आज लगता है सावन प्रारम्भ हुआ है। रिमझिम रिमझिम बरस गई बदरी जो बिन बरसे उड़ जाती थी। ऑफिस की खिड़की से देखता रहा कुछ देर। मन हुआ जा कर भीग जाऊँ - ऊपर से नीचे तक। पर मन तो बावरा है। अभी भी समझता है कि मैं वो ही बालक हूँ जो मूसलाधार वर्षा में, बस्ता मोमजामे में लपेट पीठ पर टांक, जूते हाथ में लिए निकल पड़ता था स्कूल से झपाक झपाक पानी उड़ाता, इस बात से बेपरवाह कि कोई गटर खुला हो सकता है रास्ते में। साथ से निकलता वाहन यदि पानी से नहला जाता तो मन खिल उठता। कापी के कितने ही पन्ने नाव बनाने में भेंट चढ़ जाते।
बावरा मन देखो फिर कँहा ले गया! अब ये सब संभव है क्या? फाइलों को काला पीला करते, वित्त के जोड़ बाकी करते बस खिड़की से देख ही सकता हूँ। पेड़ कितने हरे लगते है धुल कर। सोचा था शाम तक बरसा तो भीग कर घर लौटूंगा। पर अब तो धूप निकल आई है। राजघाट के सामने से दौड़ती गाड़ी पेड़ो की कतारों के बीच से निकली चली जा रही है। आसमान पर स्लेटी रंग के बादलों का डेरा है। कँही कँही सफेद बादल भी तैर रहे है। लाल किले की दीवार के पीछे से सूर्य चमक रहा है। पर वो तेज नहीं है चमक में। लाल किले का पत्थर भी कितना साफ और धुला धुला सा लग रहा है।
कल शायद फिर से बरसे। सन्ध्या उतर रही है तुलसी के ऊपर जल्द ही दीप जलेगा। मोबाइल की बैटरी समाप्ति पर है। घर भी नज़दीक ही है। आज की सन्ध्या आप सभी को शुभ हो।
No comments:
Post a Comment