जब मैं पढ़ रहा था तो सोचता था कि पढ़ाई समाप्त होगी तो ये करूँगा या फिर वो करूँगा। अब जब विगत कई दशकों से किताबी पढ़ाई, जिसे पढ़कर परीक्षा उतीर्ण करनी होती है, समाप्त हो चुकी है तब लगता है कि काश मैं अभी भी किताबी पढ़ाई पढ़ रहा होता तो ही अच्छा था ! क्योंकि जीवन की पढ़ाई और इसकी रोज़ होने वाली परीक्षाएं उस किताबी पढ़ाई और उसकी परीक्षाओं से कँही कठिन निकली । और उसे तो बीच में छोड़ा भी जा सकता था पर ये परीक्षा तो सतत चलती ही रहती है । और हर बार सिलेबस से बाहर का ही प्रश्न पत्र मिलता है। इसके लीक हो जाने की तो कतई भी संभावना नहीं है। हर दिन एक नई परीक्षा ! मैं ये सब कँहा जानता था।
आज याद आ रहा है वो समय जब मैं छात्र हुआ करता था। मेरी पढ़ाई स्वयं से की हुई पढ़ाई है। क्योंकि मैं दिल्ली विश्वविद्यालय का बाह्य छात्र था अतः कॉलेज मैंने नहीं देखा। परीक्षा के सिलेबस को देख नई सड़क से पुरानी किताबें ख़रीद लानी और बस पढ़ाई शुरू। स्वयं ही पढ़ो और स्वयं ही समझो। न समझ आये तो पुनः पुनः पढ़ो। घर छोटा था। दो भाई और एक बहिन थी। एक भाई और बहिन तो बहुत छोटे थे। ऐसे मैं घर में पढ़ना कठिन होने लगा। मैंने इसका एक उपाय ख़ोज लिया था। सुबह 9 बजे, झोले में किताबें, दोपहर का खाना और एक दरी डाल मैं चला जाता था रेल पटरियों के उस पार बने रौशनआरा बाग में। ये विस्तृत बाग जिसमें जलाशय, पुरानी बारादरियां, हरियाली और सुकून था। बाग के काफ़ी अंदर जा कर मैं अपनी दरी बिछाता और फिर शुरू होता मेरा स्वयं का कॉलेज। जिसमें मैं ही लेक्चरर था और मैं ही छात्र। एक एक घँटे के 8 पीरियड्स लगते थे। बारी बारी से अलग अलग विषय पढ़ाये जाते थे। दुपहर 2 बजे के लगभग लंच होता था। खाना खा कर दरी, किताबें समेट कुछ दूर बने प्याऊ तक जाता था। वँहा कुँए का ठंडा, मीठा पानी पीता। वापस आ आधा घँटे किसी पेड़ के नीचे लेट जाता। और पुनः क्लास लगती। शाम 5 बजे जब चिड़ियों की चहचहाट बढ़ने लगती और दिन भर तप कर सूर्य अस्ताचल की और चले जाते तो मैं भी अपना कॉलेज बन्द करता। दरी, किताबें, खाली टिफिन सब झोले में डाल लौट पड़ता घर को। वापस आते हुए एक बार फिर से प्याऊ का ठंडा जल जी भर कर पीता और रेल पटरियां पार कर घर लौट आता।
चाय की तलब तब तक ज़ोर पकड़ चुकी होती थी। माँ चाय पर प्रतीक्षारत होती। आस पास के क्वाटरों में अंगीठींयां सुलगा दी जाती थी। उनसे उठते सफ़ेद गाढ़े धुंए से कोयलों की महक पूरे वातावरण में फैलने लगती। सब्ज़ी मंडी स्टेशन पर पानीपत जाने वाली गाड़ी आ रुकती। और तेज़ सीटी दे काला भयावह इंजन धुँआ फैलता छुक छुक कर आगे बढ़ जाता। खिड़कियों की सलाखों के पीछे से मैं तब तक देखता रहता जब तक गाड़ी ओझल न हो जाये।
ये रौशनआरा बाग, इसके विशाल वृक्ष और वो जलाशय आज भी मूक साक्षी है उस कॉलेज के ,जो रोज़ वँहा लगता था। जिसमें एक ही लेक्चरर था और वो ही छात्र भी। वो प्याऊ आज भी है। पर उस तरफ़ गए समय हो गया है। ये जिंदगी की परीक्षाएं समाप्त हों तो सोचता हूं एक चक्कर लगा ही आऊं।
No comments:
Post a Comment