सर्दियों की सुबह। मन्द पड़ा सूरज उग तो आता था समय पर किंतु अपना तेज़ कंही पीछे छोड़ दिया करता था। सर्द वातावरण में नीले ब्लेज़र का कोट पहने दोनों हाथ उसकी जेब मे डाले मैं बाहर आ जाता। एक जेब में खूब भुनी मूंगफलियां भरी रहती। एक एक कर उन्हें छीलता और पतला छिलका उतार कर गुलाबी दाने दूसरी जेब में भरता मैं चलता जाता । सामने के पेड़ों से छन के आती कुनकुनी सी धूप की किरणों में उड़ते धूल कण तैरते दीखते। सर्दियों की वो महक जो घास और पौधों से उठती सुबह को और भी मादक कर देती। भूसे भरी बैल गाड़ियां सामने से लदी चली आती। भूसे के कण हवा में तैरने लगते। कम्बल लपेटे गाड़ीवान गुड़मुड़ी बांधे बैठे रहते। बोरियां ओढे बैल बिना हाँके ही चलते रहते - मद्धम चाल से। एक के पीछे एक कतार में चली आती बैल गाड़ियां। आगे चबूतरों पर कुछ बुजुर्ग इकट्ठा हो हुक्का गुड़गुड़ाते। एक ही हुक्का सबके पास घूम जाता। उम्र के चिंन्ह उनके काले मुख पर गहरी पड़ गयी झुर्रियों में साफ़ दीखते। मैली सी धोती पहने, सर पर पग्गड़ रखे, कम्बल ओढे न जाने वो किस विषय पर बतियाते रहते। कुछ मोटे से चश्मे के पीछे से अख़बार पढ़ते इतनी तन्मयता से जैसे मानो सारा ज्ञान इन्हीं पन्नों में सिमटा हो। धर्म कांटे पर तुलते ट्रक एक एक कर के आगे बढ़ सड़क पर आ जाते और चल देते अपने अपने गंतव्य की ओर। मेरे बचपन की सर्दियों की सुबह ऐसी ही कुछ होती थी।
Thursday, 27 July 2017
Sunday, 23 July 2017
बदलता शहर, बदलते लोग
आज ऑफिस जाते समय एक ट्रक के रास्ते में डिवाइडर पर चढ़ कर रात में उलटने के कारण यातायात बाधित था। ड्राइवर ने गाड़ी मुख्य सड़क से हटा कर साइड वाली सड़क पर ले ली। अब हम यमुना के साथ साथ चल रहे थे। यमुना साफ दृष्टिगोचर हो रही थी। पानी चढ़ा हुआ था पर उफान पर नहीं थी। साथ ही एक चेतावनी बोर्ड लगा था - "जल स्तर बढ़ा हुआ है। आगे पानी गहरा है। जान जा सकती है।" जैसे ही हम आगे बढ़े, दायीं ओर को फ्लाईओवर के नीचे से सड़क मुड़ रही थी। उस सड़क पर जाते ही लगा कि ये जगह जानी पहचानी है। जल्द ही याद आ गया कि ये तो वही रास्ता है जो कभी नावों के पुल से यमुना पार करा कर लाता था। अरे, कितना बदल गया है सब कुछ पिछले 30-35 वर्षों में। कभी ये मार्ग कच्चा हुआ करता था। इस पर लाल बालू बिछी होती थी। दोनों और खेती होती थी। खेत की टूटी ताज़ी सब्ज़ियां बेचते लोग दोनों तरफ़ बैठे होते। साइकलों पर ऑफिस से वापस आते लोग रूक कर सब्ज़ियां लेते और आगे लगी टोकरी में रख लेते। बड़े बड़े पत्तों वाली ताज़ी मूली को पीछे लगे कैरियर में दबाते औऱ चल पड़ते अपने अपने नीड़ की ओर - यमुना के उस पार। ये सब सोच ही रहा था कि कार तब तक विजय घाट, जो लाल बहादुर शास्त्री जी की समाधी है , उस के ठीक सामने बनी सड़क पर आ गयी। बहुत वर्षों बाद विजय घाट को इतने नज़दीक से देखा। चंहु और - भीतर बाहर हरियाली ही हरियाली थी। अमर लता की पीली बिन पत्तो की बेल पौधों पर अपना एकछत्र साम्राज्य स्थापित कर चुकी थी। अंदर भी घास बड़ी हो गई थी। मेरा मन किया कि यंही रुक कर कुछ देर यही सब निहारूँ। पास जा कर हाथ से छुऊँ। नासिका में इसकी महक भर लूँ। कभी ये सड़क ऑफिस जाते साईकिल चालको से भरी रहती थी। आज इस पर कुछ वाहन हैं। पर इस पर बिखरी शान्ति आज भी कुछ कुछ वैसी सी है। कार की गति शायद विचारों की गति से ज्यादा थी। कब करके मैं शान्ति वन - नेहरू जी की समाधी के सामने आ गया, पता ही नहीं चला । अब तो मैं मुख्य रिंग रोड पर था जो मेरा रोज़ का मार्ग था। पीछे छूट चुका था विजय घाट और उससे जुड़े वर्ष। मन न जाने कैसा कैसा सा हो आया था। काश समय लौट सकता! देखते देखते दिल्ली कितनी बदल गयी है। और बदल गए है यँहा के निवासी। संवेदन हीन, प्रकृति से दूर, रोगों के नज़दीक, पाश्चात्य संस्कृति के दीवाने। कितना सरल था जीवन उस समय। कितना जटिल बना दिया है हमनें।
अब तो यादें शेष है । कंक्रीट के जंगल में यमुना कब तक बहेगी। एक दिन तो तंग आकर अपना पथ बदलेगी ही। और वह दिन दूर नहीं है।
Monday, 17 July 2017
सावन की पहली फुहार
आज लगता है सावन प्रारम्भ हुआ है। रिमझिम रिमझिम बरस गई बदरी जो बिन बरसे उड़ जाती थी। ऑफिस की खिड़की से देखता रहा कुछ देर। मन हुआ जा कर भीग जाऊँ - ऊपर से नीचे तक। पर मन तो बावरा है। अभी भी समझता है कि मैं वो ही बालक हूँ जो मूसलाधार वर्षा में, बस्ता मोमजामे में लपेट पीठ पर टांक, जूते हाथ में लिए निकल पड़ता था स्कूल से झपाक झपाक पानी उड़ाता, इस बात से बेपरवाह कि कोई गटर खुला हो सकता है रास्ते में। साथ से निकलता वाहन यदि पानी से नहला जाता तो मन खिल उठता। कापी के कितने ही पन्ने नाव बनाने में भेंट चढ़ जाते।
बावरा मन देखो फिर कँहा ले गया! अब ये सब संभव है क्या? फाइलों को काला पीला करते, वित्त के जोड़ बाकी करते बस खिड़की से देख ही सकता हूँ। पेड़ कितने हरे लगते है धुल कर। सोचा था शाम तक बरसा तो भीग कर घर लौटूंगा। पर अब तो धूप निकल आई है। राजघाट के सामने से दौड़ती गाड़ी पेड़ो की कतारों के बीच से निकली चली जा रही है। आसमान पर स्लेटी रंग के बादलों का डेरा है। कँही कँही सफेद बादल भी तैर रहे है। लाल किले की दीवार के पीछे से सूर्य चमक रहा है। पर वो तेज नहीं है चमक में। लाल किले का पत्थर भी कितना साफ और धुला धुला सा लग रहा है।
कल शायद फिर से बरसे। सन्ध्या उतर रही है तुलसी के ऊपर जल्द ही दीप जलेगा। मोबाइल की बैटरी समाप्ति पर है। घर भी नज़दीक ही है। आज की सन्ध्या आप सभी को शुभ हो।