Monday, 18 September 2017

पहाड़ो की एक शाम

दूर पहाड़ियों की तलहटी में एक छोटा सा गांव है। बामुश्किल पचास घर होंगे। घर क्या हैं फूस की झोपड़ियां है। चारो तरफ़ ऊंचे ऊंचे पहाड़ों से घिरा। शाम जल्दी घिर आई है। ऊँचे चीड़ और देवदारों के पेड़ों के पीछे सूर्य डूब रहा है। जल्द पश्चिम की पहाड़ियों में कँही अस्त हो जाएगा। सर्दियों की शाम पहाड़ो पर वैसे ही अकेली और उदास होती है। पक्षियों का कलरव बढ़ता जा रहा है। कुछ ही देर में शान्त हो जाएगा। पहाड़ो पर कटावदार खेती हो रही है। शाम के झुटपुटे में दिन भर के क्लान्त किसान घर लौट रहे है। कम्बल में लिपटी धीमी चाल से चलती ये आकृतियां बढ़ी जा रही है अपने अपने घरों की ओर। झोपड़ियों से धुआँ उठ रहा है। चूल्हे जल गए हैं। माँ रात के भोजन को तैयार करने के उपक्रम करती हुई गीली लकड़ियों को सुलगाने की कोशिश में है। पर लकड़ियां जिद पर अड़ी है। बस धुआँस रही हैं। माँ के सीने में और फूकने की ताकत नहीं बची। थक कर पीछे बैठ गई है।  धुंए से जलती आंखों को पल्लू से पोंछती हुई। लालटेन लिए बड़ी बेटी आती है। लालटेन को नियत स्थान पर टांग कर माँ के पास पड़ी फूकनी उठा लेती है। दो चार प्रयत्न से चूल्हे में आग दहक उठती है। धुँआ अब कम है। माँ पुनः भोजन बनाने में व्यस्त है। बेटी उसका हाथ बटा रही है। थोड़ी देर में परिवार जुट जाता है। पंगत में बैठे घर के चार सदस्य भोजन परोसे जाने के इंतज़ार में हैं। जल्द ही बेटी सबके आगे पीतल के कंडल वाले थाल रख देती है। सरसों का गर्म साग सफेद माखन के लोंदे से सुसज़्ज़ित है। मक्का की लाल लाल सिकी रोटी पर घी चिपडा गया है। पीतल के ही बड़े गिलासों में पानी रखा है। बेटा पिछवाड़े में जाकर कच्ची प्याज उखाड़ लाया है। अच्छी तरह से धोकर प्याज भी थाल में रख गई है बेटी। चूल्हे की गर्मी से ओसारा गर्म हो गया है। भोजन से तुष्टि, पुष्टि और क्षुधा निवृति तीनो एक साथ प्राप्त होती हैं। परिवार भोजन कर उठ चुका है और गुड़ की डली का स्वाद ले रहा है। बेटी अपना और माँ का खाना लगा रही है। चूल्हे की आग मद्धम हो चुकी है। माँ ने दूध का पतीला चूल्हे पर टिका दिया है। कई बार गर्म हो चुका दूध गाड़ा हो कर हल्की लाल रंगत ले चुका है। मलाई की मोटी परत पड़ चुकी है। रात सोने से पहले गर्म दूध गुड़ के साथ देना है। पहाड़ो की गोद मे एक और दिन समाप्ति की ओर है।

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