इन दिनों पत्नी बेटी के पास गई हुई है। वो कैसे लोग होते हैं जो पत्नी के मायके जाने पर स्वतन्त्रता दिवस मनाते हैं ! मैं तो इन दिनों जो भुगत रहा हूँ, मैं ही जानता हूँ। ऐसी ही एक सुबह की झलक आप की नज़र है। खुश हो जाइए कि आपकी श्रीमती जी घर पर हैं।
अल्ल सुबह अलार्म ने मीठी नींद से जगा दिया। एक तकिया सिरहाने लगा और दूसरा बगल में दबा मैं फिर कम्बल में और अंदर घुस गया। पाँच मिनट और । बस, अभी उठता हूँ।
ये कौन सुबह सुबह दरवाज़े की घण्टी बजा रहा है। अभी तो कामवाली के आने का भी समय नहीं हुआ। कम्बल से मुँह निकाल उनींदी आंखों से घड़ी पर नज़र डाली। अरे ! पौने सात ! अभी तो साढ़े पाँच का अलार्म बजा था। पांच मिनट ही तो बीते होंगें। आंखे फाड़ कर फिर से घड़ी पर नज़र डाली। तभी दरवाज़े की घण्टी फिर बज उठी - डिंग डांग। डिंग डांग। जरूर कामवाली ही होगी। उसी का समय हो रहा है। "आता हूँ।" ,कह कर कम्बल फेंक के उठ खड़ा हुआ। कँही लौट ही न जाए, नहीं तो बर्तन भी मुझे ही रगड़ने पड़ेंगे। जमीन पर पाँव रखे तो लगा बर्फ की सिल्ली पर पैर पड़ गया हो। ये कमबख्त चप्पलें कँहा चली गईं। एक तो वंही मिल गई पर दूसरी नदारद थी। शायद पलँग के नीचे चली गई थी। डिंग डांग - घन्टी फिर बजी। "इस को भी सब्र नहीं है।" बड़बड़ाता सा नंगे पैर ही दौड़ा दरवाज़ा खोलने।
पहले चप्पलें ढूंढ लूं। झाड़ू ला कर पलँग के नीचे मारी तो चप्पल और अंदर चली गई। बड़ी मशक्कत के बाद बाहर निकाल पाया। पर्दा हटा कर देखा तो पूर्व में लालिमा थी। चलो कम से कम आज तो धूप खिलेगी। जरा बाहर का मौसम का मिज़ाज़ तो लें। दरवाज़ा खोलते ही ठंडी हवा के झोंके ने पूरी नींद खोल दी। वैसे मैं अभी भी एक घन्टा और सो सकता था। चाय की इच्छा बलवती हो उठी थी। पर बनाओगे तभी तो पियोगे। इस घड़ी का क्या करूँ। ये तो बहुत जल्दी में है। बाबा रामदेव का दन्त कांति ब्रश पर लगा , ब्रश करता मैं बॉलकनी में आ गया। चिर परिचित कट्टो गिलहरी बचे खुचे बाजरे के दाने कुतर रही थी। जैसे ही मुझे देखा कूद कर आम के पेड़ पर जा चढ़ी। मैंने झरने में पानी भरा और पौधों में देने लगा। आम के पेड़ की सबसे ऊपर की फुनगी पर रशिम प्रभा आ कर टँग गई थी। मैना का जोड़ा पास हो फुदक रहा था। नर गोल गोल घूम कर मादा को रिझाने में व्यस्त था। प्रकृति को जागे तो दो घन्टे बीत गए थे। पर मुझे ये सब देखने का कँहा अवकाश ? बर्तन मंज चुके थे। किचन मेरी प्रतीक्षा में थी। गैस जला कर मैंने चाय का पानी चढ़ा दिया। अदरक कूट के डाली और दूध, पत्ती डाल कर चाय तैयार करी। सुबह की ठंड में चाय के प्याले से उठता धुंआ ही गर्मी दे जाता है। जब से इस नामुराद मधुमेह ने पकड़ा है, चाय में चीनी तो बंद है। और आप कितनी ही अदरक, इलायची, लौंग चाय में डाल लें, बिना चीनी के वो सब बेकार हैं।
चाय खत्म कर जल्दी जल्दी दाढ़ी बनाई। दाढ़ी के लिए गर्म पानी लेते समय याद आया कि गीज़र तो चलाया ही नहीं। अब पता नहीं नहाते वक्त भी गर्म पानी मिलेगा या नहीं! जैसे तैसे बर्फ से ठंडे पानी से ही दाढ़ी बनाई या कहना चाहिए, खुर्ची ! न भी खुरचते तो चलता पर जब से दाढ़ी सफ़ेद हुई है, एक दिन बाद ही चमकने लगती है। इसलिए अगर बीमार सा नहीं लगना हो तो इसे खुरचना लाज़मी है।
नहाने के लिए शावर खोल कर एक मिनट तो गर्म पानी आने की प्रतीक्षा की पर गीज़र में पानी गर्म हो तो आये न। फिर ठंडे पानी के नीचे ही घुस गया। ठंड में ठंडे पानी से नहाने का एक लाभ तो है और वो ये कि भजन अपने आप होने लगता है ! अब तक कामवाली अपना काम खत्म कर जा चुकी थी। जाते जाते दरवाज़े पर पड़ा अख़बार उठा कर मेज़ पर रख गई थी। जिस अख़बार का इंतज़ार मैं हर सुबह बेसब्री से करता था, इन दिनों उसे उठाने की भी फुर्सत नहीं है। पढ़ना तो छोड़िए।
धोती बनियान डाल में किचन में आ गया। अभी बहुत काम बाकी है, आठ बजने को आये। फ्रिज में से रात की सब्ज़ी निकाली और गर्म होने रख दी। वो मैं जो सुबह की सब्ज़ी शाम को नहीं खाता था अब रात की बनाई सब्ज़ी सुबह ऑफिस ले जाता हूँ। दूध की थैली फ्रिज में रखी थी जिससे टोंड दूध डबल टोंड बन गया था। जो भी क्रीम थी सब थैली में ही चिपक के रह गई। जब तक दूध उबालता, सब्ज़ी जल गई।
डिंग डांग। घन्टी फिर बज उठी। गैस सिम पर कर दरवाज़े पर आया। ड्राइवर था। उसे कार की चाबी पकड़ा, फिर किचन में आया। दूध की गैस बंद की। सब्ज़ी उतार कर टिफिन में डाली। अच्छा भला माइक्रोवेव था। फेंक दिया कि इस्तेमाल तो होता नहीं है। क्योंकि हम सुबह की शाम और शाम की सुबह बची सब्ज़ी डस्ट बिन के हवाले कर दिया करते थे। गर्म करने की ज़रूरत ही नहीं थी। ताज़ा बनाओ, ताज़ा खाओ। पर इन दिनों तो शाम बनाओ, सुबह उसीसे गुज़ारा चलाओ वाला नियम जारी था।
फुल्के बनाने का तो सवाल ही नहीं था। ऑफिस कैंटीन से मंगा लेंगे। जैसे तैसे आधा अधूरा टिफ़िन पैक किया। एक दो फल साथ में रखे। कुछ ड्राई फ्रूट्स डाले। और तैयार होते न होते आठ पचीस हो लिए। दो ब्रेड पीस दूध के साथ निगलते निगलते घड़ी की सुइयां साढ़े आठ बजा चुकी थी। ये घड़ी इन दिनों कुछ तेज़ मालूम होती है। ताला लगा ही रहा था कि धोबी आ गया।
"कितना हुआ?" ताले में चाबी घुमाते घुमाते पूछा।
"पचास रुपए।" उसने कहा
"तुमसे कहा है, थोड़ा जल्दी आया करो।" पर्स से पचास का नोट देते हुए मैंने कहा।
"और ये कपड़े गार्ड को दे जाओ। मैं शाम को ले लूंगा।" मेरे स्वर में झल्लाहट थी।
आठ पैंतीस पर कार कॉलोनी के गेट से निकली। पच्चीस मिनट में मुझे ऑफिस पहुंचना था।
एक और दिन शुरू हो रहा था, पत्नी के बिना। बहुत मुश्किल है रे बाबा!
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