Monday, 12 October 2020
नम्बरों की दौड़
दिल्ली यूनिवर्सिटी की प्रथम कट ऑफ 100% गई है। 90% लाने वाले बच्चों का नम्बर तो शायद अंतिम कट ऑफ में भी नहीं आ पाए। तो ये बच्चे कहाँ जाएं प्रवेश के लिए? बचे फिर वही प्राइवेट कॉलेज जिनकी फीस बहुत है। जो शिक्षा की दुकान खोले बैठे हैं। और दिल्ली यूनिवर्सिटी ऐसी क्या शिक्षा देती है जिसे 100% वाले ही ले पायें। वही कोर्स वही सिलेबस। आधे सत्र तो पढ़ाई ही नहीं होती। और इसमें पढ़ने वाले क्या सारे ही छात्र जीवन में सफ़ल जो पाते हैं? और जो शीर्ष पर पँहुचते भी हैं वो तो वैसे ही पहुंच जाते चाहे किसी भी यूनिवर्सिटी से पढ़ते। कहीं न कहीं 12 की परीक्षा में कमी है । ये ऑब्जेक्टिव टाइप प्रश्नों का खेल खत्म होना चाहिए जिसमें या तो सही उत्तर होता है या ग़लत। और सही है तो पूरे नम्बर। ये व्यवस्था ही 100 प्रतिशत नम्बर लाने के लिए ज़िम्मेदार है। हमारे समय में पांच प्रश्न हल करने होते थे और सभी के उत्तर विस्तृत होते थे कितना ही अच्छा लिख लो 20 में से 20 कभी आते ही नहीं थे। बस गणित का पेपर ऐसा था जिसमें आप पूरे नम्बर ले सकते थे यदि सारे प्रश्न सही तरीके से हल किये हों। उत्तर यदि सही भी हो और एक दो स्टेप न लिखे हों तब भी नम्बर कट जाते थे। या तो ये ऑब्जेक्टिव प्रश्नों का खेल खत्म हो या फिर यूनिवर्सटी में प्रवेश लॉटरी से हो तभी बच्चो और अभिभावकों पर से ये बोझ कम हो पायेगा। और आख़िरी प्रश्न - यदि हमारे बच्चों में इतनी भी प्रतिभा है तो नोबल पुरस्कारों में भारतीयों का नाम क्यों नहीं आ पाता सिवाय कुछ अपवादों के? और वो भी जहां तक मुझे ज्ञात है, तीन बार 'शांति' के लिए आया है और एक बार 'अर्थशास्त्र' के लिए। न कि किसी अविष्कार या खोज के लिए !
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