समय बीता और साहिबी किशोरावस्था को लांघ कर योवन की दलहीज पर आ खड़ी हुई। उसका मन अब फूलों, तितलियों में नहीं रमता था। उसका मन करता कि सुदूर पर्वत श्रंखला से कोई आये जिससे वो अपने मन की कह सके। और एक दिन सुदूर पहाड़ियों से सचमुच एक राजकुमार आया । साहिबी ने पूंछा, " तुम्हारा नाम क्या है ?" उसने कहा, " पहले तुम बताओ। "
"साहिबी", उसके मुँह से निकला। उसे अपनी आवाज ही अपिरिचित सी लगी।
"तो मैं साहिब।" कह के वह हँस दिया।
साहिबी को तो मानो उसके सपनों का राजकुमार मिल गया था। दोनों हरी घास की मखमली चादर पर घंटो लेटे बतियाते रहते। चाँदनी रात में पारिजात के पेड़ तले उनकी बातें समाप्त ही नहीं होने को आतीं । चाँद आकाश में धीरे धीरे सरकता रहता। भोर होती तो पारिजात अपने पुष्प गिरा के उनको जगाता। साहिब कहता , " मैं तुम्हें ले जाऊंगा, जल्द ही"। और साहिबी खिल उठती।
फिर एक दिन भोर होने को थी। साहिब चलने को हुआ। साहिबी ने कुछ देर और रुकने की अनुनय की। मखमली घास पर बिछी चुनरी साहिबी ने समेटी ही थी कि पास लगे रात कि रानी के झाड़ से एक सर्प तेज़ी से निकला और साहिब को डस लिया। जब तक साहिबी कुछ समझ पाती साहिब का शरीर नीला पड़ गया और वह निष्प्राण हो गिर पड़ा। साहिबी उसको जागती रही। पर वो तो जा चुका था। साहिबी की तो मानो दुनिया ही उजड़ गई। वो न रोयी ; न कोई विलाप किया बस पाषाण हो रही ।
ये सुबह साहिबी के लिए बहुत मनहूस थी। गाँव वाले साहिब के निर्जीव शरीर को ले चले। साहिबी के भीतर कहीं कुछ पिघलने लगा। वो उच्च स्वर में विलाप कर उठी। उसकी सूनी आंखों से इतने अश्रु बहे कि जल प्लावन हो गया। देखते ही देखते साहिबी द्रव रूप हो एक नदी में परिणित हो बह चली। मार्ग में किसी संत का आश्रम था। संत ने साहिबी को आदेश दिया कि उसके आश्रम से हट कर बहे। पर साहिबी अपने में ही कहाँ थी। उस आश्रम तो अपने साथ लेते हुए बहने लगी। संत ने साहिबी को श्राप दिया कि तू अधिक दूर तक नहीं बहेगी। जल्द ही विलुप्त ही जाएगी। साहिबी इसी श्राप के साथ बहती रही।
साहिबी का जल धीरे धीरे कम होने लगा। वो राजस्थान से होकर रेवाड़ी जिले के समीप से हरियाणा में प्रविष्ट हुई। मार्ग में कुछ सखियाँ मिलती गयीं ; दोहन , कृष्णावती, इंदोरी इत्यादि और साहिबी उन सबको अपने में समाहित कर बहती रही। फिर कोट्कासिम से होती हुई पुनः राजस्थान में आ निकली। पर साहिबी तो शापग्रस्त थी। उसे तो दिल्ली आ के नाले में तब्दील होना था। इसलिए वो राजस्थान छोड़ जारथल गाँव के समीप से पुनः हरियाणा में प्रविष्ट हो गई। अब तो बस वर्षा ही साहिबी का एकमात्र सहारा थी । हल्की वर्षा में इसकी सूखी छाती सारा जल सोख लेती। जब वर्षा अधिक होती तो ये जल से परिपूर्ण हो दो भागों मे विभक्त हो झझर तक आ जाती। और अंतत दिल्ली में आ कर नजफ़गढ़ नाले से मिल जाती। 40 किलोमीटर इस नाले के साथ बहते हुए ये यमुना नदी में अपना अस्तितव खो देती।
लगभग 300 किलोमीटर के इस यात्रा में, साहिबी 157 किलोमीटर राजस्थान में, 100 किलोमीटर हरियाणा में और 40 किलोमीटर दिल्ली में बहती है। ये किसी भी नदी के लिए बहुत छोटी यात्रा है। पर साहिबी के लिए सुकून कि बात बस ये ही है कि अंत में ये यमुना में जा मिली और इसके साथ बहती बहती कभी तो त्रिवेणी पंहुच गंगा से जा मिलेगी जो अंतत बंगाल कि खाड़ी में अपने सागर में गिरेगी।
@आशु शर्मा
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