Monday, 27 November 2023

साहित्य कम, आज तक ज्यादा

मेरी दो पुस्तकें "शब्दांकुर प्रकाशन" द्वारा पब्लिश की गई हैं। उनकी और से एक आमंत्रण के फ़लस्वरूप मेरा "साहित्य आज तक - 2023" में जाना हुआ। भीड़ तो अच्छी खासी थी पर साहित्य प्रेमी मुझे कम ही दिखायी पड़े। गेट नम्बर 5 के पास कुछ प्रकाशकों के बुक स्टाल लगे हुए थे। वहां शिरकत करने वाले कम ही थे। "शब्दांक़ुर प्रकाशन" पर के. शंकर सौम्य से मिलना हुआ। उनके स्टाल पर अपनी पुस्तकें देख कर प्रसन्नता भी हुई। श्री सौम्य बड़े प्रेम से मिले और सम्मान पत्र दे कर सम्मानित किया। सबसे ज़्यादा भीड़ एक स्थान पर देख कर हम भी वहाँ उत्सुकता वश चले गए। अंदर एक एनक्लोजर में कुछ लिपे पुते चेहरे मुझे दिखाई पड़े। ये वो ही चेहरे थे जिन्हें हम रात दिन चिल्ला चिल्ला कर तथाकथित न्यूज़ पढ़ते देख देख कर उकता चुके हैं। पर उस एनक्लोजर में आम आदमी का प्रवेश नहीं था। वहाँ कुछ विशेष व्यक्तियों को ही प्रवेश की अनुमति थी। फिर भी बहुत से लोग उस लोहे के बैरिकेड से सटे अपने अपने मोबाईल लिए इंतज़ार में थे। तभी एक महिला निकल कर बैरिकेड के पास आई। भीड़ ऐसे उतावली हो गई मानो साक्षात प्रभु ही अचानक वैकुंठ से वहाँ अवतरित हो गए हों। "मैम इधर", "मैम इधर" की आवाज़ें मुखर हो उठीं। और वो महिला नकली मुस्कराहट के साथ सेल्फ़ी के लिए पोज़ देती रही। फिर उसके अंदर लौट जाने पर भीड़ अगली सेलिब्रटी का इंतज़ार करने लगे। हम पीछे OTT स्टेज की तरफ़ लौट आये। पत्नी पीछे की खाली कुर्सी देख कर बैठ गई। स्टेज़ पर एक लड़का सभी दिशाओं में हाथ पैर पटक रहा था। तेज़, न समझ आने वाला संगीत बज रहा था। कभी कभी वो नीचे स्टेज़ पर गुलाटी भी मारता फिर खड़ा हो कर हाथ पैर पटकता। दर्शक सीटियां और तालियां बजा रहे थे। हम जल्द ही वहाँ से उठ गए। साथ के स्टेज़ पर कोई परिचर्चा चल रही थी। जिसमे किताबें लिख कर करोड़पति कैसे बना जाए ये बताया जा रहा था। हम खाने के स्टॉल की तरफ़ बढ़ लिए। जाते जाते मैंने पत्नी से कहा कि ये सब ड्रामा है। तभी साथ निकल रहे दो व्यक्तियों में से जो शायद आयोजक थे, उनमें से एक ने कहा ,"बहुत बड़ा ड्रामा है साहिब। सब पब्लिसिटी है।" मेरी पत्नी का कहना था कि ये दुनिया ही एक रंगमंच है। खैर छोड़िये। खाने की खुशबू से ही, जिसमें प्याज़ और लहसुन की मिली जुली गंध थी, रही सही भूख भी मर गई । हाँ, एक स्टाल पर गर्म जलेबी और समोसे बिक रहे थे। टोकन लेने मुझे कई स्टाल पीछे जाना पड़ा। वहाँ पता चला कि बचे हुए टोकन वापस नहीं होंगें। हिसाब लगा कर टोकन लिए और जलेबी समोसे का आनन्द लिया। पीछे सीढ़ियों पर बैठी एक लड़की अपने साथ बैठे लड़के के बालों में प्यार से हाथ फेर रही थी। सभी स्टालों पर नैपकिन माँगने पर ही मिल रहे थे। हमनें भी नैपकिन माँगे और हाथ पौंछे। सोचा एक एक कुल्फ़ी का भी आस्वादन लिया जाए। अब हम लल्लनटॉप अड्डे पर आ पँहुचे थे। आगे भीड़ ज़्यादा थी। पीछे की कुर्सियों पर हम बैठ गए। शैलेश लोढ़ा से बातचीत चल रही थी। फिर कोई स्टैंडिंग कॉमेडियन आया। एक राज्य विशेष के लोगो पर उसने भद्दी कॉमेडी की और ये कह कर बच लिया कि मैं भी उसी राज्य से हूँ। इन दिनों कॉमेडी की भी कॉमेडी बन गई है। जितनी गालियां दो, कॉमेडी के नाम पर, लोग चुपचाप सुनते ही नहीं, हँसते भी हैं। खैर, अँधेरा घिर आया था और हम भी थक गए थे। गेट नम्बर 3 भी नज़दीक़ था। निकल आये। पूरे समय में, मुझे "साहित्य" कम और "आज तक" ज़्यादा नज़र आया। शायद नज़र कमज़ोर हो चली है। 

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