आज के बच्चों के टिफिन बॉक्स देखकर मुझे अपनी छठी क्लास का टिफिन याद हो आया। पिछले दिनों के अखबार के पन्ने में लिपटा एक परांठा जिसके बीच में एक सूखी आम के अचार की एक छोटी सी फांक रखी होती थी। कभी कभी आधा करेला लिपटा रहता था। उसी को नेकर की जेब में रख लिया तो हो जाता था टिफिन तैयार। भागते दौड़ते माँ पकड़ना कभी नहीं भूलती थी। चौथा पीरियड बड़ी मुश्किल से कटता था क्योंकि तब तक पेट में चूहे उछल कूद करने लगते थे। जैसे ही टन टन टन घंटी बजती हम क्लास से ऐसे भागते मानो जेल से छूटे हो। धड़ धड़ धड़ दो दो सीढ़ियाँ लांघते जा पँहुचते थे छत पर। वँहा टूटी डेस्को का कबाड़ पड़ा रहता। तेज हवा में धूल उड़ती रहती। हाथ तो कोई धोना ही नहीं जानता था क्योंकि नीचे एक मात्र नल पर पानी पीने वालों की इतनी लंबी लाइन होती कि यदि वँहा खड़े हुए तो रिसेस तो वंही खड़े खड़े खत्म हो जाती। नेकर की जेब से लिपटा परांठा निकाला, अखबार का कागज़ नीचे फेंका और लंच शुरू। अचार के तेल से पूरा परांठा भर जाता। उसकी खुशबू के साथ मिली होती अखबार के कागज़ की स्याही की महक। रही सही कसर उड़ती धूल पूरा कर देती। वही किरकिरा परांठा एक एक ग्रास के साथ जो तृप्ति देता था वो आज के छत्तीस व्यंजनों में भी नहीं मिल सकती। परांठा अधिक से अधिक 4-5 ग्रास में समाप्त हो जाता। हाथ झाड़े और सिर से पोंछ लिए। रुमाल तब कँहा था हमारे पास। बचे खुचे समय में खेलना भी तो होता था। फिर लगती थी नीचे भागने की दौड़। पानी की लाइन अभी भी कम नहीं होती थी। कौन उसमें समय खराब करे। और हम दौड़ पड़ते थे एक नया खेल खलने को।
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