Tuesday, 1 September 2020

बादल

दो ऊँची इमारतों के बीच एक बादल का टुकड़ा फंस गया है । इमारतें तो ठहरी सीमेंट और लोहे की। भला उस बादल की क्या औकात कि इन से उलझे! बेचारा चुपचाप टँगा हुआ है। मैं बहुत देर से इस बादल की विवशता देख रहा हूँ। पर क्या करूँ? इसे इन गगन चुम्बी इमारतों से मुक्ति दिलाना मेरे बस में नहीं है। नीले आकाश की पृष्ठभूमि में कई बादलों के दुकड़े तैर रहे है, कुछ काले, कुछ रुई से उजले तो कई स्लेटी रंग लिए। पर इस विवश टुकड़े के लिए कोई कुछ नहीं कर रहा है। कितने कृतघ्न हैं ये। तभी हवा बह चली इस बादल के टुकड़े को लिए हुए। हवा में तैरता हुआ ये इन इमारतों से आज़ादी की और बढ़ चला। दोनों इमारतों ने इसे पकड़ कर रखने की बहुत कोशिश की पर ये तो निकल ही गया इनके चुंगल से। अब बस अंतिम छोर बचा है। देखो ! वो भी निकल गया। इमारतों के बीच अब बस नीला आकाश है जिस पर पक्षी मंडरा रहे हैं। पीछे से एक और घने काले बादल का टुकड़ा तैरता आ रहा है। इस बात से अनजान कि इमारतों के बीच फंस सकता है। इमारतें चुपचाप किसी शिकारी की भांति खड़ी है। प्रतीक्षा में। पर ये क्या ! ये तो जैसे आया था वैसे ही आगे बढ़ गया। इमारतें खड़ी रह गईं ठगी सी।  अब बादल बेचारे को क्या पता किस राह जाना है ! बादल की इसी दीवानगी को, निदा फ़ाज़ली ने क्या शब्द दिए हैं -

बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने

किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है

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