25 अक्टूबर का दिन था शरद पूर्णिमा अभी पिछले दिवस ही गई थी। आकाश में चाँद अभी कुछ देर पहले ही उठा था। उसकी चांदनी अभी भी पूर्णिमा सी ही थी।उस शीतल चांदनी में पृथ्वी नहा रही थी। रोज़ की तरह ऑफिस से आ कर थोड़ा सुस्ताया। पत्नी ने रात का भोजन तैयार कर दिया था। पर अभी खाने की इच्छा नहीं थी। सोचा पहले थोड़ा घूम लें फिर भोजन करेंगे। पत्नी जो सारा दिन से घर मे ही थी, सहर्ष तैयार हो गई। हल्की हल्की ठंडक शुरू हो चुकी थी। मैंने ट्रैक सूट की जैकेट पहन ली तो पत्नी ने स्टोल ले लिया। हम ताला लगा बाहर कॉलोनी में आ गए। दो चक्कर लगाते न लगाते गिल दम्पति मिल गए। बात चल रही थी बच्चों के दूर चले जाने की और माता पिता के एकाकीपन की। बात चल निकली शरद पूर्णिमा पर बनी खीर की। तभी दूसरी और से सामने वाले शर्मा जी का नोकर उनका कुत्ता घुमाता आ गया। मुझे कुत्तों की नस्ल की कोई जानकारी नहीं है। पर ये नस्ल कुछ आक्रमक होती है ऐसा मुझे बताया गया है। मेरे लिए ये कोई नई बात नहीं थी। पर आज वो लड़का जरूर नया था। उसने कुत्ते का पट्टा पकड़ा हुआ था जो जरूरत से ज्यादा लम्बा किया हुआ था। ये कुत्ता जब छोटा सा आया था तभी से साथ चलने वालों पर भोंकता और झपटता था। पर वो लड़का जो इसे टहलता था पट्टे से इसे खींच कर रखता था। हम भी इससे दूर से ही निकलते थे कि कंही काट न ले। उस दिन वो लड़का नया था और पट्टा भी लम्बा था। जैसे ही ये हमारे सामने से निकला, ये मुझ पर भोंकते हुए झपटा। पट्टा लम्बा होने से ये मुझ तक आसानी से आ पँहुचा और जब तक मैं प्रतिक्रिया करता इसने मेरी पिंडली दबोच ली। इसके नुकीले दांत मेरे लोअर में से होते हुए मेरी खाल में गड़ गए। मैंने बहुत पैर झटका पर ये आसानी से छोड़ने वाला नहीं था। आखिर बहुत दिनों बाद इसे ऐसा अवसर हाथ लगा था। जब इसने मेरा पैर छोड़ा तो सब ने कहा कि कुछ नहीं हुआ बस लोअर ही तो पकड़ा है। पर ये तो मुझे ही पता था कि लोअर के साथ मेरी पिंडली भी इसके दांतो की पकड़ में थी। रोशनी वँहा कम थी फिर भी लोअर ऊपर कर के देखा तो एक पूरे वृताकार स्थान में दाँतो के चिन्ह थे और खून बह रहा था। मैंने कुत्ते के मालिक को फ़ोन कर सूचित किया और मैं घर आ गया। साबुन से ज़ख्म धोया और डेटॉल लगा ली। शर्मा जी और गिल साहब दोंनो ही आ गए थे। गिल साहब का बेटा गाड़ी ले आया था। हम पास के हॉस्पिटल में जा पँहुचे। शर्मा जी ने बताया कि उनके कुत्ते को इंजेक्शन लगे हुए हैं, पर डॉक्टर का कहना था कि पांच एन्टी रेबीज़ तो लगवाने ही पड़ेंगे। तो लग रहे हैं। चार लग गए हैं। एक तोअभी लगवा कर लौटा हूँ। पाँचवा 14 दिन बाद लगेगा। जब भी उस कुत्ते को देखता हूँ, और दूरी बढ़ा लेता हूँ। ज़ख्म अब भर चला है।पर कसक बाकी है। पर इसमें किसी का क्या दोष? तुलसीदास जी कह गए हैं- काहू न कोई सुख दुःख कर दाता। किसी पूर्व जन्म का बैर होगा जो इसने इस जन्म में निकाल लिया। कर्म था जो कट रहा है। किसी ने गाया है- संतन कर्मन की गति न्यारी। यही सोच कर संतोष करता हूँ कि शायद कोई बड़ी चोट होनी थी जो प्रभु ने इतने में ही भुगता दी।खाली था सो निज व्यथा लिख डाली।कोई और कारण नहीं था। मन लगाने का ये भी तो एक तरीका है।
Thursday, 8 November 2018
एक और कल्पना जगत
बचपन से ही दीवाली पूजन के बाद पूजन के स्थान पर बैठना मुझे बहुत भाता है। जब दिए बुझने के कगार पर होते हैं। हटरी पर लगी मोमबतियां भी आख़री लों के साथ बुझने को होती हैं। ढेर सारा रंग बिरंगा मोम पिघल के नीचे इकट्ठा हो चुका होता है। बस एक बड़ा दिया तेल से भरा जल रहा होता है, जिसे रात भर जलना है । कंही ऐसा न हो कि लक्ष्मी जी आएं और अंधेरा पा कर लौट जाएं। ऐसे में वँहा बैठ मैं कल्पना में एक गाँव की रचना कर लेता हूँ जिसके बाहरी भाग पर जो मिट्टी के शेर सजे हैं वो जीवित हो उठते हैं। अंदर के खिलौने घोड़े, गाय, बकरी सब सुरक्षित हैं। वो गुज़रियाँ भी जो रंग बिरंगे परिधान पहने सिर पर मटका उठाये खड़ी हैं। चौखटों में खील बताशे भरे हैं। खांड के खिलौने और बताशे रखे हैं। मुरमुरे और चने के गुड़ में बने लड्डू भी हैं। भोग लगी मिठाइयां हैं, फल हैं औऱ साथ मे अमृत सा चरनामृत है जो सब को देने के बाद थोड़ा सा बच गया है। कितनी शांति है इस काल्पनिक गांव में। मैं वहाँ बैठ रात 12 बजे का इंतज़ार करता हूं जब मां देहली पर सतिया काढेगी। दो बताशे ऊपर की चौखट के बीच में चिपका कर पूजन करेगी। अभी भी वंही बैठ उन पलों को जी कर आ रहा हूँ। कौन कहता है कि मेरी उम्र हो चली है। मैं तो अभी वही बच्चा हूँ जो वर्षो पहले था।
Saturday, 13 October 2018
माता पिता का एकाकीपन
अक्टूबर,2018 माह की रीडर्स डाइजेस्ट के संपादकीय अंश का हिंदी भावार्थ-
"जब मेरा बेटा छह माह का था तो मैं अपने काम पर वापस आ गई थी।ये एक बड़ा निर्णय था पर मुझे लेना था। मेरा आधा मन सदा ये कोशिश करता रहता कि मैं जल्दी से अपना काम समाप्त करुँ जिससे मैं अपने बच्चे के पास घर लौट सकूं।कभी कभी मुझे अचानक भय लगने लगता कि क्या होगा अगर मेरे बच्चे के साथ कुछ गलत हो गया तो? फिर एक अपराध बोध सा होता, एक घुटन सी होने लगती जब भी मैं किसी छोटे बच्चे को उसकी माँ की गोद में किसी तस्वीर में देखती।
बच्चे को आया के पास छोड़ कर आना सबसे मुश्किल कार्य था। जैसे ही मैं तैयार होती वो जान जाता कि मैं जाने वाली हूँ। वह मुझे अपनी नज़रो से ओझल ही नहीं होने देता था। और फिर मैं घड़ी देखती कि मुझे देर हो रही है, तो हम टीवी चला कर उसका ध्यान बटाते और मैं चुपके से निकल लेती।हर बार ये इतना आसान भी नहीं होता था, पर मैंने ये लुका छिपी का खेल उसके साथ महीनों खेला। जब वह कुछ शब्द जोड़ कर वाक्य बनाने लगा, तो उसने पहली बार मुझे जो कहा, वह मैं कभी नहीं भूल सकती। उसने कहा था, "माँ, मुझ से कह कर जाया करो।"
आज भी उन धुंधले,चिन्ता भरे दिनों को सोच कर मेरा ह्रदय दुखता है। और तब मुझे ये विश्वास होने लगा था कि मैंने जो किया है इसकी सज़ा मुझे मिलेगी। वो समय आएगा जब मैं उसके लिए तरसूंगी और वह इतना व्यस्त होगा कि उसके पास मेरी पीड़ा जानने का समय ही नहीं होगा। और फिर उसके लिए नीड छोड़ने और कॉलेज जाने का समय आएगा। आज वो हाई स्कूल में है और वो संभावना मुझे और अधिक पास दीख रही है।.......
......ये हर माता पिता की और बच्चे के प्यार की और बिछोह की कहानी है। ये कहानी है अकेलेपन की और उसके दर्द की जो पीढ़ियों से चली आ रही है।............"
-संघमित्रा चक्रबर्ती
Friday, 21 September 2018
थका हुआ मन
कभी कभी जब मैं थक जाता हूं जिंदगी की भाग दौड़ से, तो मन करता है ठहर जाऊं तनिक । थोड़ा विश्राम कर लूं। मन खाली हो जाय विचारों से और पुनः छोटा बन मां की गोद में सिमट छिप जाऊं उसके आँचल तले। गहरी सांस के साथ भरूं उसकी साड़ी की महक।
या फिर सुदूर किसी पहाड़ी की तराई में बसे छोटे से गावँ में जा रहूं, जँहा न ये इमारतों के जंगल हों, न फ़रेबी आदमी। न पैसे की चमक दमक हो, न दिखावटी दुनियां। बाहर एक छोटा सा बगीचा हो जिसमें रंग बिरंगी तितलियां उड़ती हों। पराग के लोभी मधुकर घूमते हों। उसके पीछे छोटा सा सब्ज़ियों का बगीचा हो। खिड़कियों से हिम आच्छादित चोटियां दिखती हों। गर्म चाय का भाप उठता कप हो, हवा में ठंडक हो और मेज़ पर अखबार पड़ा हो। देवदार और चीड़ के पेड़ों की कतारों से छन कर आती हवा हो और कोई काम न हो।
पर ऐसा होता कँहा है? न मां है और न पहाड़ो का कॉटेज ही। है तो बस मुंगेरी लाल के हसीन सपने, जो थकने पर खुली आँखों से दिखते हैं।
Sunday, 19 August 2018
प्रलोभन
जब से वो अधिकारी बना था उसके आस पास चाटुकारों की भीड़ रहने लगी थी। उसके आने पर कर्मचारी खड़े हो जाते। उसे अटपटा सा लगता। कुछ आधीनस्थ कमर्चारी ऐसे भी थे जो अभी भी उसे अधिकारी नहीं मानते थे। उसके सामने आपस में गाली गलौच करते, उससे तू तड़ाक से बात करते, उसके सामने ही अनुशासन तोड़ते और उसे अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। इन सब के चलते उसके लिए उनसे काम लेना कठिन हो रहा था। उसे अहसास हुआ कि एक सफ़ल अधिकारी वही होता है जो अपने आधीनस्थ कर्मचारियों से समय से काम करा सके। उसके एक छद्म आवरण ओढ़ लिया जो बाहर से देखने में सख्त था। पर वास्तव में भीतर से तो वो वैसे ही था- कोमल। लोग उसे दम्भी समझने लगे और उससे दूर होते गए। वो जैसे जैसे ऊपर बढ़ता रहा, अकेला होता गया। उसे समझ आ गया था कि भीड़ तो नीचे ही होती है। शिखर पर व्यक्ति अकेला ही होता है। ये वो कीमत थी जो उसने अधिकारी बनने के लिए दी थी। पर जो लोग उसे पहले से जानते थे उनके लिए तो वो अभी भी वो ही था।
वो जो भी मसला उसके समक्ष आता अपने विवेक से उसे निपटाता। फ़ाइल रोकने में उसे विश्वास नहीं था। वो चाहता था कि उसे कुछ ऐसा कार्य भार मिले जिससे वो उनका काम कर सके जिनकी कोई सुनवाई नहीं थी। पर ऐसा तो कभी कभी ही होता था।
एक दिन वो अपने उच्च अधिकारी से चर्चा कर रहा था तो उसने समझाया कि उसके हस्ताक्षर की क़ीमत है। यँहा वँहा उसे ऐसे ही हस्ताक्षर नहीं करने चाहिए। जब किसी का काम रुकेगा तभी तो वह उसे जानेगा। उसे आश्चर्य हुआ। उसे पता ही नहीं था कि उसके हस्ताक्षर अब कीमती हो गए थे।
पर उसका मानना तो कुछ और ही था। उसे पता था कि कल तक वो रेखा के उस पार था और यदि आज वो अपने किन्ही कर्मों के कारण रेखा के इस पार है तो क्या वो इतना स्वार्थी हो जाय कि फ़ाइल इस लिए रोक ले कि कोई जिसका काम रुका है उसके पास आएगा। छि:। वो ऐसा चाहे भी तो भी नहीं कर सकता था।
इन्हीं सब के चलते उसकी नियुक्ति एक अन्य कार्यालय में हुई। अभी तक उसने ऐसी जगहों पर ही कार्य किया था जँहा ठेकेदारों से उसका वास्ता ही नहीं पड़ा था। उसने वँहा कुछ सुधार करने शुरू किए और जल्द ही बहुतों की आंख की किरकिरी बन गया। वो एक ऐसी व्यवस्था बदलने का प्रयत्न कर रहा था जो वर्षो से ठीक ठाक चल रही थी। उसका यह करना बहुतों को रास नहीं आ रहा था। उसकी उच्च महिला अधिकारी ने उसे सावधान किया, "यँहा समाज़ सुधारक बनने की आवश्यकता नहीं है। तुम चाह कर भी ये व्यवस्था नहीं बदल सकते।" उसने तय किया कि वो अपने काम से काम रखेगा। उसने अपने आधीनस्थ कर्मचारियों को बुलाया और चेतावनी दी कि यदि उसके पास कोई भी शिक़ायत आई तो वो दोषी कर्मचारी को छोड़ेगा नहीं। पर शिक़ायत कौन करता। लेने वाला और देने वाला दोनों राज़ी थे। वो अपने कमरे में बैठा रहता। लोग आकर उसे कहते कि उसके नाम पर भी पैसे लिए जा रहे हैं। पर जब तक कोई शिक़ायत न हो वो किस पर कार्यवाही करे और किस आधार पर करे।
तभी उसके पास जीवन की पहली टेंडर फ़ाइल आई। उसने अपने विवेक से टेंडर कमिटी की सिफारिशों पर हस्ताक्षर किए। टेंडर नियमानुसार ही दिया गया। उसमें किसी को कोई अनुचित लाभ नहीं दिया गया था। वो संतुष्ट था। कोई दो दिन बाद, सम्बन्धित इंजीनियर उसके कमरे में आया। इधर उधर की बात करने के बाद उसने एक सफेद मोटा सा लिफ़ाफ़ा निकाला और मेज़ पर रख दिया।
"ये क्या है।"? उसने पूछा था।
"आपका शेयर है। पूरे 16500 रुपए हैं।"
"कैसा शेयर?"
"अभी परसों हमने वो टेंडर फाइनल किया था न!"
"हाँ। तो!!!"
"तो ये आपका शेयर है।"
उसने महसूस किया कि उसके पैर काँप रहे है। उसे लगा कि अभी कोई दरवाज़ा खोल कर आएगा। उससे वो क्या कहेगा कि क्या चल रहा है।
"उठाइये इसे।"
"कम हैं क्या? तीसरे सदस्य को तो और भी कम गए हैं। कन्वीनर और वित्त सदस्य का हिस्सा बराबर होता है। यही चलता है। आप नए हैं। पता कर लीजिए।"
"नहीं।वो बात नहीं है। आप पहले इसे हटाइये सामने से।"
उसने लिफ़ाफ़ा उठा कर जेब में रख लिया। और बोला, "आप क्या बात कर रहे हैं! मैंने पहली बार कोई ऐसा अधिकारी देखा है जो आई हुई लक्ष्मी को ठुकरा रहा है। शायद आप आदर्शवादी हैं। पर ये सब आदर्श किताबों में ही अच्छे लगते हैं। असल जिन्दगी में व्यक्ति को व्यवहारिक होना पड़ता है। और आप क्या समझते हैं, ये ठेकेदार अपनी जेब से दे रहा है। अरे साहिब, वो सब का हिस्सा अपने रेट में पहले से ही मिला लेता है। ये सब सरकारी ख़ज़ाने से ही तो जा रहा है। और आप सरकारी अधिकारी होने के नाते इसके हक़दार हैं। आख़िर आप टैक्स भरते हैं, बदले में आपको क्या मिलता है।..."
अभी शायद उसका लेक्चर और चलता कि उसने बीच में ही टोक दिया,"देखिए मुझे मत पढ़ाइये। मेरे लिए ये काला धन ज़हर है।"
"देखिए, धन न तो काला होता है न सफ़ेद। धन बस धन होता है। इन नोटों की भी बाज़ार में वो ही कीमत है जो आपके वेतन में मिले नोटों की होती है।"
उसकी ज़िद देखते हुए वह बोला, " देखिए हम भी ईमानदार हैं। अब ये आपका हिस्सा मेरे पास रखा है ।आप सोच लीजिये, अच्छी तरह से ठंडे दिमाग़ से विचार कर लीजिए। घर पर बात कर लीजिए। शायद आपका मन बदल जाये। ये आपकी अमानत मेरे पास एक सप्ताह तक रखी है। यदि मन बदले तो बस एक फ़ोन कर दीजियेगा। नहीं तो मैं इसे ठेकेदार को लौटा दूँगा। "
"आप इसे ठेकेदार को वापस दीजिये, आप रखिये या आप और थर्ड मैम्बर बाँट लीजिये। और न हो तो कचरे में फेंक दीजिये। मैंने मना कर दिया तो कर दिया, मेरा मन नहीं बदलने वाला।" उसने महसूस किया कि उसका लहज़ा सख़्त हो गया था।
इंजीनियर तो चला गया पर उसके मन में उथलपुथल छोड़ गया। उसने विचार किया कि इस पैसे से उसका कौनसा रुका हुआ काम निकल सकता है। उसे याद आया कि बच्चों के स्कूल की फीसों के ₹ 18000 के बिल इसी माह भरने थे। उसके पास पैसे नहीं थे और वह सोच रहा था कि क्रेडिट कार्ड पर ले कर फ़ीस भर देगा। ये क्रेडिट कार्ड के भँवर में वह ऐसा फँसा था कि जितना निकलने के लिए हाथ पैर मारता था उतना ही धँसता चला जाता था। हर बार बस मिनिमम अमाउंट ही दे पाता था और भारी ब्याज़ तले दबता जाता। पर ये क्रेडिट कार्ड का भारी भरकम ब्याज़ उसकी इज़्ज़त की क़ीमत थी। आख़िर उसे किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाना पड़ता था। इस पैसे से यदि वह फीस दे दे तो क्रेडिट कार्ड से और उधार नहीं होगा। और यदि माह में ऐसे दो टेंडर भी आ गए तो उसका इन सूदखोरों से पीछा हमेशा के लिए छूट जाएगा। शायद इसलिए प्रभु ने उसकी यँहा पोस्टिंग करवाई हो। ऐसा सोचते ही उसे स्वयं से घृणा हो उठी- प्रभु को आड़ बनाकर ग़लत काम में उन्हें भी मिला रहा है! कितना स्वार्थी हो गया है तू। जो करना है उसके लिए वह स्वयं ज़िम्मेवार है।
पर उसके सिद्धान्त! ये सब आदर्शवादी बातें हैं। आज़कल कौन इन्हें मानता है? उसे "सत्यकाम" फ़िल्म याद हो आई। उसने न जाने कितनी बार देखी थी। क्या अंत हुआ था ईमानदारी से चलने वाले का! क्या वो भी ऐसा ही अंत चाहता है? सोचते ही उसे झुरझुरी आ गई। तो क्या उसे जब तक अवसर नहीं मिला तभी तक वह ईमानदार था। अवसर मिलते ही उसकी नीयत डोलने लगी! वह क्या करे, किससे सलाह ले। मन बेचैन हो उठा था।
वो घर आया। यद्दपि वो इस विषय मे पत्नी से बात करना नहीं चाहता था पर और कोई भी ऐसा नहीं था जिससे वो अपना बोझ बाँट सके। उसने पत्नी को सब बताया और कहा कि उसने उसके प्रलोभन को ठुकरा दिया था।
"बहुत अच्छा किया। हमें ऐसा पैसा कदापि नहीं चाहिए। और क्या बच्चों को ऐसे पैसे से पढ़ाओगे। वो क्या बनेंगे आगे चलकर! ऐसा पैसा फलता नहीं है। बरक़त ईमानदारी की कमाई में ही है। यदि हम प्राइवेट स्कूलों की फीस नहीं भर सकते तो हम उन्हें सेंट्रल स्कूल में डाल देंगे।" पत्नी ने कहा।
उसके मन से बोझ हट चुका था। उसे गर्व हुआ अपनी जीवन संगनी पर। फैसला हो चुका था। उसने कभी उस इंजीनयर को फ़ोन नहीं किया और न ही ये जानने की ज़रूरत समझी की उसने उस पैसे का क्या किया। हाँ, वह अपने उच्च अधिकारी से जरूर मिला था इस निवेदन के साथ कि उसको टेंडर कम से कम दिए जाएं। वँहा और बहुत अधिकारी थे जिन्हें टेंडर चाहिए थे।
उसके बाद उसको किसी ने लिफ़ाफ़ा ऑफर ही नहीं किया। शायद वो (कु)ख्यात हो चुका था। उसे भी ये रास आ रहा था। वो बेशर्म भी हो चुका था। उसे बिल्कुल शर्म नहीं आती थी जब उसका आधीनस्थ कर्मचारी उसकी 10 वर्ष पुरानी सैकिंड हैंड मारुति के साथ अपनी चमचमाती महंगी कार पार्क कर के उतरता था। उसके लिए उसकी पुरानी कार किसी विमान से कम न थी क्योंकि वह उसकी मेहनत की कमाई से खरीदी हुई थी। उसकी चाल राजसी थी, मुख पर तेज़ था। और मन शांत था - बिना हवा के स्थिर दीप शिखा के समान।
आज जब वो एक लम्बी सेवा के बाद सेवा निवृत्त हो रहा है तो उसके सिद्धान्त जो उसने बहुत ही कच्ची उम्र में बनाये थे उसके साथ ही खड़े है। उसका दृढ़ निश्चय भी और सुदृढ़ हो खड़ा है। जीवन भर ये सिद्धान्त उसका सम्बल रहे हैं। उसकी नाव बिना पतवार की नाव सी भटकी नहीं। तूफानी थपेड़े और ऊंची नीची लहरों को झेलते हुए आख़िर किनारे लग ही गई। जीवन की सन्ध्या बेला पर उसे कोई पश्चाताप नहीं है। उसने अपनी पारी सफलता पूर्वक खेली है।
Sunday, 5 August 2018
अग्निपरीक्षा
उसे शुरू से ही लड़कियों के पीछे भागना अच्छा नहीं लगता था। उसका सोचना था कि कुछ ऐसा करो कि वो तुम्हारे पीछे आएं। स्कूल छोड़ने के बाद वह गीता प्रेस की पुस्तकों के संपर्क में आया। नई सड़क पर जब वह पुरानी कोर्स की किताबों के लिए दुकान दुकान भटकता तो गीता प्रेस की बड़ी सी दुकान पर रुक जाता। कौड़ियों के दाम पर वँहा उसे नई किताबें मिल जाती। हर बार वह कोई न कोई खरीद लेता और चाव से पड़ता। इन्हीं के चलते एक दिन उसने "गीता" ली। समझ तो नहीं आई पर वो पढ़ता गया। उसकी बचकानी बुद्धि ने गीता के कर्म योग को ही ग़लत सिद्ध कर दिया। ऐसे कैसे हो सकता है कि कोई सर्वथा निष्काम कर्म करे। प्रभु प्राप्ति भी तो एक कामना ही है। मुक्ति की भी कामना एक कामना ही तो है। उसे लगा किसी ने उससे पहले इस पर इस दृष्टि से विचार नहीं किया था और उसने "गीता"में एक खामी ढूंढ ली थी। वह अपनी खोज़ पर प्रसन्न भी था और परेशान भी। पर अपनी शंका का निवारण किस से करे।
वो "गीता" बार बार पढने लगा। माँ को चिन्ता हुई कि कँही बेटा सन्यासी न हो जाये। वो कहती कि अभी उसकी "गीता" पढ़ने की उम्र नहीं है। पर वो कहता कि उम्र का क्या ठिकाना! न जाने कितनी छोटी है। इस पर माँ सहम जाती और डांट देती, "कुछ भी बोलता रहता है। जब समझ नहीं है तो चुप रहा कर।"
आज उसे अपनी समझ पर तरस भी आता है और हँसी भी आती है। समझ ही कितनी थी तब! कर्म योग को ही गलत सिद्ध कर दिया था। शायद इसीलिए गुरु की आवश्कता होती है। ये कोई कोर्स की किताब तो नहीं थी जिसे वह स्वयं पढ़ के समझ लेता था।
इन्हीं सब के साथ वो नोकरी में आया था। घर से दूर एक अनजान, अजनबी शहर में। घर पर कोई था नहीं जो इंतज़ार करता। ऑफिस के बाद क्लब में चला जाता। कैरम खेलता, टेबल टेनिस पर हाथ आज़माता। या फिर यूँ ही पैदल चलता हुआ पब्लिक लाइब्रेरी चला जाता। वँहा का सन्नाटा उसे अच्छा लगता। कोई किताब निकाल पढ़ने लगता। उसे लगता कि वह बुद्धिजीवियों की श्रेणी में आ खड़ा हुआ है। ये उम्र का वो पड़ाव था जब मन के आकाश पर रंग बिरंगे स्वप्न तैरते हैं। जब बहती हवा में गुनगुनाने का मन करता है। जब दिल छोटी छोटी बात पर भी तेजी से धड़कता है।
वंही उसकी मुलाकात गिरीश से हुई थी। पहली नज़र में ही वह उससे प्रभावित हो गया था। मोटी खद्दर का कड़क कुर्ता पायजामा, कन्धे पर कपड़े का झोला और पैरों में साधारण सी चप्पल - उसका रोज़ का पहनावा थी। दोंनो घूमते हुए कॉफी हॉउस जा बैठते और बतियाते। वह घर से दूर रह कर पी सी एस की तैयारी कर रहा था। जानकारी का उसके पास भंडार था।
एक दिन ऐसे ही घूमते हुए वह दोनों घंटाघर तक चले गए थे। अचानक गिरीश ने पूँछा था।
"कभी कोठे पर गए हो नाच देखने?"
उसने आश्चर्य से गिरीश की और देखा और बोला, "क्या?"
"चलो, आज दिखाता हूँ। ये सारा रेड लाइट एरिया है। यँहा लोग मन बहलाने आते है।" कहता हुआ वह एक सँकरी सी सीढ़ियों के पास रुक गया। उसका हाथ पकड़ वह ऊपर जाने को बढ़ा कि उसने अपना हाथ छुड़ा लिया।
"मुझे नहीं देखना है।" कहते हुए वह पीछे हटा।
गिरीश का पहनावा देखकर वह सोच भी नहीं सकता था कि उसे ये शौक भी होगा।
"अरे चलो भी! यँहा किसको पता चलेगा?" गिरीश ने फिर कहा।
"नहीं, मुझे नहीं जाना। और तुम भी मत जाओ। चलो किसी शाम की शो में पिक्चर देखते है।" उसने प्रस्ताव रखा।
पर गिरीश चला गया था। और वो निरुद्देश्य यूँ ही रात होने तक सड़कों पर भटकता रहा था। उस दिन के बाद उसने गिरीश से दूरी बना ली थी। आज तो वह रुक गया था कल शायद न रुक पाए। उसने लाइब्रेरी जाना छोड़ दिया था कि अचानक एक दिन उसे ढूंढता हुआ गिरीश उसके ऑफिस में आ धमका।
"क्या बात है? बहुत दिनों से लाइब्रेरी नहीं आये तुम। सब ठीक है न?"
"हाँ, बस यूं ही समय ही नहीं मिला।"
"चलो, आज घर चलना है। एक सरप्राइज है तुम्हारे लिए।"
उसने टाल मटोल की पर वो माना नहीं। ऑफिस के बाद वो गिरीश के घर की और बढ़ रहे थे।
"ऐसा क्या सरप्राइज है?" उसने पूछा था।
"खुद ही देख लेना। चल तो रहे हो।"
जल्द ही वह गिरीश के घर पर था । गिरीश ने ताला खोला। उसका दो कमरों का छोटा सा मकान था। एक स्टडी रूम था तो दूसरे कमरे में एक पलँग पड़ा था। स्टडी रूम में बेतरतीब किताबें बिखरी पड़ी थी। दो पलास्टिक की कुर्सियां और एक छोटी सी मेज़ रखी थी।
"हाँ, तो क्या सरप्राइज है?" , उसने बैठते हुए पूछा।
तभी पास के कमरे से एक युवती निकल के आई। बोली,"पानी लेंगे?" वो आश्चर्य चकित था।
वो कोई बीस-बाइस वर्ष की रही होगी। कट स्लीव का ब्लाउज़ और साड़ी पहने थी जो नाभि के नीचे बंधी थी। हाथों में चूड़ियां, दपदप करती भरी हुई माँग, माथे पर बड़ी सी बिंदिया और पैरों में पाज़ेब पहने उसका सरप्राइज उसके सामने था।
तो क्या गिरीश ने विवाह कर लिया? पर ये इसे अंदर बन्द कर बाहर से ताला क्यों लगा गया। इतनी सुन्दर पत्नी इसे कँहा मिलेगी! शायद शक्की है। उसने सुना था कि कुछ शक्की स्वभाव पति अपनी सुन्दर पत्नियों को ताले में रखते हैं। उसे गिरीश के भाग्य से ईर्ष्या होने लगी थी।
वो इसी उहा पोह में था कि वह पानी ले आई।
"कहो, कैसा लगा हमारा सरप्राइज?" गिरीश ने पूछा तो वह मुस्करा दी थी।
"एक और कुर्सी उठा लाओ और यँहा बैठो।" गिरीश ने कहा तो उसने पास के कमरे से एक और कुर्सी उठा ली और बैठ गई।
"तुमने विवाह कब किया? तुम तो कह रहे थे पी सी एस के बाद विवाह करोगे।"उसने पूछा।
"बताऊंगा, सब बताऊंगा। धीरज रखो।"
"अच्छा, तुम बैठो, मैं कॉफी बना कर लाता हूँ।" कहते हुए गिरीश किचन की तरफ़ चला गया।
"घोट कर बनाना।" उसने जोर से कहा। गिरीश घोट कर बहुत अच्छी कॉफी बनाता था।
इसकी समझ नहीं आ रहा था कि इस अंजान युवती से क्या बात करे। चाह कर भी उसके मुख से "भाभी" सम्बोधन नहीं निकल पा रहा था। वैसे भी वह ऐसी स्थिति में असहज हो जाता था। उसने सामने पड़ी किताब उठा ली और पन्ने पलटने लगा।
उसकी साड़ी पाज़ेब में उलझ गई थी। उसे ठीक करने के उपक्रम में उसका आँचल गिर गया था जिसे उसने शायद जान बूझकर गिरा ही रहने दिया था। उसने किताब से सिर उठाया तो उसकी दृष्टि वंही अटक गई।
"अपने मित्र की पत्नी को ऐसी दृष्टि से देखना अनुचित है।" अन्तरात्मा ने तुरंत धिक्कारा।पर मन तो चक्षु इंद्रिय के साथ वंही अटक गया था।
स्त्री को प्रकृति ने ऐसी क्षमता दी है कि वह पुरुष के मनोभावों को तुरंत पढ़ लेती है।
"क्या देख रहे हो?" साड़ी पाज़ेब से छुड़ाते हुए वह बोली थी।
"कु.. कुछ..कुछ भी तो नहीं।" उसने हकलाते हुए कहा। उसे अपने पर लज़्ज़ा आ रही थी।
"कुछ तो देख रहे थे ।" वह मुस्कराई। उसे उसका ये व्यवहार कुछ अटपटा सा लगा।
वह कुछ कहता कि गिरीश मग में कॉफी घोटते हुए कमरे में आया।
"क्या बातें चल रही हैं।"
"कुछ नहीं। तुम्हारा ये दोस्त बहुत शर्मिला है।" उसने कहा।
"खुल जायेगा। अभी तो मिला है तुमसे।" गिरीश बोला था।
"अच्छा मैं चलता हूँ ।" वह उठ खड़ा हुआ था।
"पर कॉफी?"
"नहीं।आज रहने दो। फिर कभी पीऊंगा।"
"मैं इसे कुछ दूर तक छोड़ कर आता हूँ।" गिरीश ने कहा और बाहर से ताला लगा दिया।
"कैसे लगी?" गिरिश ने ही बात शुरू की।
"कौन?", उसने अनजान बनते हुए कहा।
"अरे, वो ही जिससे मिल कर आ रहे हो।"
"पर तुम मुझसे क्यों पूँछ रहे हो? तुम्हारी पत्नी है। तुम्हें पसंद है न?" उसने कहा
"मेरी पत्नी नहीं है ये।" गिरीश ने बताया।
"तो ! बिंदिया, माँग और चूड़ियां - ये सब क्या है?" उसका मुँह खुला का खुला रह गया।
"तुम्हारे घर पर क्या कर रही है? और तुमने उसे बंद क्यों कर रखा है।"
"टैक्सी है। पर रखना तो पत्नी के मेकअप में ही पड़ता है। यदि आसपास के लोगो को भनक भी लग गई तो तुम तो जानते ही हो इन्हें। क्या हाल करेंगे हम दोनों का, पता नहीं।" गिरीश बोला था।
"टैक्सी!", उसने इससे पहले इस शब्द का प्रयोग किसी युवती के लिए होता नहीं सुना था। इस दुनियादारी से वो अनजान था।
"अबे बोदूराम! कॉल गर्ल है। कॉल गर्ल तो समझते हो न?"
"क्या बात करते हो!", वह आश्चर्य चकित था।
"मैं जिस कोठे पर जाता हूँ, वँहा से भागी हुई है। उनके दलाल इसे पूरे शहर में ढूंढ़ रहे है। स्टेशन, बस अड्डा सब पर निगाह है।" गिरीश ने खुलासा किया।
"तो तुमने इसे यँहा आश्रय दे रखा है?" उसने पूछा।
"यही समझ लो।"
"और तुम अपने इस अहसान की क़ीमत भी जरूर ले रहे होंगें?"
"अब ऐसा मौका कौन हाथ से जाने देता है।" गिरीश ने ढिठाई से कहा।
"पर ये तुम्हें मिली कँहा से? और तुम्हें पुलिस का डर नहीं है।"
"कँहा से मिली? इस सवाल को छोड़ देते हैं। और जहाँ तक पुलिस का प्रश्न है, तो ये बालिग़ है और अपनी इच्छा से यँहा रुकी है। चली जायेगी जैसे ही अवसर मिलेगा।"
"तो ये सब तुम मुझे क्यों बता रहे हो?" उसने प्रश्न किया।
"वो इसलिए कि मुझे दो दिन के लिए घर जाना है। और इसे दो दिन ऐसे बन्द करके नहीं रख सकते।"
"तो?"
"तो मैं चाहता हूँ दो दिन तुम रुक जाओ इसके साथ।"
"क्या!!!ये कैसे हो सकता है?"
"क्यों नहीं हो सकता। तुम मिल तो लिए ही हो। बाकी बात मैं कर लूंगा।अब इस मामले में हर किसी को तो नहीं ला सकते न। अपने मकान मालिक को बोलो की दो दिन के लिए बाहर जा रहे हो। औऱ बैग में कपड़े डाल यँहा आ जाओ। मुझे आज रात ही निकलना है।" गिरीश बोलता जा रहा था।
उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था। कनपटियों पर लहू का संचार बढ़ने से कान गर्म हो रहे थे। माथे पर पसीना आ गया था।
"तो फिर आ रहे हो न।" गिरीश ने पक्का करना चाह।
उसने कोई उत्तर नहीं दिया। बस चलता ही रहा।
"देखो ऐसा अवसर फिर नहीं मिलेगा। सोचो मत। इस में कोई खतरा नहीं है। बस दो दिन की बात है।" गिरीश ने कहा।
"हूँ।" उसने पुलकित मन से हामी भरी। गिरीश अब निश्चिन्त प्रतीत हो रहा था।कुछ दूर चल कर गिरीश वापस मुड़ गया।
और वो रेल की पटरियों पर चढ़ गया। रेल पटरियों पर चलना उसे अच्छा लगता था। बस एक गाड़ी का ही तो ध्यान रखना होता था। बाकी किसी ट्रैफिक का कोई खतरा नहीं। और वो भी उसी पटरी पर चलता था जिस पर गाड़ी सामने से आये। स्लीपर गिनता, आस पास की जंगली लता , झड़ियों को देखता वो मीलों चल सकता था। पर आज वो स्लीपर नहीं गिन रहा था। उसके मन में द्वंद चल रहा था। बार बार उस युवती का चेहरा उसके जहन में आ जाता था। कितनी मादक थी उसकी आँखें आमंत्रण देती हुई सी। भाग्य ने उसे शायद उसी के गिरीश से मुलाकात करवाई हो। वो कल्पना कर रहा था उन पलों की जो आज रात ही साकार होने वाले थे। यँहा किसको पता चलेगा! गिरीश सही कह रहा था कि ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा।
उसके घर की और जाने वाली सड़क की पुलिया आ गई थी। वो नीचे उतर कर सड़क पर आ गया। अब वो घर की तरफ बढ़ रहा था। शाम हो चली थी। सड़क के किनारे लगी बत्तियां जल चुकी थी। उसने कलाई घड़ी पर नज़र डाली। शाम के 7 बजने वाले थे उसे कमरे पर जाकर बस दो दिन के कपड़े बैग में डालने थे।
वो घर आ चुका था। उत्सुकता इतनी थी कि भूख उड़ चुकी थी। उसमें एक दूसरी ही भूख जाग चुकी थी। उसने बैग में कपड़े डाले लिए थे। उसके सिद्धान्त उसे लगातार रोक रहे थे पर मन बेक़ाबू था। "स्वयं चल कर आये अवसर को खोना मूर्खता है।", मन ने समझाया। पर सिद्धान्त आड़े आ कर खड़े हो गए- "नहीं, ये उचित न होगा। क्या तू इतना कमज़ोर है। यही तो तेरी परीक्षा है।"
उसे लगने लगा कि वो निर्णय नहीं कर पायेगा। मन कँही अधिक शक्तिशाली हो चला था। सारी इंद्रियां अपने अपने विषयों की और दौड़ रही थी। मन रूपी रथ के बलवान अश्व हिनहिना कर खुर पटक रहे थे। उसे लगा कि उसके हाथ से लगाम बस छूटने को ही है कि तभी उसे पढ़ी हुई गीता याद हो आई । ऐसी ही विकट दुविधा की स्थिति में अर्जुन ने कहा था;
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥2.7॥
अर्जुन ने कहा था ,"कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए"।
उसे लगा कि वो अर्जुन ही है। उसने अपने रथ की बागडोर अपने सारथी कृष्ण के हाथों में सौंप दी। प्रभु जँहा ले चलो,चलूँगा। जैसा कहोगे, करूँगा। बस! इतना सोचते ही उसके मन से मानो मनो बोझ हट गया हो । वो कब सो गया उसे नहीं पता। ऐसी सुख की नींद शायद बहुत दिनों बाद मिली थी।
सुबह पक्षियों के कलरव से उसकी आँख खुली। रात एक दुःस्वप्न की तरह थी। वो बाहर खुली छत पर आया। शीतल हवा ने उसकी नींद की खुमारी दूर की। उसने कस कर एक अंगड़ाई ली और रहा सहा आलस्य भी त्याग दिया। दूर क्षितिज पर प्राची दिशा केसर मिश्रित रोली से रंग चुकी थी। भुवन भास्कर के आने की तैयारी थी। जल्द ही लाल रंग का बड़ा सा गोला ऊपर उठा। पर उसकी अग्नि अभी शीतल थी। उसे लगा उसकी रात की अग्नि परीक्षा की आग भी शीतल हो सूर्य में समाहित हो चुकी थी। उसने तौलिया उठाया और नित्य कर्म करने चल दिया। एक बार फिर उसके सिद्धान्तों ने उसे गिरने से बचा लिया था।