Saturday, 11 July 2020

म्हारो राजस्थान

कुछ लोग होते हैं जो जीने के लिए खाते हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसे भी होते हैं जो खाने के लिए जीते हैं। ये जो खाने के लिए जीने वाले होते हैं, ये स्वभाव से घुमक्कड़ होते हैं। इन्हें, जहाँ ये रहते हैं या जहाँ भी जाते हैं, वहाँ के एक एक ऐसे स्थान को ढूंढने में दिलचस्पी होती है जहाँ बढ़िया खाने को मिलता है। दूर दूर के चाट पापड़ी के ठिकाने, होटल और ढ़ाबे, शाकाहारी या निरामिष, कुछ भी हो इनकी लिस्ट में रहते हैं। इनमें से कुछ तो स्वाद के इतने दीवाने होते हैं कि दिल्ली से मुरथल, 50 किलोमीटर मात्र परांठे खाने भी चले जाते हैं, वो भी रात के 2 बजे। अब जीभ का क्या है, कभी भी लपलपा ले। ऐसे लोगों का हाज़मा भी इतना अच्छा होता है कि चाहे कहीं भी खा लें, कुछ भी खा लें, कभी भी खा लें, सब हज़म हो जाता है। मैंने इनमें से किसी को खाने से बीमार होते नहीं सुना। इसके विपरीत, प्रथम श्रेणी के लोग जिनमें मेरे जैसे कुछ आते हैं, रोड साइड ढाबे का पानी भी पी लें तो डायरिया हो जाये, खाना तो दूर की बात है। अब इनमें से कौन ठीक है, ये एक बहस का विषय हो सकता है। पर आखिर में मरते दोनों तरह के लोग हैं। कम से कम खा कर मरने वालों को ये तो संतोष हो ही सकता है, कि उन्होंने जीवन में जी भर कर षडरस का आनंद लिया। उम्र के साथ साथ मैं अब खाने पीने में और भी अधिक सयंमित हो गया हूँ।

वैसे तो पुरानी दिल्ली अपनी चाट पकौड़ी के लिए जानी जाती है पर खाने में राजस्थान का भी जवाब नहीं। आज यूँही बैठे बैठे जोधपुर याद हो आया। उन दिनों में जवान था। वैसे तो खाने पीने में मैं शुरू से बहुत ही सयंमित रहा हूँ, पर बीस वर्ष की अवस्था कितनी संयमित हो सकती है! अकेला था, तो खाने के लिए होटलों और ढाबों पर ही निर्भर था। नाश्ते के लिए तो रावत मिष्ठान भंडार था। वहाँ सुबह सुबह, गरमा गरम कोफ़्ते और मिर्ची बड़े उतरते थे। आनन्द सिनेमा घर के पास स्टेशन रोड पर ही दुकान थी। सुबह सुबह ऑफिस के लिए तैयार हो, वहाँ चला आता। एक कोफ़्ता या फिर मिर्ची बड़ा नाश्ते के लिए बहुत होता था। अखबार के कागज़ में ले वहीं खड़े हो खा लिया, चिकने हाथ सिर से पोंछे और चल पड़े घूमते फिरते डी एस ऑफिस की ओर। रास्ते में, ठेलो पर लस्सी बिक रही होती थी। गर्मियों में तो नियम से नाश्ते  के बाद लस्सी पीनी। मिट्टी के कुंडे में चक्का दही जमा रहता। एक के ऊपर एक कई कुंडे ढक के रखे होते। खालिस दही, बिना पानी के बर्फ़ डाल कर बिलोया जाता। गाढ़ी गाढ़ी झागदार लस्सी, गिलास में भर के ऊपर से रूह अफज़ा और गुलाब डाल कर, मलाई की मोटी परत सज़ा कर जब दी जाती तो हर घूँट के साथ जो तृप्ति मिलती, शब्दों में कहना मुश्किल है।

रावत मिष्ठान भंडार की एक और विशिष्ट मिठाई थी- मावा कचौरी।  इसे मिठाई कहें या न कहें ये दुविधा है। मैदा की कचोरी में मावा भर कर उसे बनाया जाता था। फिर उसके बीच में एक गड्ढा कर उसमें चाशनी भर दी जाती थी। फिर तो पूरी कचौरी ही चाशनी में डाल दी जाती। अंदर भरे मावे में जो बड़ी इलायची का स्वाद होता था वह उस मीठे और फीके के मिले जुले स्वाद में और वृद्धि कर  उसे अपने आप में विशिष्ट दर्ज़ा देता था। 

बीच मे भूख सताए तो ऑफिस कैंटीन में ग्यारह बजे के आसपास दाल की कचौरी उतरती थी। एक कप चाय, एक कचौरी पर्याप्त थी क्षुधा शमन के लिए। दोपहर के भोजन के लिए, स्टेशन के ठीक सामने शर्मा लॉज में व्यवस्था थी। लॉज का मालिक, बड़ी बड़ी मूछों वाला भारी भरकम व्यक्तित्व का स्वामी था। वो गल्ले पर बैठा रहता। मेरा तो माह के लिए अग्रिम ही जमा होता था। आधी थाली जिसमें चार चुपड़ी तवा रोटी, तीन तरह की सब्ज़ी, एक दाल और चावल, अचार व पापड़ होता था, मेरे लिए पर्याप्त थी। गट्टे या पापड़ की एक सब्ज़ी जरूर होती थी। सब्ज़ी दाल चाहे जितनी लो, रोटियों की संख्या आधी थाली में चार तक सीमित थी। "हुकुम", "हुकुम" कहते हुए जितने प्यार से वो खाना खिलाते थे, पेट के साथ मन भी भर जाता था। खाने के बाद जो मुखवास वहाँ रखा रहता था, वो तो सोने पर मानो सुहागा ही हो। कभी कभी, बहुत मन होता तो पास की दुकान से देसी पत्ते पर मीठा पान लगवा लिया करता था। बाद में, पान खाना तो बिल्कुल छोड़ दिया था।

रात के खाने का कुछ ठीक नहीं था। जो भी मिला थोड़ा बहुत खा लिया। गन्ने का रस वहाँ रात के एक बजे भी मिल जाता था। या तो कढ़ाई का कुल्हड़ वाला दूध पियो या फिर गन्ने का अदरक, पुदिना, नींबू और मसाले वाला रस। दोनों का अपना स्वाद था। 

माखनिया लस्सी के जिक्र के बिना ये पोस्ट पूरी नहीं होगी। वैसे तो ये कई दुकानों पर उपलब्ध थी, पर हमारी एक विशेष पुरानी दुकान थी जो घन्टाघर पर स्थित थी। सोजती गेट से सीधे घंटाघर का रास्ता था। महीने में एक यो दो बार पैर स्वयं ही उठ जाते थे माखनिया लस्सी के लिए। लस्सी के नाम पर रबड़ी होती थी। एकदम गाढ़ी। चम्मच खड़ा करो तो खड़ा हो जाये गिलास में। हल्के पीले रंग की रबड़ी के ऊपर सफ़ेद माखन उसे वास्तव में माखनिया लस्सी बनाता था। उसे पिया नहीं जा सकता था, वरन चम्मच से खाया जाता था। वो लस्सी और वो स्वाद मैंने और कहीँ नहीं पाया। उसके कई वर्ष बाद मेरा पुनः जोधपुर जाना हुआ। पर न तो माखनिया लस्सी में अब वो स्वाद था, न ही मिर्ची बड़े और कोफ़्ते में। और न ही मावा कचोरी में। समय ने सब बदल दिया। पर मेरे ज़ेहन में ये सब स्वाद अभी भी ज्यों के त्यों है। 

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