Sunday, 23 April 2017

माँ का चले जाना

ये कहानी है, महानगरों में फैली असंवेदनशीलता की। ये कहानी है, व्यक्ति की मज़बूरी का फायदा उठाने की। ये कहानी है, समाज मे व्याप्त भ्रष्टाचार  की। इन सब के बीच ये कहानी है, कुछ अच्छे मित्रों की जो बुरे समय में आपके साथ कन्धे से कन्धा  मिला कर खड़े हो जाते हैं - निःस्वार्थ।

8 अगस्त 1997 - आज का दिन भी आम दिनों की ही तरह था। रोज की भांति मैं समय से ऑफिस चला आया था। भाई भी अपने अपने काम पर निकल गए थे। पापा ने भी रिटायरमेंट के बाद समय काटने को कुछ जॉइन कर लिया था। राखी का त्योहार आने वाला था। दोपहर के समय मैंने पत्नी से बात करने को फोन किया। मैं तकरीबन रोज ही फ़ोन करता था - यह जानने को कि बच्चे स्कूल से आ गए या नहीं। उस दिन फ़ोन माँ ने उठाया था। उन्होंने कहा कि बच्चे आ गए हैं और पत्नी राखियां लेने चांदनी चौक गयी है। वँहा दरीबा के किनारी बाजार में सुन्दर राखियां मिलती थी। थोड़ी देर माँ से इधर उधर की बात करके मैंने फोन रख दिया। मुझे कँहा मालूम था कि माँ से मेरी वो अंतिम बातचीत थी।

शाम 6:30 पर मैं नित्य की भांति स्कूटर से घर लौटा। पत्नी दरवाज़े पर ही खड़ी थी। चिन्ता की रेखाएं उसके चेहरे पर साफ़ झलक रही थी। उसने कहा कि माँ बाजार सब्ज़ी लेने गई थी। दो घँटे से ऊपर का समय हो गया है पर वह लौटी नहीं थी। मैंने कहा आती ही होंगी , कँही किसी के घर रुक गयी होंगी। पर उसकी चिंता नही मिटी। मैंने स्कूटर वापस मोड़ा और सब्जी बाज़ार चल दिया। पूरा सब्ज़ी बाजार एक छोर से दूसरे छोर तक देखा। माँ कंही न थी। वापस घर आया -  इस आशा से कि शायद अब तक घर आ गई होंगी। पर वह नहीं आईं थी। कँहा जा सकती हैं? अब मुझे भी चिन्ता हो रही थी।

पड़ोस में उनकी एक सहेली रहती थी। मैं वँहा गया। वह महिला बाहर ही मिल गईं। बोलीं बहनजी यँहा तो नहीं आईं । अब मैं पुनः सब्ज़ी बाजार जा पँहुचा। कुछ सब्ज़ी वाले उन्हें पहचानते थे और चूंकि कई बार मैं उनके साथ होता था , मुझे भी जानते थे। उन्होंने बताया कि माता जी तो आज सब्ज़ी लेने आई ही नहीं।

मेरा दिल तेज़ी से धड़क रहा था। कुछ अनहोनी की आशंका हो रही थी। शाम ढलने लगी थी। बाहर सड़क किनारे खड़े फल वालों से मैंने हिम्मत कर के पूँछा कि यहां कोई दुर्घटना हुई थी क्या? और मानो बिजली गिरी हो। पता चला कि एक अधेड़ उम्र की महिला को सड़क पार करते हुए एक स्कूटर वाले ने   टक्कर मार दी थी। मेरे पैर काँपने लगे थे। उसने कहा सामने जो दर्ज़ी है वह विस्तार से जानता है। मैं उससे पता करूँ।

मन अभी भी कह रहा था कि वह कोई और ही महिला होगी। दर्ज़ी ने पहले मुझे पानी दिया। फिर बताया कि दो लड़के जो स्कूटर पर थे, उन्होंने टक्कर मारी थी। लोगो ने उनका स्कूटर वंही रख लिया था और उन्हें उन्हीं के साथ ऑटो रिक्शा में बाड़ा हिंदूराव अस्पताल भेजा था। उसने बताया कि महिला के सिर पर चोट लगी थी और वह बेहोश थी। एक थैला उसने मुझे दिया जिसमें एक पर्स था- ये कहते हुए कि ये उनका सामान था। माँ का पर्स में अच्छी तरह से पहचानता था। अब तो शक की कोई गुंजाईश ही नहीं थी। मैं जल्दी से घर लौटा और पत्नी से तैयार होने को कहा। कुछ जरूरी कपड़े, तौलिया आदि लेकर हम दोनों बाड़ा हिंदूराव पँहुचे। सोचा था कुछ चोट होगी कुछ दिन में ठीक हो जाएंगी।

अस्पताल से पता चला कि कोई ऑटो रिक्शा वाला उन्हें वँहा लाया था। बाद में ऑटो रिक्शा वाले ने बताया था कि वह दोनों लड़के माँ को ऑटो में ही छोड़कर रास्ते में भाग गए थे और बेहोश माँ चलते ऑटो की पिछली सीट पर ही लुढ़क गयीं थी। ऑटो वाला जैसे तैसे उन्हें अस्पताल तक लाया था।

डॉक्टर ने यह भी कहा कि वह न्यूरो का केस था और हालत अच्छी नहीं होने से उन्हें एम्बुलेंस से राम मनोहर लोहिया अस्पताल भेज दिया गया था। ऑटो वाले की गाड़ी का नम्बर लेकर हम दोनों राम मनोहर लोहिया अस्पताल जा पँहुचे। पर तब तक तो माँ जा चुकी थी सदा के लिए। उन्हें एक लावारिस के तौर पर  भर्ती किया गया था।

मैंने उनकी पहचान की।  कुछ कागज़ साइन किये और मैं बाहर आ गया। अब तक जिस आशा से भाग रहा था वह टूट चुकी थी। मैं और मेरी पत्नी वंही सीढ़ियों पर बैठ गए और मैं  रोने लगा। पत्नी भी सुबक रही थी। पता नहीं हम कब तक आंसू बहाते रहे। माँ ऐसे चली जायेगी ये न सोचा था। इतने लोगों में से जो वहाँ थे एक ने भी आकर ये नहीं पूँछा कि हम क्यों विलाप कर रहे थे। काफी देर बाद मैं उठा । मैंने स्कूटर स्टार्ट किया और जैसे तैसे चलाते हुए हम घर आ गए।

तब तक सभी काम से लौट चुके थे। समाचार मिलने पर पूरा घर शोकाकुल हो गया। कुछ मित्रों तक खबर की। आनन फानन में सभी मित्र आ जुटे। आस पास के रिश्तेदार भी जुट गए। चाचा जी और उनका परिवार भी आ गया था । कुछ समझ नहीं आ रहा था। बच्चे जिन्होंने दादी का स्नेह पाया था एकदम सहम गए थे। उन्हें भी  समझ नहीं आ रहा था कि क्या प्रतिक्रिया करें।अगले दिन का कार्यक्रम तय करके मित्र गण चले गए। सबने बिना कहे अपना अपना कार्य ले लिया था।

रात गहराने लगी थी। जिसको जँहा स्थान मिला वंही लेट गया। मैं आँगन में बान की खुरहरी खाट पर जा लेटा। आसमान तारों से भरा था। नींद आस पास भी नहीं थी। अब कैसे होगा - यही सोच रहा था। न जाने कब आँख लगी। रात के सन्नाटे को चीरती टेलीफोन की घण्टी से मैं हड़बड़ा कर उठ बैठा। रात के 2 बज रहे थे। फ़ोन उठाया । लाइन पर शोर था। पर मैंने स्पष्ट सुना दूसरी और से आती माँ की आवाज़ को। वह मेरा नाम ले कर बोल रही थीं। फिर लाइन कट गई। ये सब क्या है? शायद मुझे भ्रम  हुआ था। माँ कैसे बोल सकती थी? मैं वापस आ कर लेट गया और अपने को मानसिक रूप से सुबह के लिए तैयार करने लगा। शेष रात्रि आंखों में कट गई । लग रहा था कि कोई दुःस्वप्न चल रहा है। आँख खुलेगी और सब ठीक हो जाएगा। पर ये तो यथार्थ था।

भगवान अंशुमाली अपने वक्त पर उदय हो गए थे पर यह सुबह बहुत उदास थी। पड़ोसी चाय बना कर ले आये थे पर चाय किसके गले से उतरती? 8 बजते न बजते मैं राम मनोहर लोहिया अस्पताल के मुर्दा घर में खड़ा था। यह एक भयावना अनुभव था और वही समझ सकता है जो कभी इससे गुज़रा हो। पता नहीं कँहा से हिम्मत बटोर कर मैं अंदर गया था। वो सब इंस्पेक्टर जो यह केस देख रहा था वह  भी वंही आ गया था।

सारी कागज़ी कार्यवाही के बाद भी शव मिलने में विलम्ब हो रहा था। मैंने अपने मित्र से कहा कि पता करो क्या देरी है। उसने आकर बताया कि वँहा तैनात पुलिस वाला और सफाई कर्मचारी पैसे मांग रहे हैं। मुझे क्रोध तो बहुत आया पर अपने आप को संयत रखते हुए मैंने उनसे कहा कि कम से कम यँहा तो यह सब छोड़ दो। उसने उदण्डता से जवाब दिया कि जब तुम्हारे घर मे शादी-विवाह होता है तो क्या हमें कार्ड देने आते हो? अरे यँहा तो सब शव लेने ही आते है। हम और किससे लेंगे?  मेरे पास उत्तर नहीं था और न ही मैं झगड़ने के मूड में था। मैंने अपने मित्र से कहा जो मांगते है इनके मुँह पर मारो। तब जाकर हमें शव दिया गया।

शव वाहन से शव के साथ हम बर्फ खाने के पोस्टमाटर्म गृह आये। वँहा पता लगा कि पहले ही तीन शव इन्तज़ार कर रहे थे। शनिवार को आधा दिन ही काम होना था। आज पोस्टमॉर्टम सम्भव नहीं होगा। फिर अगले दिन रविवार की छुट्टी थी। तो सोमवार से पहले सम्भव नहीं होगा। क्या किया जाय? पिता जी जो घर पर थे बहुत विचलित थे। वह तो पोस्टमॉर्टम कराने के ही पक्ष में नहीं थे। मित्रों ने कहा पोस्टमॉर्टम आज ही हो जाएगा ।एक ही तरीका था- घूस और मैं इस पक्ष में नहीं था। पर मुझे बाहर बैठा कर वह अंदर चले गए । पता नहीं उन्होंने कितना पैसा किसे दिया पर माँ का पोस्टमार्टम कुछ ही  घन्टे में सम्पन्न कर हमें शव दे दिया गया। तब जाकर हम उनकी अंतिम क्रिया सम्पन्न कर पाए।

उसके बाद शुरू हुआ पुलिस और अदालतों का चक्कर। उस व्यक्ति को तो दुर्घटना वाले दिन ही पकड़ लिया था और थाने से जमानत भी हो गई थी। दो  महीने बाद भी पुलिस केस दाखिल नहीं कर पा रही थी। कारण था पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट न मिल पाना। हम कई चक्कर लगा चुके थे पर सब व्यर्थ। मैंने अपने एक मित्र को भेजा कि डॉक्टर आखिर रिपोर्ट क्यों नहीं दे रहा था। उसने आकर बताया कि डॉक्टर कुछ चाहता है पर साफ़ साफ़ नहीं बता रहा है। मैंने कहा दे दा के रिपोर्ट ले लो। उसने अगली बार साफ साफ ही पूंछ लिया कि क्या सेवा करूँ? डॉक्टर ने एक 5 लीटर पानी के  मयूर जग की माँग रखी। कहा  यंही रखवाना है । आप चाहें तो उस पर स्वर्गीय माता जी का नाम लिखवा सकते हैं। माँग बहुत बड़ी नहीं थी। उसने आज़ाद मार्किट से जग खरीदा और डॉक्टर को भेंट किया व रिपोर्ट ली। तब जाकर अदालत में हमारा केस फाइल हो सका। इस बीच जांच अधिकारी को तो छोटे भाई द्वारा कितने घी और मक्खन दिए गए इसकी तो गिनती ही नही है।

काफी प्रयत्न के बाद भी कोई व्यक्ति चश्मदीद गवाह बनने को तैयार नहीं हुआ। कई वर्ष केस चलने के बाद वह व्यक्ति कोई भी चश्मदीद गवाह न होने से छूट गया।

आज उस घटना को बीस वर्ष होने को आये। इन बीस वर्षों में बहुत कुछ बदल गया। बहन का, छोटे भाई का औऱ बेटियों का भी विवाह हो गया। मेरी भी उम्र होने को आई। पिताज़ी को दो बार ह्रदयघात हुआ। वक्त ने उन जख्मों को भी बहुत हद तक भर दिया जो माँ के अचानक चले जाने से गहरे लगे थे। पत्नी ने माँ का स्थान ले पूरे घर की जिम्मेदारी कब कर के ओढ़ ली पता ही नही चला। पर आज भी माँ की तिथि पर जब मैं मंदिर जाता हूँ पुराने ज़ख्म टीसने लगते हैं। राखी का त्यौहार जब भी आता है उन सारी स्मृतियों को साथ खींच लाता है। मानसून के मेघ भी उन्हीं स्मृतियों को पुनः भिगो जाते हैं जो बड़ी मुश्किल से कुछ शुष्क हुई होती हैं। चाह कर भी इन स्मृतियों को मैं अपने मस्तिष्क पटल से नहीं मिटा पाता हूँ।

माँ अभी भी कभी कभी स्वप्न में दिखती है। मैं यह
जानता हूँ, वह जँहा भी है सुखी है । क्योंकि उस लोक की दुनियां इस लोक जितनी ह्र्दयहीन तो कदापि नही होगी।

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