Monday, 21 November 2016

अजनबी शहर के अजनबी लोग

ये सड़के जो चलती नहीं फिर भी सैकड़ो लोगो को इधर उधर ले जाती है। सुबह से शाम या फिर आधी रात, ये अनगिनत लोगो को इधर से उधर पंहुचती रहती हैं। कितने वाहन, कितने लोग न जाने कँहा से प्रकट हो जाते हैं दिन उगते ही। फिर दिन छिपने के साथ न जाने कँहा लुप्त हो जाते हैं। इन भागते दौड़ते लोगों में से हर एक की एक कहानी है। पर न तो कोई सुनाने वाला है और न ही कोई सुनने वाला। बस सब भाग रहे हैं। भागे ही जा रहे हैं। निराशा, क्रोध, अनिश्चितता से भरे हुए। बात बात में झगड़ने को तैयार, जान लेने पर उतारू। बोलते हैं तो गालियों के फूल झड़ते हैं। इस तथा कथित सभ्य समाज के असभ्य लोग। सड़क पर सर्कस करते, यातायात नियमो की धज़्ज़िया उड़ाते, न जाने कँहा चले जा रहे हैं। मेरी दिल्ली ऐसी तो न थी। ये कँहा जा रहे हैं हम? लगता है यँहा सब अजनबी हैं। मुखोटे पहने हुए। कोई कैसे पहचानेगा अपनों को इस भीड़ में। ये कँहा आ गए हैं हम ? इन पंक्तियों ने क्या खूब बंया किया है;

इन उम्र से लंबी सड़को को मंज़िल पे पँहुचते देखा नहीं। बस दौड़ती फिरती रहती हैं, हमने तो ठहरते देखा नहीं। इस अजनबी से शहर में जाना पहचाना ढूंढता है।
एक अकेला इस शहर में.....

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