Wednesday, 7 February 2018

भय का भूत

बात बहुत पुरानी है। इन दिनों मैं जोधपुर के रातानाडा में एक छोटे से किराये के मकान में रहता था। मेरे मकान मालिक मदन जी  पेशे से खाती थे और सपरिवार नीचे रहते थे। ऊपर दो  कमरे बने थे जिसमें एक के साथ छोटी दी रसोई थी। ये कमरा मैंने किराये पर लिया था और पास के सटे कमरे में एक बुजुर्ग महिला अकेली रहती थी। उसका एक मात्र बेटा सीमा सुरक्षा बल में था और कभी कभी ही आता था। कमरों के सामने छोटी सी खुली छत थी। बाथरूम और शौचालय नीचे था। नीचे से ऊपर आने के लिए सीढ़िया थीं जो आधी चढ़ने के बाद 90 डिग्री के कोण पर घूमती थी जँहा एक बड़ा सा चबूतरा था। मदन जी ने एक बकरी पाली हुई थी जो हाल ही में ब्याही थी। उसका बच्चा उससे दूर ही बाँधा जाता था जिससे वह बकरी का दूध न पी जाए।

गर्मियों की शाम थी। हम खाना खा कर खुली छत पर बैठे थे। ठंडी हवा चल रही थी। नीचे सड़क पर मदन  जी के तीनों बच्चे खेल रहे थे। तभी मदन जी छत पर आ गए। इधर उधर की बातें चल निकली। अचानक मदन जी ने पूछा, "शर्मा जी, आप भूत प्रेत पर विश्वास करते हैं?" उनका ये प्रश्न अप्रत्याशित था। मैंने कहा,हाँ भूत तो होते हैं। अभी यंही प्रताप नगर के जिस मकान में हम रहते थे वँहा अज़ीब सी घटनाएं होती थी। मदन जी कुछ गंभीर हो उठे। बोले, कुछ समय पहले मैं नहीं मानता था। पर अब मानता हूं। मैंने पूँछा कि क्या कोई घटना घटी? उन्होंने कहना शुरू किया। आगे उनकी जुबां से-

आप को तो मालूम है जोधुपर से पीपाड़ जाते समय एक सूखी नदी पड़ती है। अरे वो ही जो आपने रेलगाड़ी से दिल्ली जाते आते देखी होगी। हमारा गांव  वंही से थोड़ा दूर है। उस नदी को पार करने का छोटा रास्ता उसके ऊपर बनी रेल पटरी ही है। हम तो उसी पर  बिछे टीन पर चल कर वो नदी पार कर लेते हैं। वैसे भी वह सूखी ही पड़ी रहती है। कभी कभी बरसात में थोड़ा बहुत पानी आ जाता है। मैं तो अपनी साइकिल से ही गांव चला जाता हूँ। पर नदी पार करते समय रेल पटरी पर पैदल ही साइकिल ले कर चलता हूं।

अभी कुछ   दिन पहले मैं जब गाँव गया था और साइकिल  से उतर कर पैदल जब वो नदी पार कर रहा था तो बीच में पँहुच कर मेरी नज़र नीचे गई। सूखी रेत में एक बकरी का बच्चा गोल गोल चक्कर काट रहा था और मैं मैं बोल रहा था। मैं सोच में पड़ गया कि ये अकेला यँहा क्या कर रहा है! मैंने यूँही पुकारा- बकरियों बकरियों आओ। मैं कुछ ही आगे पुल पर चला हूंगा कि मुझे लगा मैं मैं की आवाज़ मेरे पास से ही आ रही है। पीछे मुड़ कर देखा तो मेरी तो जान ही मानो निकल गई। वो ही  बकरी का बच्चा मेरे पीछे पीछे रेल के पुल पर चला आ रहा था। नीचे नदी में देखा तो वँहा अब वो नहीं था। अलबत्ता रेत पर उंसके गोल गोल घूमने के निशान जरूर बने हुए थे। इतनी जल्दी इतनी ऊंचाई पर ये आया कैसे? मेरा दिमाग काम नहीं कर रहा था। मैं तेज तेज कदम बढ़ाने लगा। पर वो था कि पीछे पीछे चला आ रहा था। मैंने मन ही मन नाकोड़ा जी (उनके इष्ट देव) को याद किया।  जैसे ही पुल पार हुआ मैं साइकिल पर चढ़ गया और तेज़ तेज़ पैडल चलाने लगा। पर उसके और मेरे बीच की दूरी बढ़ ही नहीं रही थी। मुझे लगा आज तो ये मुझे खायेगा। मैं बदहवास सा पैडल मारता रहा और वो मैं मैं की आवाज़ करता मेरे पीछे लगा रहा। गाँव की सीमा तक वो मेरे पीछे पीछे आया फ़िर न जाने कँहा गायब हो गया।

मदन जी ने अपने गमछे से अपना मुंह पोंछा और बोले अब आप ही बताओ शर्मा जी ये क्या था? मैनें कहा हो सकता है कोई अतृप्त आत्मा हो। तभी नीचे से मदन जी की पत्नी ने खाने के लिए आवाज़ दी और महफ़िल समाप्त हो गई।

रात कोई 2 बजे मैं लघुशंका के लिए उठा और उनींदा सा नीचे उतरा। सीढ़ियों के बीच में मैं जैसे ही पहुँचा कि मेरा पैर किसी जानवर पर पड़ा और मैं मैं करता वो बकरी का बच्चा उठ कर मुझसे टकराता अंधरे में ऊपर भागा। मेरे मुंह से निकला, अरे! ये यँहा कैसे आ गया। मदन जी की कुछ घँटे पहले की कथा मस्तिष्क ने जीवंत कर दी। रीढ़ की हड्डी में नीचे से ऊपर तक डर की एक लहर दौड़ गई। तब बुद्धि ने झकझोरा तो भान हुआ कि मैं पीपाड़ में नहीं जोधपुर में हूँ। और बकरी का बच्चा तो मदन जी की बकरी का है। उस रात पता नहीं कैसे वह खुल कर सीढ़ियो के बीच में आ कर सो गया था। उसे क्या पता था कि मेरा पैर उसके ऊपर जा पड़ेगा। हाँ, सोने से पहले उसने छक कर माँ का सारा दूध पी लिया था। जो मुझे सुबह पता चला जब बकरी ने दूध ही नहीं दिया। तब से मदन जी की पत्नी बकरी के थनों में रात को थैली बांध देती थी जिससे यदि बच्चा खुल भी जाये तो दूध न पी सके। पर इन सब से परे उस क्षण जो भय  का भूत मुझे लगा उसे याद कर आज भी सुरसुरी लग आती है।

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