Thursday, 25 June 2020

जिंदगीनामा

एक मुद्दत बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी के नार्थ कैम्पस आना हुआ है। कार मैंने कुछ दूर ही पार्किग में लगा दी और पैदल ही चल पड़ा। जब मैंने स्कूल पास किया था तो कितने रंगीन सपने थे आँखों में इस कैम्पस में एडमिशन को लेकर। पर घर के माली हालात कुछ ऐसे थे कि कोई छोटी मोटी नोकरी तुरन्त पकड़नी आवश्यक थी। सारे सपने जिंदगी की इसी जद्दोजहद के बीच कुचले गए।

आज कोई 25 बरस बाद आया हूँ बेटी की रिसर्च के सिलसिले में। पूरा कैम्पस रंग बिरंगी ड्रेसेस पहने लड़के लड़कियों से गुलज़ार है। झुंड के झुंड इधर उधर घूमते दिखाई दे रहे हैं। हंसी ठहाकों की गूंज है। चाय के स्टाल पर भीड़ जमा है। कोई युवक कुर्ता पजायमा पहने झोला लटकाए है तो कोई युवती टाइट जीन और टॉप से सजी है। जीवन की सच्चाइयों से परे, स्कूल की बंदिशों से आज़ाद ये युवक युवतियां अपने सपनों को जी रहे हैं। एक से एक टॉप मॉडल की कारें दिख पड़ती है। एक से एक महंगी मोटरसाइकिल। मानो पैसे की कोई कमी ही नहीं है। माता पिता के पैसों के बल पर पँख लगा कर उड़ते ये युवक युवतियां क्या जाने की धरातल कितना कठोर है और जीवन कितना कठिन!

सड़क के दोनों और ऊँचे ऊँचे वृक्ष खड़े हैं। चटक लाल और पीले फूलों से लदे। काश ! मैं युवावस्था के वो बेशकीमती तीन वर्ष यँहा इस माहौल में जी पाता। विश्विद्यालय मार्ग पर बने मुख्य दरवाजे के दोनों और वर्दी पहने गार्ड खड़े है। अंदर घुसते ही सामने कुछ दूर चलकर  जवाहर गुलाब वाटिका है - गुलाबों से भरी हुई। बीच में लगा फव्वारा पूरी गति से चल रहा है। मुझे भौतिकी और खगोल भौतिकी विभाग जाना है। अपनी बेटी की रिसर्च के लिए इस शाखा की हेड ऑफ डिपार्टमेंड से मिलना है। उसकी जिद है कि उसे यही गाइड चाहिए। और ये मैडम हैं कि "हाँ" ही नहीं कर रही हैं। मानव संसाधन मंत्रालय के एक उच्चाधिकारी ने मीटिंग तय करवाई है। पूछते पूछते आखिर मैं अपनी मंजिल पर आ ही जाता हूँ।

कमरे के बाहर बोर्ड पर बड़े बड़े ब्रास के अक्षरों से लिखा था -" डॉ हरप्रीत " मैंने बाहर बैठे दरबान को अपना कार्ड दिया। बाहर आकर उसने कहा ," आप इंतज़ार करिए। मैडम अभी बुलाएंगी ।" मैं गलियारे का अवलोकन करने लगा। करीने से रखे गमलों में पौधे लगे थे। कँही कँही मनी प्लांट की बेल गलियारे के खम्भे का सहारा ले बल खाती हुई ऊपर चढ़ गई थी। गलियारे में कम ही चहल पहल थी। तभी कमरे के बाहर लगी घण्टी घनघना उठी। दरबान तेज़ी से अंदर गया और बाहर आकर बोला,"जाइये। मैडम ने बुलाया है।" मैंने अपना फ़ोल्डर सम्भालते हुए अंदर प्रवेश किया। 

एक बड़े से कमरे में जिस पर लाल रंग का कालीन बिछा था, एक मोहतरमा एक बड़ी मेज़ के पीछे ऊंचे सिरहाने वाली कुर्सी पर बैठी थी। पीछे की खुली खिड़की के  पर्दे दोनों तरफ़ करके बांध दिए गए थे जिससे बाहर का बग़ीचा नज़र आ रहा था। साइड में लगी दो लकड़ी की अलमारियों में जिन पर शीशे के दरवाजे थे, एक में तरतीब से किताबें रखी थी तो दूसरी में कई सारी ट्रॉफियां सजी थी। दूसरी साइड में सोफ़ा और सेंटर टेबल रखी थी जिस पर अख़बार और पत्रिकाएं पढ़ी थी। कुछ गमले जो चमकदार ब्रास के कवर में रखे गए थे, इंडोर प्लांट्स से सुसज्जित थे। 

इससे पहले मैं कुछ और देख पाता, वो मुझसे मुखतिब थी। "प्लीज बी सीटेड. गिव मी अ मोमेंट" एक फ़ाइल पलटते हुए वो बोली।
मैंने कुर्सी सरकाई और बैठ गया। कमरा देखने के चलते मैं इन मोहतरमा को ठीक से नहीं देख पाया था। अब मेरी दृष्टि सामने बैठी महिला पर पड़ी। साधारण सूती साड़ी जिसका पल्ला करीने से पिनअप था, काले रंग के ब्लाउज़ के साथ खूब फब रही थी। बालों में चांदी चमक रही थी पर अभी भी काफी घने थे। बालों को समेट कर जूड़ा बनाया हुआ था। चहरे पर सिल्वर फ्रेम का चश्मा, माथे के बीच छोटी सी बिंदी और कानों में डायमंड टॉप्स थे। न जाने मुझे एक पल को ये क्यों लगा कि ये चेहरा मैंने कँही देखा है। वो फाइल देखती रही और बीच बीच में नज़रे उठा कर मुझे देखती रही मानो देरी के लिए क्षमा मांग रही हो। और मैं ये सोचता रहा कि चालीस-पैंतालीस बरस पूर्व ये चेहरा कैसा दिखता होगा। तभी मेरे दिमाग़ में बाहर नेम प्लेट पर लिखा कौंधा। क्या लिखा था - "डॉ हरप्रीत" । तो क्या ये हरप्रीत है? सुना था वो भी हंसराज कॉलेज में प्रोफ़ेसर हो गई थी। मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी।
तभी उसने फ़ाइल बंद कर एक और सरका दी। "हाँ तो बताइए मिस्टर मेहरा, मैं आपकी किस प्रकार मदद कर सकती हूँ?" उसने विनम्रता से पूछा।

मेरी उत्सुकता दबाए नहीं दब रही थी। न चाहते हुए भी मैं पूछ ही बैठा, "एक बात पूछू यदि आप बुरा न माने तो।"उसके चहरे पर प्रश्न वाचक चिन्ह उभरे।
"क्या आप किसी हरभजन जी को जानती हैं।"
उसके माथे पर त्यौरियां साफ़ देखी जा सकती थी मानो ये प्रश्न उसे नागवार गुज़रा। 
"जी, मेरे पिता का नाम हरभजन है।"
"तो आप वो ही हरप्रीत हैं जो कृष्णा नगर गली नम्बर 22 में रहती थीं।"
उसकी आँखे आश्चर्य से फटी रह गईं।"पर आप कैसे जानते हैं ये सब?"
"मुझे नहीं पहचाना? मैं गिरीश।"
"अरे भय्या तुम!" वो सीधी "तुम" पर आ गई। "कितने बदल गए हो। मैं तो पहचान ही नहीं पाई। पर तुमने खूब पहचाना।

मेरे आगे मेरा अतीत, मेरा बचपन एक बार फिर से जीवंत हो उठा।

"नी हरप्रीत। नी हरप्रीत।"
बूढ़ी दादी जोर  से चिल्लायी। जोर से चिल्लाने से उसके गले की नसें जो पहले से ही उभरी हुई थी और फूल गईं। उसका चरखा कातना रुक गया था । वो अपना उखड़ा साँस संभालने लगी। उम्र ने उसके पूरे बदन को झुर्रियों से भर दिया था। तांबे जैसे पके रंग के उस बदन पर पड़ी झुर्रियां साँप की केंचुल जैसी दिखती थी। हाथों का माँस ढ़ीला हो लटक गया था जो चरखा चलाते हुए एक गति से झूलता था। सिर पर बचे हुए बाल चाँदी से चमकते थे। पर कस कर उनकी पतली सी चोटी की हुई रहती थी। आँखों पर गोल फ्रेम का चश्मा जिसके ग्लास धुँधले हो चुके थे और जिसकी एक कमानी की जगह मोटे से धागे के लूप ने ले रखी थी, चढ़ा रहता था। कानो में मोटी मोटी सोने की बड़ी बालियां लटकी रहती। उनके वज़न से कानों के छेद बड़े हो कर लम्बाकार हो गए थे। अंत में बस जरा सा बचा हुआ माँस उनका वजन ढो रहा था। इतनी उम्र में भी वो बूढ़ी दादी  जिसकी कमर झुक कर दोहरी हो गई थी, और जो बिना लाठी के चल नहीं सकती थी, चरखा कातती, कपास की पुनियों से सूत बुनती। मैदे से सेवईयां बटती। अचार धूप में रखती फिर उठाती। हैंड पम्प से घण्टो पानी खींच कर अपने पैर धोती रहती।  गोया खाली बैठना या लेटना उसे आता ही नहीं था। गर्मियों की सुनसान दुपहरी में जब कबूतरों की गुटर गूँ ही सुनाई पड़ती, उसका चरखा चुरम चूं चुरम चूं की लय से चलता ही रहता। मैंने बचपन से उस दादी को  ऐसे ही देखा था। न घटती थी, न बढ़ती थी।

"न जाने कँहा मर जाती है, मर जानी।" वो बड़बड़ाई और एक बार पूरे जोर से फिर चिल्लायी- "नी हरप्रीत।"
"आई दादी।" कहती हुई एक 11- 12 साल की लड़की  सफेद सलवार और छींट का कुर्ता पहने, नेट का दुप्पटा सिर पर ओढ़े दौड़ी हुई आई।
"क्या है दादी? क्यों चिल्ला रही हो।"
"दादी की बच्ची। कँहा मरी थी।"
"पीछे बरामदे में पढ़ रही थी।"
"बड़ी आई पढ़ने वाली। क्या करेगी इतना पढ़ कर?  जिसे पढ़ना चाहिए वो तो सारा दिन किताब उठा कर नहीं देखता। अच्छा चल, ये चरखे की डोरी उतर गई है। इसे चढ़ा दे ठीक से। मुझे इस मुए चश्मे से दिखता नहीं है।"
"कितनी बार कहा है दादी, डैडी से बोल कर नया चश्मा ले लो। पर नहीं। जब दिखता नहीं तो पहनती क्यों हो?"
"अब मुझे चश्मे का क्या करना है? तू है न मेरा चश्मा।" दादी ने प्यार से पोती के घने बालो पर हाथ फेरा। ये दादी की बरसों की मेहनत थी जो घँटों तेल खपा खपा कर पोती के बाल इतने लंबे और घने कर दिए थे। अभी भी जब कभी खाली होती कंघी और तेल ले कर बैठ जाती पोती के सिर में डालने को। हरप्रीत उकता कर लाख बहाने करती पर मजाल है दादी घण्टे भर पहले से छोड़ दे।
"और जब मेरी शादी हो जाएगी, तब क्या करेगी दादी?" हरप्रीत बोल उठी। विवाह के जिक्र से ही उसके गाल आरक्त हो आये।
"तब तक मैं यंही बैठी रहूंगी क्या? वाहे गुरु के घर भी तो जाना है।" दादी हँस दी थी। इस उम्र में भी सारे के सारे दाँत सलामत थे दादी के। चाहे दिखाने के ही क्यूँ न हों।

ये एक छोटा सा पंजाबी परिवार था जो बंटवारे के समय पाकिस्तान के पंजाब प्रांत से दिल्ली आ बसा था। हरभजनसिंह मोरी गेट में ऑटो पार्ट्स की दुकान पर काम करते थे। पत्नी के मुंह में तो मानो जबान ही नहीं थी। उसे बोलता शायद ही किसीने सुना हो। पति के क्रोध की अधिकता ने उसकी वाक शक्ति ही हर ली थी। बड़ा बेटा जो मेरा हम उम्र था गलत संगत में पड़ कर बिगड़ चुका था या इस दिशा में अग्रसर था। पढ़ाई में उसका दिल नहीं लगता था। दिन भर पतंग बाज़ी, कँचे और गिल्ली डंडा खेलना यही उसके शौक थे। उसकी जिंदगी का लक्ष्य ऑटो ड्राइवर बनना था। छोटी बेटी हरप्रीत शायद छठी कक्षा की छात्रा थी। सरस्वती का वरद हस्त इस लड़की के सिर पर था। जो भी एक बार पढ़ ले, कंठस्थ हो जाये, ऐसी मेधावी थी ये बालिका। सफेद स्कूल ड्रेस में, काले चमकते जूते और घने बालो में तेल लगा मोटी मोटी चोटियों पर लाल रिबन के फूल बांध बस्ता लटकाए जब ये स्कूल जाती तो लगता साक्षात विद्या  ही विद्या ग्रहण करने जा रही हो।  जिस दादी का जिक्र हम ऊपर कर आये हैं, वह इस परिवार का मुखिया थी। जब से मैंने होश संभाला इस परिवार को अपने साथ ही पाया। हम सब एक ही मकान में रहते थे। बीच में एक आँगन था जो साझा था। 

एक दिन मैंने देखा कि हरप्रीत दादी की गोद ने सिर रखे रो रही थी। पता चला कि छठवीं के बाद उसका स्कूल छुड़ाया जा रहा था।
"दादी, मुझे और पढ़ना है।"
"क्या करेगी आगे पढकर? हमारे जमाने में तो लड़कियों को पढ़ाया ही नहीं जाता था। अब तू तो इतना पढ़ ली। गुरबानी देख कितने अच्छे से पढ़ती है।
"नहीं दादी। मुझे कॉलेज़ जाना है बस। मुझे नहीं पता। डैडी को आपने समझाना है। मम्मी ने तो साफ़ कह दिया कि वो इस बीच नहीं बोलेगी।"
बूढ़ी दादी ने उसके सिर पर हाथ फेरा।"अच्छा अच्छा, तू रो मत। मैं बात करूंगी तेरे डैडी से।" दादी ने आश्वस्त किया। आँसू पोंछते हुए हरप्रीत अंदर चली गई।

कोई दो दिन बाद, सामने के घर से तेज़ आवाज़े आने लगीं। दरवाज़े पर चिक पड़ी होने से ये तो नहीं दिख रहा था कि कौन कौन पीछे है। पर माँ और बेटे में ठनी हुई थी।

हरभजन- मैंने कहा न नहीं जाएगी अब ये स्कूल। बस बात खत्म। इस बारे में और कोई बात नहीं होगी।
माँ- तू होता कौन है मेरे होते इस तरह हुक्म चलाने वाला? लड़की पढ़ लेगी तो इसमें बुरा ही क्या है?
हरभजन-तुझे क्या पता जमाना कितना खराब है। ये अब बच्ची नहीं रही। बड़ी हो गई है। मैंने पहले ही कहा था पाँच क्लास तक पढ़ाऊंगा। ये तो एक साल और पढ़ ली। बस अब नतीजे आ जाएं, इसका नाम कटा देना है। 
माँ- मैं भी देखती हूँ कैसे कटाता है तू नाम!

बहस चलती और बिना किसी नतीजे के खत्म हो गई। दादी के सब्र का बाँध टूट कर आँखों से बहने लगा। वो आँखे चुन्नी से पोंछती बाहर आ खाट पर बैठ बड़बड़ाने लगी।
"पता नहीं क्या समझने लगा है अपने आप को। ये क्या मेरी कुछ नहीं लगती। इतना भी हक़ नहीं मुझको। वाहे गुरु ! अब तो उठा ही ले।" 

दादी न जाने कब तक स्वयं को कोसती रही। अब ये झगड़ा रोज़ की बात हो गया। दोनों पक्ष अपने अपने मोर्चे पर डटे थे। कोई पीछे हटने को तैयार नहीं था। बीच में असमंजस में थी हरप्रीत। उसके चेहरे से वो हँसी इस दिनों गायब थी। वो बहुत पढ़ना चाहती थी पर उसे पढ़ाने को उसका पिता तैयार न था। और जिस बेटे को पिता खूब पढ़ाना चाहता था वह पढ़ने को तैयार नहीं था। अजीब विडम्बना थी।

 क़रीब महीना ऐसे ही गुज़र गया। हर दूसरे रोज़ झगड़ होता फिर सन्नाटा पसर जाता। अंत में तंग आ कर दादी ने आमरण अनशन की घोषणा कर दी। सब की मिन्नतें व्यर्थ हो गईं, दादी ने पानी भी नहीं लिया। बहू खाना लगा कर लाती, थाली ऐसे ही पड़ी रहती खाट के नीचे।  मुझे लगा दादी अब बचेगी नहीं। दो दिन बाद बेटे ने हार मान ली और नाटक का पटाक्षेप हो गया। हरप्रीत की पढ़ाई जारी रही।

कुछ समय बाद हमनें वह मकान छोड़ दिया। बाद में सुना, हरप्रीत ने हायर सेकेंडरी में स्कूल टॉप किया था। हँसराज़ कॉलेज़ से उसने स्नातक की डिग्री ली। फिर स्नातकोत्तर कर उसी कॉलेज़ में लेक्चरार लग गई थी। उसकी तरक्की के उड़ते उड़ते समाचार तो आते रहे पर वह मकान छोड़ने के बाद उससे मिलना कभी नहीं हुआ। आज इतने बरस बाद उससे ये अप्रत्याशित मुलाकात हुई है। कितनी बदली गई है हरप्रीत। उम्र किसी को नहीं छोड़ती।

हरप्रीत ने कब चाय मंगा ली मुझे पता ही नहीं चला। मैं तो अतीत में विचर रहा था। 
"चीनी कितनी लेते हो भय्या?" उसने पूछा तो मैं वर्तमान में लौटा।
"चीनी नहीं। डायबिटिक हूँ।"
"ओह!"
चाय पीते हुए मैंने उससे मिलने का अपना उद्देश्य बताया। तो वो मुस्करा दी।
"हाँ। अब मैं ये सब नहीं करती। न जाने कितने छात्र छात्राएं मेरे अंडर पी एच डी कर के आगे बढ़ गए। मेरा रिटायरमेंट भी ज़्यादा दूर नहीं। पर तुम्हारी बेटी है तो मैं सहर्ष उसकी गाइड बनूंगी। उसे मेरे पास भेज देना। मैं बात कर लूंगी। तुम निश्चिंत रहो। समझो हो गया।"

फिर उसने मेरे बारे में न जाने कितने सवाल पूछ डाले। शादी कब हुई? पत्नी क्या करती है? जॉब कँहा है? बच्चे कितने हैं? क्या कर रहे हैं? बच्चो की शादी वादी की या नहीं? मकान कहाँ बनाया है? और न जाने क्या क्या।

"कुछ अपने बारे में भी तो बताओ।" मैंने कहा। तो वो उठ खड़ी हुई। बैग कंधे पर लटका कर बोली चलो रास्ते में बात करते हैं। मेरा क्वार्टर कैम्पस में ही है। अब इतने सालों बाद मिले हो तो घर तक तो चलो। जल्दी तो नहीं हैं? "
मैंने कहा, कोई जल्दी नहीं है। पर अधिक न रुक पाऊँगा। बेटी को खुशखबरी भी तो देनी है।और हम चल पड़े।

जल्द ही हम मुख्य कैम्पस मार्ग पर थे। शाम ढल रही थी। दोनों और लगे पेड़ो पर सैकड़ों पक्षी शोर कर रहे थे। 

"मैं पैदल ही आ जाती हूँ। कार की आवश्कता ही नहीं लगती।" उसने बात शुरू की। "फिर मुझे इन सड़कों पर इन पेड़ो के नीचे चलना अच्छा लगता है। जिंदगी यंही गुज़र गई बंद मुट्टी से रेत की तरह । कब करके, पता ही नहीं चला। जब इन लड़के लड़कियों को देखती हूँ तो ईर्ष्या होती है। कितने स्वछन्द हैं ये। हमारे जमाने में मजाल थी  कि चुन्नी सिर से सरक जाए। आठ वर्ष हो गए पति को गुज़रे। वे यंही प्रोफ़ेसर थे। अर्थशास्त्र पढ़ाते थे। एक बेटी है जो लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाती है। उसके पापा की बड़ी इच्छा थी कि वह वँहा पढ़े। उसने वंही शादी कर ली। लड़का इंडियन है। वर्ड बैंक में काम करता है। दो बच्चे हैं उसके । वह अपने परिवार में खुश है। मुझ से कहती है कि नोकरी छोड़ कर लन्दन आ रहो। अब यँहा है भी कौन अपना।" 
"और तुम्हारे घर वाले?" मैं बीच मे ही पूछ बैठा।
"घर वालो में जो थे अब नहीं रहे। और भाई को तो तुम जानते ही हो। हमनें कई वर्ष पहले नाता तोड़ दिया था। पता नहीं जिंदा भी है या नहीं।"
"ओह!"
"मैं जाती रहती हूँ बेटी के पास, पर मेरा मन नहीं लगता वहाँ। या यूं कहें, कि मैं उस तरह का जीवन जीने की आदि नहीं हूं। पति ने बहुत शौक से दिल्ली में घर बनाया था। उनके जाने के बाद मैंने बेच दिया। क्या करना था? कौन संभालता उसे। कोई कब्ज़ा ही कर बैठता।"
"तो फ़िर, रिटायरमेंट के बाद रहोगी कहाँ? ये कैम्पस का क्वार्टर तो छोड़ना होगा।"
"हिमाचल में एक छोटा सा कॉटेज ले रखा है। वहीं चली जाऊंगी। एक संस्था से बात चल रही है। छोटा सा स्कूल स्थापित कर गाँव के बच्चों के लिए चलाना चाहती हूँ। और करूंगी भी क्या? जीवन संध्या के बचे खुचे दिन वंही बिताने का सोचा है।" माहौल गंभीर हो चला था। मैंने हल्का करने को कहा,"और कितना चलाओगी?"
"बस आ ही गया।"

घँटी बजाने पर नोकर ने दरवाज़ा खोला। घर सुसज्जित था। बैठते ही नोकर ने पूछा, "क्या लेंगें आप?" मैंने कहा,"बस एक गिलास पानी पिला दो।"हरप्रीत स्वयं उठी पानी लाने को। और नोकर से अनार का जूस निकालने को कहा। मेरी नज़र साइड टेबल पर रखी तस्वीरों पर गई। दादी का एक बड़ा सा फ़ोटो गोल्डन फ्रेम में सजा था। उस पर चंदन की माला लगी थी। पास में एक और तस्वीर थी जो शायद हरप्रीत के पति की थी। बायीं और लगी एक और तस्वीर में हरप्रीत  शायद अपनी बेटी के साथ नज़र आ रही थी। पीछे लन्दन का टावर ब्रिज दिख रहा था। 

पानी देते हुए उसने मुझे तस्वीरों में अपनी बेटी और पति को दिखाया। और बोली, "दादी को तो तुम जानते ही हो। आज मैं जहाँ भी हूँ , जो भी हूँ बस दादी के कारण हूँ।" 
मैंने कहा," मुझे सब याद है।"
"मैं एक किताब लिख रही हूँ इन दिनों। शाम और छुट्टी इसी में व्यतीत हो जाती है।"

हम करीब घंटे भर बतियाते रहे। कुछ अपनी कुछ जगत की। फिर मैंने उससे विदा ली।
चलते चलते उसने कहा, कभी भाभी को लेकर आओ। खाना साथ खाएंगे। और हाँ, बेटी को भेज देना। जब भी आना चाहे। मैं कँही भी रहूं, उसकी रिसर्च मेरे अंडर ही पूरी होगी। मैं मुस्करा दिया। 

वापस जाते हुए में सोच रहा था, क्या ये वो ही हरप्रीत है जिसे मैं जानता था। शाम ढल चुकी थी। पक्षी शांत हो गए थे। विश्विद्यालय की मुख्य सड़क पर इक्का दुक्का वाहन थे। मन भी भारी हो चला था। और भारी कदम लिए मैं उस और बढ़ रहा था जँहा मैंने कार पार्क की थी। 

© आशु शर्मा



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