दीख पड़ती है ये जीवों के कर्मों के कारण है। वरना प्रभु तो सम हैं। उनके बनाये संसार में विषमता का क्या काम है?
अगला प्रश्न प्रभु की उदासीनता को लेकर है। प्रभु न तो किसीको सुख देते है और न ही दुःख। सभी प्राणी अपने अपने कर्मों का फल भोग रहे है। प्रभु इसमें हस्तक्षेप नहीं करते हालाँकि वह इसमें सक्षम है। मनुष्य के अतिरिक्त सभी योनियां भोग योनियां कही गई हैं। केवल मनुष्य मात्र में नए कर्म करने की सामर्थ्य दी है प्रभु ने। शुभ कर्म करके मनुष्य उत्तरोत्तर गति पा सकता है। और अशुभ कर्म करके अधो गति को प्राप्त हो सकता है। इसीलिये कहा गया है आत्मा ही अपना मित्र है और आत्मा ही अपना शत्रु भी।
अंतिम प्रश्न था कि दुनियां में इतने पाप क्यों हो रहे हैं? ये तो कलियुग का प्रभाव है। इसके प्रभाव से धर्म के चार चरणों में से अब एक ही बचा है। अधर्म के कारण ही पाप कर्मों की बढ़ोतरी हो रही है। और मेरा तो मानना है कि प्रभु को भी ऐसा ही अभीष्ट है क्योंकि उनकी इच्छा के बिना कुछ नहीं होता। इससे बचने का एक ही उपाय है और वो है प्रभु शरणागति। प्रभु शरण में गया व्यक्ति इस पाप से भरे संसार में भी कीचड़ में कमल की तरह निर्लिप्त रह सकता है, इसमें कतई भी संदेह नहीं है।
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