Monday, 14 August 2017

बच्चों की नानी का घर

बच्चों की नानी के घर का नीम का बरुआ भी बच्चों के साथ साथ बड़ा हो गया है। छोटा सा पौधा आज तीसरी मंजिल की बालकॉनी में आ कर झूम रहा है। बच्चे जब छोटे थे , नाना जी के साथ सुबह की सैर पर निकल जाते थे और नीम से दातुन तोड़ लाते थे। आज जब नीम स्वयं ही दातुनों की सौगात ले घर में ही खड़ा है तब न तो नाना जी ही रहे और बच्चे तो पंख आते ही उड़ गए दूर दराज़ के शहरों में, देश-विदेश में।

पास के मकानों के साथ लगे पौधे  भी पूरे परिपक्व हो दरख़्त बन गए है। पास की इमारतें और ऊंची हो गयी हैं। छत से जो पहाड़ो का सौंदर्य दीखता था कुछ कुछ इनकी ऊंचाई से बाधित हो गया है। नीचे की सड़क पर जो शांति विराजती थी अब नहीं रही। वाहनों का बेतरतीब शोर, हॉर्न की आवाजें उसे कब की खा चुकी है। आस पास मॉल बन चुके है। सारे दिन, विशेषकर शाम को यँहा जमघट लगा ही रहता है।

30-32 वर्ष पहले यँहा आ कर जो सुकून मिलता था अब नदारद है। आस पास की इमारतों पर विशालकाय मोबाइल टावर दशहरे के रावण के पुतलों की तरह खड़े हैं। कितने ही रावण दहन हो गए पर ये रावण तो और बढ़ते ही जा रहे है। गोरैया यँहा भी अब बहुत कम दिखती हैं।

पास से निकलती रेल की पटरी अभी भी वंही है। इस पर जब गाड़ी निकलती है मुझे आज भी अच्छा लगता है। रेल पटरी के किनारे अपने आप उग आया जंगल मुझे बचपन से भाता है।

जब भी यँहा आता हूं कुछ न कुछ परिवर्तन पाता हूं। एक और शहर बदल रहा है। तेज़ी से बदल रहा है। आधुनिकता की भेंट चढ़ रहा है। हाँ, मेरा ससुराल बदल रहा है।

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