Thursday, 27 July 2017

बचपन की सर्दियों की एक सुबह

सर्दियों की सुबह। मन्द पड़ा सूरज उग तो आता था समय पर किंतु अपना तेज़ कंही पीछे छोड़ दिया करता था। सर्द वातावरण में नीले ब्लेज़र का कोट पहने दोनों हाथ उसकी जेब मे डाले मैं बाहर आ जाता। एक जेब में खूब भुनी मूंगफलियां भरी रहती। एक एक कर उन्हें छीलता और पतला छिलका उतार कर गुलाबी दाने दूसरी जेब में भरता मैं चलता जाता । सामने के पेड़ों से छन के आती कुनकुनी सी धूप की किरणों में उड़ते धूल कण तैरते दीखते। सर्दियों की वो महक जो घास और पौधों से उठती सुबह को और भी मादक कर देती। भूसे भरी बैल गाड़ियां सामने से लदी चली आती। भूसे के कण हवा में तैरने लगते। कम्बल लपेटे गाड़ीवान गुड़मुड़ी बांधे बैठे रहते। बोरियां ओढे बैल बिना हाँके ही चलते रहते - मद्धम चाल से। एक के पीछे एक कतार में चली आती बैल गाड़ियां। आगे चबूतरों पर कुछ बुजुर्ग इकट्ठा हो हुक्का गुड़गुड़ाते। एक ही हुक्का सबके पास घूम जाता। उम्र के चिंन्ह उनके काले मुख पर गहरी पड़ गयी झुर्रियों में साफ़ दीखते। मैली सी धोती पहने, सर पर पग्गड़ रखे, कम्बल ओढे न जाने वो किस विषय पर बतियाते रहते। कुछ मोटे से चश्मे के पीछे से अख़बार पढ़ते इतनी तन्मयता से जैसे मानो सारा ज्ञान इन्हीं पन्नों में सिमटा हो। धर्म कांटे पर तुलते ट्रक एक एक कर के आगे बढ़ सड़क पर आ जाते और चल देते अपने अपने गंतव्य की ओर। मेरे बचपन की सर्दियों की सुबह ऐसी ही कुछ होती थी।

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