Friday, 23 March 2018

बचपन के दिन भी क्या दिन थे

कभी कभी जब यादें उमड़ घुमड़ आती है सावन के बादलों सी और घेर लेती हैं चारों और से तो मन चला जाता है दशकों पीछे । इससे पूर्व के जन्म भी अगर याद रहते हो उन जन्मों में भी ले जाता मन खींच कर। शायद इसलिए भगवान ने अच्छा ही किया जो वर्तमान जन्म से पूर्व के जन्मों की स्मृति नहीं दी।नहीं तो ये मन तो ऐसा ही बावरा है, भटकाता रहता उन जन्मों से जुड़ी स्मृतियों से।

आज मुझे ये ले आया है वर्ष १९६९ में। शहर जोधपुर, उम्र  १० वर्ष मात्र, स्थान सोजती गेट के पास। स्टेशन रोड से जाते हुए सोजती गेट पार करते ही एक गली थी; अच्छी भली चौड़ाई लिए। उस में घुसते ही दाईं और कुछ घर थे। थोड़ा आगे चलते ही एक विशाल पीपल का वृक्ष था, जिसके नीचे शिव लिंग शिव परिवार के साथ स्थापित था। नीचे एक छोटा सा माल गोदाम था। कुछ दूर आगे चल कर दोनों और मकानों की कतार थी । उनमें से एक में हमारा परिवार रहता था। बीच मे खुला आँगन, जिसके एक तरफ़ से सीढ़िया ऊपर जाती थी। तीन मंजिल के इस मकान में कई किरायेदार थे। हम नीचे की मंज़िल पर एक कमरे में रहते थे। रसोई घर आँगन में था। और उस आँगन में एक ही नल था। पानी की बहुत कमी थी राजस्थान के इस शहर में । नहाने में भी कंजूसी बरतनी पड़ती थी। एक बाल्टी पानी से अगर ज्यादा से नहाते देख लिया तो मकान मालिक ऊपर से ही चिल्लाती थी।

वहीं एक पारो बाई रहती थी। आँगन से एक और सीढ़िया पारो बाई की खुली छत तक जाती थीं। छत के एक छोर पर एक कमरा बना था जिसमें पारो बाई अकेली ही रहती थी। उम्र की आखरी देहलीज़ पर थी पारो बाई।चेहरा झुरियों से भरा था। तांबे जैसा पक्का रंग था। पर लहँगा चोली एक दम चटक रंगों के पहनती थी। माथे पर लटका बोड़ला, पैरों और हाथों में मोटे चांदी के आभूषण। बोली ऐसी कड़क कि सुनने वाला डर ही जाए; पर दिल बच्चों सा। उन दिनों मुझे प्रोजेक्टर बनाने की धुन थी। जूते का डिब्बा, मोटे कांच का लेंस, और टार्च ये सब जुटा कर मैंने एक प्रोजेक्टर जैसे तैसे बना ही लिया था। ये मेरे जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धी थी और मैं इसके गर्व में फूला-फूला फिरता था। आनन्द सिनेमा हाल घर के पीछे ही था। वो शायद हमारे मकान मालिक का ही था या उनके किसी रिश्तेदार का रहा होगा। जो भी हो, उस के प्रोजेक्टर रूम तक हमारी अबाध पँहुच थी। प्रोजेक्टर रूम में ऊँचे से स्टूल पर बैठकर मैंने बहुत फिल्में देखी हैं। मनोज कुमार की "उपकार" फ़िल्म ने जब उस थियेटर पर 100 दिन पूरे किए थे तो लड्डू बांटे गए थे। तो मैं बात कर रहा था प्रोजेक्टर की। उसकी फ़िल्म स्लाइड्स मुझे उस प्रोजेक्टर रूम से मिल जाती थी, जिन्हें काट काट कर गत्ते के फ्रेम में फंसा कर मैं दीवार पर या सफ़ेद चादर पर अपने प्रोजेक्टर से प्रोजेक्ट करता था। पारो बाई का कमरा इस प्रयोग के लिए निरापद था। एक बार मैं पारो बाई को प्रोजेक्ट कर स्लाइड्स दिखा रहा था। एक स्लाइड में भगवान राम की तस्वीर प्रोजेक्ट हुई। पारो बाईं उठ कर पर्दे तक गई और प्रोजेक्ट हो रही फ़िल्म को माथा टेक आई, मानो साक्षात भगवान ने ही दर्शन दिए हों। ऐसी सरल ह्रदय थी पारो बाई।

हमारे सामने के मकानों के एक मकान में यशपाल रहता था। उम्र में मुझसे बड़ा था। पर पोलियो की वजह से एक पैर से दिव्यांग था। उनकी प्रिंटिंग प्रेस थी। वो अपने साइड पर बने बिस्तर पर ही अधिकतर रहता था। एक शीशे का कपबर्ड था उसके बिस्तर के सिरहाने जिसमें उसके तरह तरह के खिलौने थे। जो वह कभी कभी हमें दिखा दिया करता था। प्रोजेक्टर बनाने में उस ने मेरी काफ़ी मदद की थी। जब प्रॉजेक्टर की स्लाइड उल्टी प्रोजेक्ट होने से मैं परेशान था तो उसी ने सुझाया था कि फिल्म उल्टी लगाओ तो सीधी प्रोजेक्ट होगी। उनके पास की कोठी खाली थी। बाहर से ताला लगा था। यशपाल के मकान की छत उस कोठी से लगती थी। बच्चे कहते थे कि उसमें भूत रहते हैं। यशपाल भी कहता था कि रात में पायल बजने की आवाज़ें आती हैं। पर फिर भी हम बच्चे कभी कभी छत फांद कर वँहा चले जाते थे।

गली के कोने वाले मकान में गोपाल रहता था। जैसा नाम वैसी ही मुखाकृति थी; सौम्यता लिए हुए। मेरा अच्छा मित्र बन गया था गोपाल। मैं अक्सर उसके घर जाता था और वह अपनी कहानियों की किताबें साझी करता।

हमारे कमरे से सटा ही एक और कमरा था जिसमे ज्ञान रहता था। उनका ट्रांसपोर्ट का बिज़नेस था। उनके पिता जी अक्सर बस लेकर जाते थे और कई कई दिन बाहर ही रहते थे। वह मेरी माँ के मुँह बोले भाई थे।माँ दिल्ली आने के बाद भी कई वर्षों तक नियमित रूप से उन्हें राखी भेजती थी।  ज्ञान से मेरी खूब पटती थी। पहली मंजिल पर थे दो भाई-रमेश और सुरेश। दोनों उम्र में बड़े थे और एक भाई विज्ञान का छात्र था तो दूसरा बुककीपिंग का। उसके बड़े बड़े  लेज़र देख कर ही जिसमें वह सुन्दर हस्तलेख से जर्नल प्रवष्टियाँ जिनकी नरेशन लाल स्याही से लिखी रहती थी किया करता था, मुझे कॉमर्स पढ़ने का चाव लगा था।

पास के घर में रहती थी गिन्नी। उनके यँहा एक बड़े से पिंजरे में बहुत सी रंग बिरंगी चिड़ियाएँ थी। मैं अक्सर शाम की वँहा जाता और उन्हें देखा करता।

समय पंख लगा कर उड़ गया। देखते ही देखते एक वर्ष कब गुज़र गया, पता ही नहीं चला। पांचवी कक्षा पास करते करते पापा का तबादला दिल्ली हो गया। और एक दिन हम सब को छोड़, दिल्ली चले आये। यादें रह गईं कँही दबी हुई उस प्रवास की।

संयोग ऐसा हुआ कि मेरी पहली पोस्टिंग भी जोधपुर ही मिली या यूं कंहूँ, मैंने मांग कर ली। कई वर्षों बाद एक बार मैं फिर आया उस गली में, उसी मौहल्ले में।पर तब तक तो बहुत कुछ बदल गया था। मकान और इमारतें जरूर अपनी जगह थीं पर उनमे रहने वाले बदल गए थे।

आज इतने वर्षों बाद फिर वहीं पर आया हूँ, मन से ही सही। जिन लोगो का मैंने ऊपर जिक्र किया है उनमें से बहुत से तो शायद अब नहीं रहे होंगे। मेरे साथ के बच्चे अधेड़ हो चुके होंगे और दादा-दादी, नाना-नानी बन चुके होंगे। पर मेरी यादों में वो सब आज भी वैसे ही हैं। ज्ञान को ढूंढने की मैंने बहुत कोशिश की पर उससे संपर्क नहीं हो सका। वो जँहा भी होगा, अपने ट्रांसपोर्ट के बिज़नेस में व्यस्त होगा। शायद किसी मोड़ पर उससे भेंट हो जाये तो हम अपनी स्मृतियों को, जीवन के अनुभवों को घँटों साथ बैठ बांटेगे।

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