Saturday, 21 July 2018

विजयोल्लास

सिद्धान्त बना लेना और उस पर टिके रहना दो अलग अलग बातें हैं। उसने सिद्धान्त बना तो लिया था कि वो नशा नहीं करेगा पर क्या मौका पड़ने पर वो डगमगा जाएगा? ये नशा न करने की प्रतिज्ञा से स्वयं को बांधने की उसे क्या सूझी?

ये उन दिनों की बात है जब वो स्कूल में था। किसी एक व्यक्ति ने एक दिन उसकी माँ से चुगली करी।

'आन्टी जी, ये आपका बेटा किसी गलत संगत में पड़ गया है। मैंने आज स्कूल के बाहर अपनी आँखों से इसे  सिगरेट पीते देखा है।'

उसने पीछे से आते हुए माँ का जवाब सुन लिया था, ' तुम्हें कोई ग़लतफ़हमी हुई होगी। मैं मान ही नहीं सकती की उसने सिगरेट पी होगी। तुमने जरूर किसी और को देखा होगा। '

चुगली करने वाला तो अपना सा मुँह लेकर चला गया पर उस पर एक बड़ी जिम्मेदारी छोड़ गया था , माँ का विश्वास बनाये रखने की।  माँ ने उससे इस बारे में कभी नहीं पूँछा। तभी से उसने सोच लिया था कि यदि कभी सिगरेट पीयेगा तो माँ को बता कर पीयेगा। पर अब तो वो कोई भी नशा न करने की प्रतिज्ञा से बंध चुका था।

उसकी पहली पोस्टिंग राजस्थान के एक छोटे से शहर में हुई थी। मुश्किल से 18 से कुछ ही ऊपर का रहा होगा। अभी ठीक से मूंछे भी नहीं आईं थी कि घर का आराम छोड़ अकेला घर से दूर आ गया था।

स्वतन्त्रता एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी भी साथ लाती है यदि कोई समझे तो।

माँ ने समझाया था, 'तू घर का सबसे बड़ा बच्चा है। मुझे तुझसे बहुत उम्मीदें हैं। अकेला इतनी दूर जा रहा है। मुझे पता है तू संभल के चलेगा, पर फिर भी कोई ऐसा काम न करना जिससे मुझे शर्मिंदा होना पड़े।'

पहली बार उसे चार सौ पच्चीस  रुपए वेतन मिला था। इतनी बड़ी रक़म उसने हाथ में पहले नहीं ली थी। वेतन उन दिनों नक़द मिलता था। वो वेतन ले सीधा डाक घर गया। दो सौ रुपये उसने घर मनीऑर्डर करा दिए । बाकी बचे पैसे उसके लिए बहुत थे। चालीस  रुपए कमरे का किराया दे कर भी वो  आराम से महीना काट सकता था। फिर तो यह हर माह का उपक्रम हो गया था। माँ को उसके मनीऑर्डर का बेसब्री से इंतज़ार रहता। वो भी कभी चूक नहीं करता था- एक दिन की भी नहीं। पैसों का आभाव क्या होता है, वो इस कच्ची उम्र में ही जानता था।

आज भी उसे आनन्द याद है। सम्पन्न घर से था। घर उसे कुछ नहीं भेजना होता था। वरन आवश्यकता होती तो घर से और पैसे मंगा लिया करता था। आनन्द उससे अक़्सर पूँछता कि वो पैसे घर क्यों भेजता है?

'अरे यही तो दिन हैं, अपने पर खर्च कर।' आनन्द अक़्सर कहा करता।

आनन्द को सिगरेट पीने की लत थी। सिगरेट सुलगा कर जब वो गहरे कश लेता तो सिगरेट का अग्र भाग चमक उठता। फिर जब  वह धुंए के छल्ले बना हवा में उड़ाता तो उसके चेहरे पर एक सन्तुष्टी का भाव होता। आंखे बंद कर सिगरेट उँगलियों में दबाये वह उसे कोई विचारक लगता। गोल्डन फ़्रेम का चश्मा उसकी इस मुद्रा पर बहुत जमता था। बची सिगरेट के टुकड़े को जब वह नीचे फ़ेंक अपने चमचमाते नुकीले जूते के अगले हिस्से से मसलता तो लगता सिगरेट को नहीं अपने किसी विरोधी का सर कुचल रहा हो। पर जल्द ही उसे बेचैनी होने लगती और एक नई सिगरेट सुलगा लेता। आनन्द ने कई बार कोशिश की उसे सिगरेट पिलाने की पर वो  हर बार कोई न कोई बहाना बना टाल जाता।

उस दिन पहली तारीख थी। वेतन मिला ही था और वो  डाक घर जाने का विचार कर रहा था, कि आनन्द उसके साथ हो लिया। कार्यालय से कुछ दूरी पर पान की दुकान थी । आनन्द अक़्सर वंही से सिगरेट खरीदता था। चलते चलते वह वँहा रुक गया। एक पैकेट सिगरेट ख़रीदी और उसमें से एक निकाली। उसे ठेले पर लटकती मोटी सी जलती रस्सी से सिगरेट सुलगाना पसंद नहीं था। वो हमेशा सिगरेट सुलगाने के लिए अपना लाइटर प्रयोग करता था। उसने सिगरेट सुलगाई, एक गहरा कश लिया और उसकी और बढ़ा दी।

'ले आज पी कर तो देख',उसने आग्रह किया। पर उसने सदा की तरह मना कर दिया।

पान वाला उन दोनों से परिचित था। बोला, 'आनन्द बाबू ! हम तो जब मानें तब तुम इन्हें सिगरेट पिला कर दिखाओ।'

आनन्द ने चुनोती स्वीकार ली, 'अच्छा ये बात है तो आज मैं इसे सिगरेट पिला कर ही मानूँगा।'

आनन्द ने जेब से पर्स निकाला और पचास का नया नोट सामने रख दिया।

सिगरेट आगे बढ़ाते हुए बोला, 'बस एक कश और ये नोट तेरा।' 

उस समय पचास रुपये एक बड़ी रक़म थी। कम से कम उसके लिए तो थी ही। चालीस रुपए महीना तो उसके कमरे का किराया ही था। उसने न करते हुए सिर हिलाया। आनन्द का पर्स फिर खुला, इस बार नया सौ रुपए का नोट उसने निकाला और पचास के ऊपर रख दिया, 'एक कश और ये डेढ़ सौ रुपये तेरे।' वो नहीं डिगा।

आनन्द के अहम को शायद चोट पँहुची थी। आख़िर ऐसी भी क्या जिद! रकम बढ़ती रही और वह अड़ा रहा। तमाशबीनों की वहाँ भीड़ जुट गई थी। तंग आकर आनन्द ने अपना पर्स ही रख दिया,' इसमें जो भी रक़म है, सब तेरी। बस एक कश लगाना है।' वो बस मुस्करा दिया था।  सिगरेट भी इतनी देर में जल के समाप्त होने को थी। आनन्द की उँगलियों ने जलन का अहसास किया तो उसने बचा हुआ टुकड़ा नीचे डाल दिया और जूते के पंजे से मसल दिया। उसका क्रोध, उसकी निराशा उस बचे हुए टुकड़े को मसलते हुए उसके चेहरे पर आ ही गई थी।

आनन्द ने अपना पर्स उठाया और पैर पटकता हुआ चला गया। वह भी डाक घर की और मुड़ गया। माँ प्रतीक्षा में होगी। आज मनीऑर्डर न हुआ तो कल रविवार था। उसने अपनी गति बढ़ा ली थी। बिना शीशे के भी वो अपने चेहरे पर आई हुई विजयोल्लास की चमक देख पा रहा था। वह अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ था।

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