Saturday, 31 March 2018

मेरा कॉलेज

जब मैं पढ़ रहा था तो सोचता था कि पढ़ाई समाप्त होगी तो ये करूँगा या फिर वो करूँगा। अब जब विगत कई दशकों से किताबी पढ़ाई, जिसे पढ़कर परीक्षा उतीर्ण करनी होती है, समाप्त हो चुकी है तब लगता है कि काश मैं अभी भी किताबी पढ़ाई पढ़ रहा होता तो ही अच्छा था ! क्योंकि जीवन की पढ़ाई और इसकी रोज़ होने वाली परीक्षाएं उस किताबी पढ़ाई और उसकी परीक्षाओं से कँही कठिन निकली । और उसे तो बीच में छोड़ा भी जा सकता था पर ये परीक्षा तो सतत चलती ही रहती है । और हर बार सिलेबस  से बाहर का ही प्रश्न पत्र मिलता है। इसके लीक हो जाने की तो कतई भी संभावना नहीं है। हर दिन एक नई परीक्षा ! मैं ये सब कँहा जानता था।

आज याद आ रहा है वो समय जब मैं छात्र हुआ करता था। मेरी पढ़ाई स्वयं से की हुई पढ़ाई है। क्योंकि मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का बाह्य छात्र था अतः कॉलेज मैंने नहीं देखा। परीक्षा के सिलेबस को देख नई सड़क से पुरानी किताबें ख़रीद लानी और बस पढ़ाई शुरू। स्वयं ही पढ़ो और स्वयं ही समझो। न समझ आये तो पुनः पुनः पढ़ो। घर छोटा था। दो भाई और एक बहिन थी। एक भाई और बहिन तो बहुत छोटे थे। ऐसे मैं घर में पढ़ना कठिन होने लगा। मैंने इसका एक उपाय ख़ोज लिया था। सुबह 9 बजे, झोले में किताबें, दोपहर का खाना और एक दरी डाल मैं चला जाता था रेल पटरियों के उस पार बने रौशनआरा बाग में। ये विस्तृत बाग जिसमें जलाशय, पुरानी बारादरियां, हरियाली और सुकून था। बाग के काफ़ी अंदर जा कर मैं अपनी दरी बिछाता और फिर शुरू होता मेरा स्वयं का कॉलेज। जिसमें मैं ही लेक्चरर था और मैं ही छात्र। एक एक घँटे के 8 पीरियड्स लगते थे। बारी बारी से अलग अलग विषय पढ़ाये जाते थे। दुपहर 2 बजे के लगभग लंच होता था। खाना खा कर दरी, किताबें समेट कुछ दूर बने प्याऊ तक जाता था। वँहा कुँए का ठंडा, मीठा पानी पीता। वापस आ आधा घँटे किसी पेड़ के नीचे लेट जाता। और पुनः क्लास लगती। शाम 5 बजे जब चिड़ियों की चहचहाट बढ़ने लगती और दिन भर तप कर सूर्य अस्ताचल की और चले जाते तो मैं भी अपना कॉलेज बन्द करता। दरी, किताबें, खाली टिफिन सब झोले में डाल लौट पड़ता घर को। वापस आते हुए एक बार फिर से प्याऊ का ठंडा जल जी भर कर पीता और रेल पटरियां पार कर घर लौट आता।

चाय की तलब तब तक ज़ोर पकड़ चुकी होती थी। माँ चाय पर प्रतीक्षारत  होती। आस पास के क्वाटरों में अंगीठींयां सुलगा दी जाती थी। उनसे उठते सफ़ेद गाढ़े धुंए से कोयलों की महक पूरे वातावरण में फैलने लगती। सब्ज़ी मंडी स्टेशन पर पानीपत जाने वाली गाड़ी आ रुकती। और तेज़ सीटी दे काला भयावह इंजन धुँआ फैलता छुक छुक कर आगे बढ़ जाता। खिड़कियों की सलाखों के पीछे से मैं तब तक देखता रहता जब तक गाड़ी ओझल न हो जाये।

ये रौशनआरा बाग, इसके विशाल वृक्ष और वो जलाशय आज भी मूक साक्षी है उस कॉलेज के ,जो रोज़ वँहा लगता था। जिसमें एक ही लेक्चरर था और वो ही छात्र भी। वो प्याऊ आज भी है। पर उस तरफ़ गए समय हो गया है। ये जिंदगी की परीक्षाएं समाप्त हों तो सोचता हूं एक चक्कर लगा ही आऊं।

Friday, 23 March 2018

बचपन के दिन भी क्या दिन थे

कभी कभी जब यादें उमड़ घुमड़ आती है सावन के बादलों सी और घेर लेती हैं चारों और से तो मन चला जाता है दशकों पीछे । इससे पूर्व के जन्म भी अगर याद रहते हो उन जन्मों में भी ले जाता मन खींच कर। शायद इसलिए भगवान ने अच्छा ही किया जो वर्तमान जन्म से पूर्व के जन्मों की स्मृति नहीं दी।नहीं तो ये मन तो ऐसा ही बावरा है, भटकाता रहता उन जन्मों से जुड़ी स्मृतियों से।

आज मुझे ये ले आया है वर्ष १९६९ में। शहर जोधपुर, उम्र  १० वर्ष मात्र, स्थान सोजती गेट के पास। स्टेशन रोड से जाते हुए सोजती गेट पार करते ही एक गली थी; अच्छी भली चौड़ाई लिए। उस में घुसते ही दाईं और कुछ घर थे। थोड़ा आगे चलते ही एक विशाल पीपल का वृक्ष था, जिसके नीचे शिव लिंग शिव परिवार के साथ स्थापित था। नीचे एक छोटा सा माल गोदाम था। कुछ दूर आगे चल कर दोनों और मकानों की कतार थी । उनमें से एक में हमारा परिवार रहता था। बीच मे खुला आँगन, जिसके एक तरफ़ से सीढ़िया ऊपर जाती थी। तीन मंजिल के इस मकान में कई किरायेदार थे। हम नीचे की मंज़िल पर एक कमरे में रहते थे। रसोई घर आँगन में था। और उस आँगन में एक ही नल था। पानी की बहुत कमी थी राजस्थान के इस शहर में । नहाने में भी कंजूसी बरतनी पड़ती थी। एक बाल्टी पानी से अगर ज्यादा से नहाते देख लिया तो मकान मालिक ऊपर से ही चिल्लाती थी।

वहीं एक पारो बाई रहती थी। आँगन से एक और सीढ़िया पारो बाई की खुली छत तक जाती थीं। छत के एक छोर पर एक कमरा बना था जिसमें पारो बाई अकेली ही रहती थी। उम्र की आखरी देहलीज़ पर थी पारो बाई।चेहरा झुरियों से भरा था। तांबे जैसा पक्का रंग था। पर लहँगा चोली एक दम चटक रंगों के पहनती थी। माथे पर लटका बोड़ला, पैरों और हाथों में मोटे चांदी के आभूषण। बोली ऐसी कड़क कि सुनने वाला डर ही जाए; पर दिल बच्चों सा। उन दिनों मुझे प्रोजेक्टर बनाने की धुन थी। जूते का डिब्बा, मोटे कांच का लेंस, और टार्च ये सब जुटा कर मैंने एक प्रोजेक्टर जैसे तैसे बना ही लिया था। ये मेरे जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धी थी और मैं इसके गर्व में फूला-फूला फिरता था। आनन्द सिनेमा हाल घर के पीछे ही था। वो शायद हमारे मकान मालिक का ही था या उनके किसी रिश्तेदार का रहा होगा। जो भी हो, उस के प्रोजेक्टर रूम तक हमारी अबाध पँहुच थी। प्रोजेक्टर रूम में ऊँचे से स्टूल पर बैठकर मैंने बहुत फिल्में देखी हैं। मनोज कुमार की "उपकार" फ़िल्म ने जब उस थियेटर पर 100 दिन पूरे किए थे तो लड्डू बांटे गए थे। तो मैं बात कर रहा था प्रोजेक्टर की। उसकी फ़िल्म स्लाइड्स मुझे उस प्रोजेक्टर रूम से मिल जाती थी, जिन्हें काट काट कर गत्ते के फ्रेम में फंसा कर मैं दीवार पर या सफ़ेद चादर पर अपने प्रोजेक्टर से प्रोजेक्ट करता था। पारो बाई का कमरा इस प्रयोग के लिए निरापद था। एक बार मैं पारो बाई को प्रोजेक्ट कर स्लाइड्स दिखा रहा था। एक स्लाइड में भगवान राम की तस्वीर प्रोजेक्ट हुई। पारो बाईं उठ कर पर्दे तक गई और प्रोजेक्ट हो रही फ़िल्म को माथा टेक आई, मानो साक्षात भगवान ने ही दर्शन दिए हों। ऐसी सरल ह्रदय थी पारो बाई।

हमारे सामने के मकानों के एक मकान में यशपाल रहता था। उम्र में मुझसे बड़ा था। पर पोलियो की वजह से एक पैर से दिव्यांग था। उनकी प्रिंटिंग प्रेस थी। वो अपने साइड पर बने बिस्तर पर ही अधिकतर रहता था। एक शीशे का कपबर्ड था उसके बिस्तर के सिरहाने जिसमें उसके तरह तरह के खिलौने थे। जो वह कभी कभी हमें दिखा दिया करता था। प्रोजेक्टर बनाने में उस ने मेरी काफ़ी मदद की थी। जब प्रॉजेक्टर की स्लाइड उल्टी प्रोजेक्ट होने से मैं परेशान था तो उसी ने सुझाया था कि फिल्म उल्टी लगाओ तो सीधी प्रोजेक्ट होगी। उनके पास की कोठी खाली थी। बाहर से ताला लगा था। यशपाल के मकान की छत उस कोठी से लगती थी। बच्चे कहते थे कि उसमें भूत रहते हैं। यशपाल भी कहता था कि रात में पायल बजने की आवाज़ें आती हैं। पर फिर भी हम बच्चे कभी कभी छत फांद कर वँहा चले जाते थे।

गली के कोने वाले मकान में गोपाल रहता था। जैसा नाम वैसी ही मुखाकृति थी; सौम्यता लिए हुए। मेरा अच्छा मित्र बन गया था गोपाल। मैं अक्सर उसके घर जाता था और वह अपनी कहानियों की किताबें साझी करता।

हमारे कमरे से सटा ही एक और कमरा था जिसमे ज्ञान रहता था। उनका ट्रांसपोर्ट का बिज़नेस था। उनके पिता जी अक्सर बस लेकर जाते थे और कई कई दिन बाहर ही रहते थे। वह मेरी माँ के मुँह बोले भाई थे।माँ दिल्ली आने के बाद भी कई वर्षों तक नियमित रूप से उन्हें राखी भेजती थी।  ज्ञान से मेरी खूब पटती थी। पहली मंजिल पर थे दो भाई-रमेश और सुरेश। दोनों उम्र में बड़े थे और एक भाई विज्ञान का छात्र था तो दूसरा बुककीपिंग का। उसके बड़े बड़े  लेज़र देख कर ही जिसमें वह सुन्दर हस्तलेख से जर्नल प्रवष्टियाँ जिनकी नरेशन लाल स्याही से लिखी रहती थी किया करता था, मुझे कॉमर्स पढ़ने का चाव लगा था।

पास के घर में रहती थी गिन्नी। उनके यँहा एक बड़े से पिंजरे में बहुत सी रंग बिरंगी चिड़ियाएँ थी। मैं अक्सर शाम की वँहा जाता और उन्हें देखा करता।

समय पंख लगा कर उड़ गया। देखते ही देखते एक वर्ष कब गुज़र गया, पता ही नहीं चला। पांचवी कक्षा पास करते करते पापा का तबादला दिल्ली हो गया। और एक दिन हम सब को छोड़, दिल्ली चले आये। यादें रह गईं कँही दबी हुई उस प्रवास की।

संयोग ऐसा हुआ कि मेरी पहली पोस्टिंग भी जोधपुर ही मिली या यूं कंहूँ, मैंने मांग कर ली। कई वर्षों बाद एक बार मैं फिर आया उस गली में, उसी मौहल्ले में।पर तब तक तो बहुत कुछ बदल गया था। मकान और इमारतें जरूर अपनी जगह थीं पर उनमे रहने वाले बदल गए थे।

आज इतने वर्षों बाद फिर वहीं पर आया हूँ, मन से ही सही। जिन लोगो का मैंने ऊपर जिक्र किया है उनमें से बहुत से तो शायद अब नहीं रहे होंगे। मेरे साथ के बच्चे अधेड़ हो चुके होंगे और दादा-दादी, नाना-नानी बन चुके होंगे। पर मेरी यादों में वो सब आज भी वैसे ही हैं। ज्ञान को ढूंढने की मैंने बहुत कोशिश की पर उससे संपर्क नहीं हो सका। वो जँहा भी होगा, अपने ट्रांसपोर्ट के बिज़नेस में व्यस्त होगा। शायद किसी मोड़ पर उससे भेंट हो जाये तो हम अपनी स्मृतियों को, जीवन के अनुभवों को घँटों साथ बैठ बांटेगे।

Sunday, 11 March 2018

मान न मान, मैं तेरा मेहमान

कभी कभी बड़े हास्यास्पद किस्से हो जाते हैं। पर मुझे लगता है कि मेरे साथ ये कुछ ज़्यादा ही होते है। ऐसे बहुत से किस्से हैं जिनमें से सब तो इस प्लेटफ़ॉर्म पर साझा भी नहीं किये जा सकते। पर यक़ीन मानिये कि इन सब में मेरा कोई हाथ नहीं होता और न ही जानबूझ कर की गई कोई चेष्टा ही होती है। वो तो ऐसे किस्से अनजाने में बस घट ही जाते हैं। कल कुछ ऐसा ही क़िस्सा फिर हुआ मेरे साथ।

कल मेरे छोटे भाई के यानि चाचा जी के बेटे के यँहा सुन्दरकाण्ड के पाठ का आयोज़न था। जब चाचाजी जीवित थे तो मेरा वँहा अक़्सर आना जाना रहता था। अब पिछले 8 वर्षों से बस ऐसे ही आयोजनों पर जाना हो पाता है। कल भी मैं काफी अंतराल के बाद उनके घर गया। पिछली बार मैं तब गया था जब उन्होंने दूसरी मंजिल का निर्माण कराया था और वह ग्राउंड फ्लोर से फर्स्ट फ्लोर में शिफ़्ट हुए थे। इस अंतराल में भाई ने दूसरी मंजिल का भी निर्माण कर लिया था। मुझे तो यही ज्ञात था कि छत से उतरते ही उनका मकान था।

तो कल हम दोपहर 3 बजे वँहा पँहुचे। लंच का समय तो निकल चुका था पर उनके आग्रह पर हम छत पर गए जँहा हलवाई बैठा था। थोड़ा बहुत खाना खा कर मैं नीचे उतर आया और पत्नी व बहनें  ऊपर ही बतियाते रहे। वज़ीराबाद के पुल पर डेढ़ घँटे जाम में फंसा मैं थक गया था और भोजन पेट मे पड़ते ही लेटने की इच्छा बलबती हो उठी थी। मैं एक मंज़िल उतरा और अंदर घर में आ गया। वँहा ड्राइंग रूम में एक महिला और एक लडक़ी बैठी थी जिन्हें मैं ने नहीं पहिचाना। सोचा कोई मिलने वाले आये होंगे। सीधा किचन में गया। जूठे हाथ धोये और बेड रूम में घुस गया। अटैच वॉशरूम का प्रयोग किया। बिस्तर पर मिक्सी पड़ी थी, उसे उठा कर ठिकाने रखा। चादर ठीक करी, तकिया लगाया और लेट गया। लेटे लेटे मैंने देखा कि वह महिला बाहर दरवाज़े पर खड़ी थी।अभी पांच मिनट ही बीते होंगे, कि ऊपर से पत्नी, दोनों बहिनें और भाभी नीचे उतरीं। तो अंदर न आकर एक मंजिल और उतरने लगीं। मुझे लगा, कुछ गड़बड़ है। शायद मैं किसी और के घर में घुस आया हूं। अचकचाकर मैं उठा और सीधा एक मंजिल और उतरा। यँहा सभी जाने पहचाने लोग थे। तो मैं गलती से दूसरी मंज़िल पर रह रहे किरायेदार के घर में घुस गया था। तब मुझे समझ आया कि वो महिला हैरान परेशान सी मुझे क्यों देख रही थी। और गेट पर जाकर क्यों खड़ी हो गईं थी। बाकी सब तो हँस रहे थे और मैं सोच रहा था कि ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है। जरा सोचिए, कोई अज़नबी आपके घर अनाधिकार घुसा चला आये और सीधा बेड रूम में जा सो जाए तो आपको कैसा लगेगा। ग़लती तो थी पर अनजाने में हुई थी। बस कमी यह रही कि मैं चलते समय अपनी इस धृष्टता के लिए उस परिवार से माफ़ी नहीं मांग पाया।