Friday, 23 February 2018

स्वभाव

व्यक्ति का स्वभाव जन्मजात होता है। "स्व" और "भाव" इन दो शब्दों से बना स्वभाव प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ ले कर पैदा होता है। इसके बनने में अनेकों जन्मों के संस्कार कारण होते हैं। ये पूरी उम्र बदलता नहीं। उग्र स्वभाव लिए जो बच्चा पैदा होता है वह आगे जाकर शांत प्रकृति का होगा ऐसा बहुत ही कम देखने में आता है। और वो कहावत भी है न कि पूत के पांव पालने में ही दिख जाते है, इसी से बनी है।

मैं तो अपने स्वभाव की बात करना चाहता हूँ। मेरा बचपन से ही कुछ ऐसा स्वभाव है कि मुझे चकाचौंध की बनावटी दुनियां बिल्कुल पसंद नहीं आती। ऐसी दुनियां में मैं हमेशा अपने आप को अजनबियों के बीच घिरा पाता हूं। ऐसे लोग जिनकी मुस्कराहट के पीछे कुटिलता है, जिनके लिपे पुते चेहरों के पीछे एक और चेहरा है। एक ऐसी दुनियां ,जो बनावटी है, झूठी है, मक्कार है।  ऐसे में मैं बहुत ही असहज हो जाता हूँ और जँहा तक संभव हो ऐसी भीड़ में जाने से मैं बचता हूँ। आप  मुझे असमाजिक कह सकते है। मेरी माँ मुझे जोर जबदस्ती बिरादरी के उत्सवों में ले जाती थी। कहतीं, कि तुम नहीं जाओगे तो तुम्हारे कौन आयेगा। लोग तुम्हें कैसे जानेंगे? मैं चला तो जाता, पर अकेला पड़ जाता था।   बहुत ही कम लोग मेरे जैसे स्वभाव के होते और यदि वह वँहा टकरा जाते तो मैं थोड़ा बहुत बतिया लेता। लड़कियों से मैं वैसे ही शर्माता था। और जब वह गिट-पिट अंग्रेज़ी में बतियाती, तो मैं और असहज हो जाता।

क्योंकि स्वभाव नहीं बदलता, अतः वो आज भी जब मैं जीवन के साठवें वर्ष में प्रवेश कर रहा हूँ, ऐसा ही है। हाँ, बचपन के उस शर्मीले से लड़के को जिन्दिगी ने ठोक पीट कर आत्म विश्वास से जरूर भर दिया है।

तो बात हो रही थी, बनावटी दुनियां की। अपने स्वभाव के चलते, मुझे पाँच सितारा होटल से कँही अच्छा वो हाई-वे का ढाबा लगता है, जँहा मूंज की खाट पर बिठा, सरसों का साग और मक्का की रोटी परोसी जाती है। जँहा सलीके से खाने के लिए छुरी कांटे की मज़बूरी नहीं होती। जँहा खाने से पहले गोद में नैपकिन नहीं बिछाना होता। जँहा खाने के पश्चात हाथ धोने के लिये चांदी की परत चढ़ी कटोरियों में नींबू की फांक डले गर्म पानी का इंतज़ार नहीं करना होता, जँहा दीवारों पर मॉर्डन आर्ट के नाम पर अधंनगी कला कृतियां नहीं टँगी होती। जँहा बनावटी इत्र से डाइनिंग हाल नहीं महकता। इसके विपरीत, जँहा हवा में सरसों की मदमाती महक भरी होती है, जँहा टैंक में लगे नल से हाथ धो लिए जाते है। जँहा आपकी चारपाई से कुछ ही दूर कुंआ होता है। कुछ कदम पर ही सरसों फूल रही होती है। विभिन्न रंगों के पक्षी खेत की बाड़ पर फुदक रहे होते हैं। और इन सब के बीच मैं भोजन का आनंद ले रहा होता हूँ। कुछ ट्रक चालक खाना खा, मुँह पर गमछा डाल अपनी थकान उतार रहे होते हैं। क्लीनर बम्पर पर चढ़ विंड स्क्रीन साफ़ कर आगे के सफ़र की तैयारी कर रहे होते हैं। जँहा मिट्टी की सौंधी महक होती है। यूँ तो आज़कल हाई-वे पर भी कई आधुनिक रेस्तरां खुल गए हैं, पर मैं तो उपरोक्त वर्णित जैसे ढाबे को ही  प्रथमिकता देता हूं।

ठीक ऐसे ही मुझे आज के बिग बाजार जैसे स्टोर्स से अपने स्माल बाजार ज़्यादा अच्छे लगते हैं। अपनी जानी पहचानी दाल मसालों की छोटी सी दुकान, जँहा मसालों की महक होती है। जँहा जा कर मैं कह सकता हूँ, कि 100 ग्राम गोंद, 250 ग्राम ख़रबूज़े की बीज गिरी, 200 ग्राम मग़ज़, कुछ गुलाब की पत्तियां, और ऐसा ही कुछ सामान दे दें। यही वस्तुएँ अगर आपको बिग बाजार में लेनी हो तो घूमते  घूमते आप के पैर टूट जाएँगे पर ये सब आपको नहीं मिलेगा। अपनी वो ही पुरानी दुकान, जँहा का बनिया आप को जानता है, आप की रुचि पहचानता है, और आपकी आवश्यकता के हिसाब से सामान दे, कृतज्ञ महसूस करता है। जँहा मुझे एक रैक से दूसरे रैक के बीच घूमते पैर नहीं दुखाने पड़ते। जँहा समान की लिस्ट पकड़ा मैं सब्ज़ी ले कर वापस आ सकता हूँ और मेरा सामान बंधा हुआ तैयार मिलता है। जँहा कोई चीज़ खराब आ जाये तो मैं अगले माह भी बदल सकता हूँ। मुझे ये बड़े बड़े स्टोर्स बिल्कुल नहीं पसंद, जँहा घुसने में लाइन में खड़ा होना पड़े, जँहा आप लेने कुछ जाओ और ले कर कुछ और ही आ जाओ। ऐसे स्टोर्स में जा कर भी मैं असहज हो जाता हूँ, क्योंकि इन स्टोर्स का आप से कोई व्यक्तिगत नाता नहीं होता। ट्राली ले कर इसमें घूमते लोग हो सकता है अपने आप को एक दूसरी क्लास मानते हों, पर उनके चेहरों पर थकावट दीखती है, और उनकी ट्रॉली में बेजरूरत का सामान अधिक होता है,जिसे वे लेने ही नहीं आये होते। भुगतान की लम्बी लाइन में देर से खड़े लोगों से मेरा पूछने का मन होता है, कि यँहा आये ही क्यों?

अब चकाचौंध और भीड़भाड़, चाहे शादी ब्याह की हो या फिर इन मॉल्स की हो, या ऊँचे होटलों की, या फिर रेलवे स्टेशनों और एयरपोर्ट की, मेरा स्वभाव मुझे इनसे दूर करता है। एयरपोर्ट का तो कुछ नहीं किया जा सकता पर रेल यात्रा के दौरान, यदि संभव हो तो मैं मुख्य स्टेशन से एक स्टेशन पहले उतरना पसंद करता हूं। और यदि न भी उतर पाऊं, तो रेलगाड़ी के चलने तक बाहर जरूर देखता रहता हूँ और वँहा की शांति, सादगी अपने में आत्मसात करने का प्रयत्न करता हूँ।

दिल्ली आने से पूर्व "सराय रोहिला", जयपुर से पूर्व "गांधी नगर", अजमेर से पूर्व " मदार", जोधपुर से पूर्व "राई का बाग", अहमदाबाद से पूर्व, "साबरमती" और उदयपुर से पूर्व "राणा प्रताप" ये कुछ ऐसे स्टेशन हैं जो मुख्य स्टेशन से कँही शांत, पुरातन, बिना किसी टीम टाम के मुझे हमेशा आकर्षित करते हैं। सम्भव हो तो मैं इन्हीं स्टेशनों पर उतरना पसंद करता हूं। अज़मेर जाते समय एक और ऐसा ही स्टेशन "मदार" से पूर्व आता है- "किशनगढ़"। इस के पास बना तालाब देख मन करता है कि कुछ देर इसके किनारे लगे घने पेड़ के नीचे बैठा रहूँ। चूंकि मेरा गन्तव्य कभी भी "किशनगढ़" नहीं रहा, अतः सरकती रेल की खिड़की से उस जल राशि को देख कर संतोष करना पड़ता है। "मदार" पर बने पत्थर के रेल क्वाटर्स, लहँगा-लुंगड़ी ओढ़े स्त्रियां, साफा बांधे पुरुष और बेतरतीब से उग आए आक के पौधे मुझे एक प्रकार की शान्ति देते हैं। इन लोगो का जीवन कितना सरल है! कोई दिखावा नहीं बस सादगी और बहुत थोड़ी सी जरूरतें।

राणा प्रताप स्टेशन पर तो मैं उतरता ही हूँ। सुबह जब गाड़ी पंहुचती है तो सूर्योदय हो रहा होता है। मेरा कोच तो अक़्सर प्लेटफॉर्म से बाहर ही रुकता है। बहुत छोटा सा स्टेशन है। हम सामने के खुले रास्ते से ही बाहर आ जाते हैं। रंग बिरँगे साफे पहने बहुत से लोग आपको दीख जाएंगे। कोई ऊँट गाड़ी ले जा रहा है तो कँही ऊँट बैठ जुगाली कर रहा है। सामने से आती धूप में धूल कण तैरते रहते है। जब तक हम बाहर जाते है गाड़ी धीरे धीरे सरकने लगती है। और पीछे रह जाता है सूना सा ये छोटा स्टेशन। ऐसी जगहों पर जो मैं महसूस करता हूं, उसे पूरी तरह शब्दों में व्यक्त कर पाना मुश्किल है। बस एक असीम शान्ति ,जैसी यमुना के किनारे खाली बैठे जल राशि को बहते देख मिलती है, मेरे भीतर आ समाती है।

मेरी दिली इच्छा थी कि मैं ऐसे ही किसी छोटे से स्टेशन का स्टेशन मास्टर बनूँ। इस बारे में विस्तार से फिर कभी लिखूंगा। वो इच्छा आज भी है क्योंकि मुझे सरलता पसंद है और स्वभाव कभी बदलना नहीं।

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