जहाँ तक मेरा प्रश्न है मुझे तो इन छः ऋतुओं में से दो बहुत भाती हैं- बसंत ऋतु और शरद ऋतु। हिंदी माह के अनुसार ये समय क्रमशः चैत्र- वैशाख और भादौ- अश्विन का रहता है। एक में सर्दी विदा लेती है तो दूसरे में आगमन की पूर्व सूचना देती है। वैसे दोनों ही संधियां बीमारियों के साथ आती हैं। जरा सी असावधानी हुई और बुखार, खांसी, जुकाम ने पकड़ा। फिर भी इन ऋतु परिवर्तनों का अपना आनन्द है। चैत्र हालांकि बीत चुका है पर आज जब बाहर सूर्य ग्रहण पड़ रहा है, खाली मन में चैत्र जीवित हो उठा है। उससे जुड़ी एक घटना कुछ इस प्रकार है।
बात उन दिनों की है जब मैं कोई दस बरस का रहा हूँगा। चैत्र का आगमन हो चुका था। सर्दी की ठिठुरन अब नहीं थी। स्कूल की भी छुट्टियां थीं। सारा दिन घर में उछल कूद- बस यही एक काम था। गौरेया ने तिनके जुटाने शुरू कर दिए थे। यों तो छत पर लटके पंखे का ऊपरी कप उसका निरापद स्थान था, पर इस बार उस कप को ऊपर चढ़ा कर बंद कर दिया था। पिछले वर्ष चलते पंखे से कट कर गौरया और उसके एक बच्चे ने प्राण दे दिए थे।
इस बार अपने चिर परिचित स्थान को न पा कर वो जोड़ा कई दिनों तक कमरे के चक्कर लगाता रहा। फिर एक दिन मैंने पाया कि उन्होंने रौशनदान में तिनके रखने शुरू कर दिए। वैसे तो यह स्थान कदापि निरापद नहीं था। और ताक लगाए घूमती बिल्ली की जद में था पर गौरेया को शायद यही सबसे उचित लगा हो। जो भी हो, मैं मन ही मन बहुत प्रसन्न था। पलँग से खिड़की पर चढ़ कर मैं वँहा तक पहुँच सकता था। पिछले कई वर्षों से ये देखने की उत्कट अभिलाषा थी कि अंडों से जीवन कैसे जन्म लेता है पर कोई इस प्रश्न का उत्तर ही नहीं देता था। अब मैं स्वयं अपनी आँखों से देख पाऊँगा। बच्चे प्रारम्भ से ही जिज्ञासु होते हैं और यदि बच्चे की जिज्ञासा उसकी संतुष्टि तक न शांत की जाए तो वो उसे जानने समझने के अपने तरीके खोज़ लेता है। फिर चाहे वे तरीका ग़लत ही क्यों न हो।
रोज़ दिन में दो बार उस रौशनदान तक चढ़ कर मैं उस घोंसले के निर्माण की प्रगति का अवलोकन करता। मेरे हिसाब से प्रगति कुछ ज़्यादा संतोषजनक नहीं थी। एक रात मुझे स्वप्न दिखा कि घोसलें में तीन नन्हें बच्चे हैं। नींद खुलते ही मैं भाग कर खिड़की की तानो पर चढ़ा और उचक कर रौशनदान में झांका। उनींदी आखों से मैंने देखा , जुटाए गए तिनकों पर दो चितकबरे से अंडे पड़े हैं। मैंने एक हाथ की हथेली से आँखे मली पर न तो अंडों की संख्या में कोई वृद्धि हुई और न ही अंडे बच्चों में बदले। अपने घरौंदे के पास किसी अज़नबी को पा कर, न जाने कहाँ से गौरेया का वो जोड़ा उड़ कर अंदर आ गया और चीं चीं करता कमरे का चक्कर लगाने लगा। मैं नीचे उतर आया। खिड़की की ताने पकड़ने से दोनों हथेलियां दर्द कर रही थीं। तभी माँ चिड़ियों का शोर सुन कमरे में आई। मुझे नीचे उतरता देख बोली, " वँहा क्यों चढ़ा था?"
मैंने कहा," माँ , वँहा चिड़िया ने अंडे दिए हैं।"
माँ ने कहा तूने अंडों को छुआ क्या? मैंने इनकार में सिर हिलाया तो माँ बोली, "छूना भी मत। नहीं तो चिड़िया उन्हें नहीं रखेगी।"
मैंने सोचा माँ भी न मुझे बच्चा ही समझती है। अब भला चिड़िया को कैसे पता लगेगा कि मैंने उसके अंडे छुए हैं! जब चिड़िया नहीं होगी तभी तो मैं छू पाऊंगा। माँ शायद नहीं चाहती कि मैं इतने ऊपर चढूं।इसीलिए मुझे डरा रही है ।
अब तो मेरी आँखों के आगे वो ही दो अंडे रहते। कैसे सूखे से खुले तिनकों पर पड़े है। ये कोई अच्छा सा गद्देदार घोंसला नहीं बना सकते थे। बेचारे बच्चे जब इन अंडों में से निकलेंगे तो ये तिनके उनके चुभेंगे। कुछ भी हो, माँ चाहे कुछ भी कहे, मुझे इनके लिए गद्दे की व्यवस्था करनी है। स्टोर रूम में माँ ने एक रजाई की रुई निकाल कर रखी थी। मैंने उसमें से एक रुई का पैल निकाल लिया। उस पर एक महीन कपड़े का टुकड़ा रखा। अब अंडों को रखने के लिए ये गद्दा तैयार था। माँ छत पर कपड़े सुखा रही थी। मेरा कार्य क्षेत्र खाली था। मैंने चिड़े और चिड़िया को कमरे से बाहर किया और दरवाज़ा बंद कर लिया। गौरया का ये जोड़ा बाहर मुंडेर पर जा बैठा। मैंने वो छोटा सा गद्दा निकाला और एक हाथ में ले ऊपर चढ़ गया। अंडे अभी भी वैसे ही पड़े थे। कितने निर्दयी हैं ये चिड़े चिड़िया! मैंने सावधानी से अंडों को हटाया, तिनको पर रुई का गद्दा बिछा के उस पर जेब से निकाल महीन मलमल का कपड़ा बिछा दिया। पुनः अंडों को धीरे से गद्दे पर रख मुझे एक ऐसी आत्म संतुष्टि मिली जिसे लिखा नहीं जा सकता। मैं नीचे उतर आया।
दरवाजा खोलते ही दोनों पक्षी कमरे में घुस आए। एक दो चक्कर लगा रौशनदान पर जा बैठे। मैं उन्हें देख कर ये पता करने का प्रयत्न कर रहा था कि इस आरामदायक गद्दे पर अंडों को पा वो कितने प्रसन्न हैं। पर पता नहीं लग रहा था। मेरी आँखों मे सपने तैरने लगे जब अंडों में से बच्चे निकलेंगे तो मैं देखूंगा। उनके लिए दाना पानी की व्यवस्था भी तो करनी पड़ेगी। न जाने अभी कितने दिन लगेंगे। पूरा दिन इसी कल्पना में बीत गया। रात इस आशा को लेकर सोया कि शायद कल सुबह वो सुबह होगी जिसका मुझे इंतज़ार है।
अभी सूर्योदय भी नहीं हुआ था। चन्द्रमा अपनी कांति खो पश्चिम में पहुँच चुका था। प्राची दिशा की लालिमा भुवन भास्कर के रथ की अग्रिम सूचना दे रही थी। माँ कब की उठ चुकी थी और कमरा बुहार रही थी। मैं तेज़ी से सीढ़िया उतर कमरे की तरफ़ भागा। माँ की नजरें बचा मैं रौशनदान तक पहुँचा। पंजे उचका के ऊपर झाँका। पर ये क्या! गद्दा यथा स्थान था पर अंडे नदारद थे।
"माँ", मैं वहीँ से चिल्लाया। ये अंडे कँहा गए?"
माँ झाड़ू पकड़े कमरे में आई। तब तक मैं नीचे आ चुका था।
"माँ, ये अंडे कहाँ गए?" मैं लगभग रुआँसा हो आया था।
"वो तो नीचे गिर कर टूट गए थे। मैं अभी तो कूड़े के साथ फेंक कर आई हूँ।"
"क्या?" मैं अवाक रह गया। माँ की दी हुई चेतावनी मुझे याद आ गई।
"क्या माँ, तुम जो बता रही थीं कि यदि कोई आदमी चिड़िया के अंडे छू ले तो चिड़िया उन्हें नहीं रखती, क्या ये सच है?" मुझे पूरी आशा थी कि माँ कहेगी, नहीं वो तो मैं तुझे बहका रही थी। पर माँ ने उत्तर देने की बजाय प्रश्न दाग दिया- "तो क्या तूने अंडों को हाथ लगाया था"?
"पर माँ, मैंने तो बस रुई का गद्दा बिछा उसके ऊपर रखे थे अंडे।"
"राम राम! दो जाने चली गई न तेरे इस चक्कर में। तभी मैं सोच रही थी कि ये अंडे नीचे कैसे आ गिरे। जरूर चिड़िया ने गिरा दिए होंगे। चल अब भगवान से माफ़ी मांग कि अनजाने में हुए इस अपराध के लिए वो तुझे क्षमा करें।"
मेरी आँखों से अश्रु बहे चले। माँ ने मुझे अपने से लिपटा लिया। और बोली, "बड़ो का कहना मानना चाहिए न।"
फिर वो जोड़ा वहाँ नहीं दिखा। कुछ दिन बाद माँ ने मुझसे वो रौशनदान भी साफ करवा दिया। जब भी चैत्र आता है ये अपराध बोध एक बोझ बन आ खड़ा होता है।
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