कल से तबियत कुछ नासाज़ है। कुछ ख़ास नहीं, वायरल का प्रकोप लगता है। खाँसी, सर दर्द,बदन दर्द, हल्का बुख़ार यही सब चल रहा है। आज जो घर लौटा, तो कार से उतकर, अंदर आना भारी पड़ गया। ऐसी कंपकपी चढ़ी कि क्या बताऊँ। अंदर आते ही ब्लोअर चलाया और कंबल में घुस गया। श्रीमती जी कँही बाहर थी। कंबल में भी दांत बजते रहे। ये सब लिखने का कारण यह है कि जब भी ऐसा होता है, मैं बच्चा बन जाता हूं । माँ आ जाती है कँही से उतरकर और मेरे माथे पर मैं उसका वही बचपन वाला स्पर्श महसूस करता हूँ। ऐसे में वो मेरे सिरहाने बैठ गा गा कर कहानी सुनाती थी। वो मुझे आज भी याद है-
एक कहानी मूंगा रानी
मूंग पुराने बावन काने
अचिया डोल बछिया डोल
बाजे चुटकी नाचे मोर
मैना बैठी पाठ करे थी
बिल्ली बैठी मुँह धोवे थी।
इस का अर्थ मुझे आज भी नहीं पता और शायद माँ को भी नहीं मालूम था। पर इन शब्दों में वो जादू था कि बाल मन मोर, चिड़िया, मैना और बिल्ली में कँही खो जाता था । पास में चलते हैंड पंप की चुरम चूँ इस गीत के साथ ताल मिला देती थी। लगता था कि हैंड पंप भी यही कहानी सुना रहा है। मैं माँ की गोद मे सिमट जाता और माँ अपने आँचल से मुझे ढक लेती। बुखार चढ़ने पर उन दिनों सबसे पहले खाना बंद कर दिया जाता था। फिर बुखार उतरने पर माँ दूध दलिया ले आती। क्या अमृत सा स्वाद होता था उसका।
मुझे याद है एक बार मुझे तिज़ारी बुख़ार चढ़ा। हर तीसरे दिन बुख़ार चढ़ जाए। माँ कई टोटके जानती थी। एक रात उसने मेरे पास कपड़े धोने के सोटे को लिटा दिया। सुबह, " चल रे बुख़ार तुझे गंगा जी नहला लाऊँ" कहते हुए उस सोटे को कँही बाहर छोड़ आई। आज यह बात अवैज्ञानिक लग सकती है पर यह सत्य है कि उस दिन से मुझे बुखार नहीं हुआ। इस के पीछे कोई वैज्ञानिक कारण हो न हो, पर ये माँ की ममता ही थी जो बच्चे पर से सभी अलाएँ- बलाएँ हर लेती थी। मैंने बचपन में एक बार नहीं अनेक बार ऐसा होते देखा है।
जब भी मेरी तबियत खराब होती है, माँ बहुत याद आती है।
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