आज तथाकथित नव वर्ष की पूर्व संध्या है। सुबह से मोबाइल पर नव वर्ष के बधाई सन्देश आ रहे हैँ। शिष्टाचार वश जवाब भी देना पड़ता है। कल तो आधा दिन इन्हीं बधाईंयों के आदान प्रदान मेँ निकलेगा। आज रात कनाट प्लेस में आधी रात तक खूब हुड़दंग होगा। बाजे बजेंगे, लोग नाचेंगे। शराब परोसी जायेगी और न जाने क्या क्या। पर क्या हम अपना चैत्र संवत्सर भी इसी उत्साह व् जोश खरोश से मनाते हैं? चैत्र संवत्सर ? ये क्या होता है ? जी हाँ, हममें से बहुतों को तो ये मालूम ही नहीं कि ये होता क्या है। आता कब है । इसका महत्व क्या है। विशेष कर बच्चों को तो पता ही नहीं। होगा कँहा से जब उनके माता पिता को भी ठीक से नहीं पता। हाँ, दादा, दादी, नाना, नानी जो अब दादू और नानू कहलाते हैं उन्होंने कभी जिक्र छेड़ा भी हो तो यही सुनने को मिला होगा - "क्या ये बुढ़िया पुराण बच्चों को पढ़ा रहे हो। दुनिया कँहा से कँहा पहुचं गई और आप अभी भी चैत्र संवत्सर से आगे ही नहीं बढे।" सच है दुनिया बहुत आगे बढ़ गई। पेड़ का बढ़ना तभी तक है जब तक वो अपनी जड़ो से जुड़ा है। जड़ से उखड कर पड़े सूखे वृक्ष को आंधी मीलों दूर ले जा के पटक दे तो उसे आगे बढ़ना नहीं कहते। आज की पीढ़ी कुछ इसी तरह आगे बढ़ी जा रही है। निश्चित तौर से 1 जनवरी हम भारतीयों का नव वर्ष नहीं है। ये क्यों शुरू हुआ। कब से हुआ, ये पोस्ट इन सब को बताने के उद्देश्य से नहीं लिखी जा रही है। इस बारे मेँ बहुत सारा ज्ञान एवम् जानकारी इंटरनेट पर उपलब्ध है। इस पोस्ट का उद्देश्य तो आप को झिंझोड़ना भर है। जागिये । अपनी जड़ो को पहचानिए। अपनी संस्कृति से जुड़िये। वरना वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब हमारी हालात उस सूखे वृक्ष सी होगी जो जड़ से उखड़ कर आधुनिकता की आँधी में बहुत आगे बढ़ गया हो।
Thursday, 31 December 2015
Friday, 25 December 2015
मुन्ने चाचा
यूँ तो सभी रिश्तों की अपनी एक गर्माहट होती है, पर ये जो चाचा भतीजे का रिश्ता है इसका एक अलग ही स्थान है। और फिर अगर चाचा भतीजे की उम्र का अन्तर कम हो तो सम्बन्ध की औपचारिकताएं समाप्त हो जाती हैं और वो मित्रता के सम्बन्ध मेँ परिवर्तित हो जाता है। कुछ ऐसा ही रिश्ता था मेरा और मुन्ने चाचा का। हाँलाकि हम साथ कम ही रहे पर जब भी रहे मित्रवत रहे।
वैसे हम दोनों का उम्र का अंतर इतना भी कम नहीं था, पर फिर भी हमारे बीच सम्बन्ध की औपचारिकता नहीं थी। मेरा जब जन्म हुआ तो मुन्ने चाचा 12 -13 वर्ष के रहे होंगे। वैसे तो उनका नाम सतीश था, पर सबसे छोटा होने के कारण सभी उन्हें मुन्ना कह कर बुलाते थे। तब संयुक्त परिवार की प्रथा थी। माँ बताया करती थी कि जब उन्हें शाम का खाना बनाना होता था तो वह मुझे मुन्ने चाचा को पकड़ा देती थीं।और वही उनका छत पर जा कर पतंग उड़ाने का समय होता था। अब वह मुझे संभाले या पतंग उड़ाए? और जब तक मैं रोऊँ नहीं , माँ मुझे उनसे ले नहीं। बस वो मुझे रुलाने के लिए जोर से नोंच लेते। और जब मेँ नोंचने के दर्द से रोता तो वह " भाभी, ये रो रहा है" कह कर मुझे माँ को थमा, अपनी पतंग उड़ने चल देते। अब जो बच्चा बोलना ही नहीं जानता, वो शिकायत कैसे करे। ये राज भी इन्होंने ही माँ को बताया था।
जब मैं मैट्रिक मेँ पंहुचा तब तक मुन्ने चाचा वयस्क हो चुके थे। अब वह हमारे साथ नहीं रहते थे। अजमेर में दादा जी व दो और बड़े भाइयों के साथ रहते थे। राजस्थान के वाटर वर्क्स विभाग मेँ उनकी नोकरी लग गई थी। उनकी पोस्टिंग अक्सर अजमेर के आस पास के ग्रामीण संभाग मेँ रही थी। मैं जब भी अजमेर दादा जी के पास जाता, उनसे मेरी खूब पटती। एक वो ही थे जो मुझे अपनी साइकल देने मे कभी ना नुकर नहीं करते। और साइकल उन दिनों मेरे लिए सबसे बड़ी नियामत होती थी।
उनका वयक्तित्व इतना प्रभावशाली था कि किसी को तो उनसे कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं होती थी। किसी की तरफ यदि आँख उठा कर देख लिया तो उसकी तो समझो सिट्टी पिट्टी गुम! छे फ़ीट की लंबी कद काठी, गठीला बदन, रौब दार चेहरा, भगत सिंह जैसी मूँछे और उस पर बड़ी बड़ी आँखे।
जैसा डील डौल था वैसी ही हिम्मत भी थी उनमें। डर तो जैसे उन्हें छू ही नहीं गया था। वह एक मंझे हुए तैराक थे। गहरे गहरे पाताल फोड़ कुओं मेँ वे बिना एक पल सोचे कूद जाते थे। जहरीले सापों से तो उनका रात दिन पाला पड़ता ही रहता था। पेड़ पर चढ़ने मेँ उन्हें महारथ हांसिल थी। पर जितना वो बाहर से सख्त दीखते थे अंदर से उतने ही कोमल ह्रदय थे।दूध जलेबी उन्हें बहुत प्रिय था। मैं जब भी अजमेर जाता, मुझे साइकल पर बैठा के दूध जलेबी खिलाने जरूर ले जाते थे।
एकदम बिंदास प्रकृति थी उनकी। अब तक उनका विवाह नहीं हुआ था। ये तब की बात है जब मैं हॉयर सेकेण्डरी के पेपर दे चुका था और परिणाम आने मेँ समय था। पापा ने मुझे दादी के पास अजमेर भेज दिया था। इसी बीच दादी की बहन के बेटे का भरतपुर मेँ विवाह तय हो गया । दादी मुझे भी अपने साथ भरतपुर लें गई। मुन्ने चाचा भी साथ थे। हम अजमेर से बांदीकुई होते हुए भरतपुर पंहुचे। बारात करौली जानी थी। हम सब बस से बारात मेँ करौली पंहुचे। विवाह सम्पन्न हो गया। और हम भरतपुर वापस आ गए। घर में मेहमानों का जमघट था और नहाने धोने के लिए इंतज़ार करना पड़ता था। एक दिन मुन्ने चाचा का नहाने का नंबर नहीं आ रहा था। उनका धैर्य जवाब दे गया। उन्होंने गमछा उठाया और बोले , " मैं नहर पर जा रहा हूँ।" मैनेँ कहा, "मैं भी साथ चलूँगा ।" वो सहर्ष तैयार हो गए। बोले, "कपडे और तौलिया ले ले।" दादी ने कहा, "इसका ध्यान रखियो।" "अरे अम्मा, क्या बात करती हो, इसे डूबने दूंगा क्या?" ,उन्होंने कहा। और हम दोनों नहर की और चल पड़े जो घर से कुछ ही दूर थी।
जिन पाठकों को भरतपुर नहर की जानकारी न हो, उनके लिए यँहा बता दूँ कि भरतपुर किले के, जिसे लोहागढ़ फोर्ट भी कहते हैं , चारों और ये नहर फैली है। किले को सुरक्षित रखने के लिए इसका निर्माण किया गया था। ये खाई 250 फुट चोड़ी और 20 फुट गहरी है। वैसे कहा तो यह जाता है कि इसकी गहराई का ठीक ठीक किसीको पता नहीं है। इसका पानी खड़ा है और बहता नहीं है। पर फिर भी ये नहर के नाम से जानी जाती है।भरतपुर के लिए पानी का यही एक श्रोत हुआ करता था। इसके आस पास रहने वाले सभी अच्छे तैराक हो गए थे। किले की विपरीत दिशा मेँ घाट बने हुए हैं। जिस पर लोग नहाते और कपडे धोते थे। इस पार बनी ऊँची बुर्जियों से बच्चे पानी मेँ कूदते और मछली की तरह तैर कर ऊपर आ जाते।
मुझे तो तैरना आता नहीं था। नहर पर पहुँच कर मुन्ने चाचा तो तैरने लगे और मैं घाट पर बैठ लौटे से पानी उलीच कर नहाने लगा। मेरे सामने की और नहर, किले की दीवार तक जा रही थी। मुन्ने चाचा एक कुशल तैराक की तरह तैर रहे थे। उनके तैरने मेँ एक लय थी। ऐसा लग रहा था कि तैरने मेँ उन्हें कोई श्रम ही नहीं करना पड़ रहा था।मेरी ओर आते हुए वो मुझे देख कर हँसते और फिर किले की और तैर जाते।
उन्हेँ ऐसे तैरते देख कर मेरा भी मन तैरने को मचल उठा। "मैं भी तैरना सीखूंगा। मुझे भी सिखाओ", मैनेँ चिल्ला कर कहा। ये सुन वह तैरते हुए घाट पर आये। उनकी पीठ किले की तरफ थी और वो घाट की सीढ़ियों पर कमर तक पानी में खड़े थे। उन्होंने अपनी बाहें फैला ली और मुझे अपनी बाँहों पर लिटाते हुए बोले, "तैरने से पहले फ्लोटिंग सीखनी पड़ेगी।" उनकी बाँहो पर मैं पानी में हाथ पैर मारने लगा। पानी उथला था और मैं बार बार घाट की सीढ़ियों से टकरा रहा था। मैं एक कुशल तैराक की देख रेख में था और इसलिए मुझे यह पक्का विश्वास था कि मैं ड़ूब तो नहीं सकता। मैनेँ इनसे दो सीढ़ी और पीछे जाने को कहा। वह हँसते हुए एक सीढ़ी और पीछे गए।मैं अभी भी उनकी बाँहो के ऊपर पानी मेँ था। " बस एक सीढ़ी और चाचा ", मैनेँ अनुनय की। न वह इस बात को जानते थे और न मैं ही कि जिस सीढ़ी पर वह खड़े थे वो घाट की अंतिम सीढ़ी थी।मेरे कहने से वह एक कदम और पीछे हटे कि बस ! मैं गहरे पानी मेँ था। मेरे मुँह से निकला, " ये क्या हुआ !" और फेफड़ो में कैद रही सही हवा भी निकल गई। मैं लगातार गहरे और गहरे पानी मेँ उतरा जा रहा था। मुन्ने चाचा का कोई पता नहीं था। पानी का तापमान कम होता जा रहा था। अँधेरा भी बढ़ रहा था। मुझे पानी का कोई अनुभव नहीं था। साँस लेने मेँ हवा का महत्व तब पता चलता है जब आप पानी मेँ या किसी ऊँचे पर्वत पर, जँहा ऑक्सीजन नहीं होती, वँहा होते हैँ। साँस कितनी देर रोकी जा सकती थी ? मैं लगातार बेतरतीब हाथ पैर मार रहा था। तभी किसी का पैर मेरे हाथ मेँ आ गया। मैनेँ उसे पकड़ना चाहा पर उस व्यक्ति ने झटक के मुझे परे कर दिया। ऐसा शायद दो तीन बार हुआ। मैं जब भी पैर पकड़ने की कोशिश करता, वह झटक के मुझे अलग कर देता। मैनेँ बचने की आस छोड़ दी थी। एक पल को माँ, पापा, भाई, बहन के चेहरे ह्रदय पटल पर कौंधे और फिर चेतना लुप्त हो गई।
चेतना जब वापस लौटी तो मैनेँ अपने आप को घाट पर पेट के बल लेटा पाया। कुछ लोग दवाब डाल कर पेट से पानी निकाल रहे थे। पास ही मुन्ने चाचा खड़े थे। उन्होंने कहा, "अब ठीक है ?" मैनेँ स्वीकृति मेँ सिर हिलाया। शायद घर खबर पंहुच गई थी। घर से भी कुछ लोग नहर पर आ गए थे।
बाद मेँ पता चला कि मुझे बचा के लाने वाला और कोई नहीं मुन्ने चाचा ही थे। वैसे तो घाट पर बैठे कुछ लोग हमें डूबता देख नहर मेँ कूदे थे। पर वो मुन्ने चाचा ही थे जो तब तक बाहर नहीं आये जब तक मैं उनके हाथ नहीं आ गया। जब तक मुझ में चेतना रही मैं उनका पैर पकड़ने का प्रयत्न करता रहा। और जैसा उन्होंने बाद मेँ बताया कि यदि वह मुझे न झटकते तो हम दोनों का डूबना निश्चित था। जब मेरी चेतना चली गई तो उन्होंने मुझे पकड़ा और बाहर खींच लाये। उन्होंने अपनी जान जोखिम मेँ डाल कर मुझे बचाया। क्योंकि हम दोनों मेँ से कोई भी बाहर नहीं आया था, घाट पर बैठे लोगों ने सोचा कि हम दोनों ही डूब गए। और उनमें से कुछ हमें बचाने कूद पड़े थे।
यूं तो बचाने वाला भगवान् ही है। पर मुझे बचाने मेँ उसने मुन्ने चाचा को निमित्त बनाया। उसके कुछ समय बाद मुन्ने चाचा का विवाह हो गया। एक बेटा भी हुआ। पर वैवाहिक जीवन का सुख उनके भाग्य मेँ अधिक नहीं था। दूसरा बेटा होने से पहले ही, टिटनेस जैसी घातक बीमारी ने उन्हें इस नश्वर संसार से विदा कर दिया। उन्हें दिवंगत हुए आज शायद 35 वर्ष से अधिक का समय हो गया है, पर आज भी उनकी बड़ी बड़ी आँखों वाला वो मुस्कराता हुआ चेहरा आँखों मेँ तैर जाता है। ये पोस्ट उन्हें एक श्रद्धांजलि है जो बहुत विलम्ब से दी जा रही है।
Thursday, 17 December 2015
नावों का पुल
लोहे के पुल का वर्णन करते हुए मैनेँ उसे मुख्य पुल कहा था। इसका कारण था कि इसी पुल के समान्तर एक और छोटा पुल था जिसे नावों का पुल कहा जाता था। ये एक काम चलाऊ पुल था जो बारिशों मेँ कुछ महीनों के लिए जब यमुना का जल स्तर बढ़ जाता था, उठा लिया जाता था। और बाद मेँ पुनः बनाया जाता था। इस पुल का निर्माण यमुना मेँ कई नावों को बाँध कर उनके ऊपर किया जाता था। इसीलिए इसे नावों का पुल कहा जाता था। ये पुल हल्के वाहनों के लिए इस्तेमाल किया जाता था जिनमें मुख्यत साइकिले थीं। ये पुल लोहे के पुल पर से हल्के वाहनों का भार अपने ऊपर ले कर मुख्य पुल का यातायात कम करता था।
इस पुल की और जाते समय यमुना रेत और लाल बदरपुर से बने रास्ते से गुजरना होता था। फिर यमुना पर बंधी नावों पर लोहे की चादरों पर बदरपुर बिछी काम चलाऊ सड़क से यमुना पार करते हुए उस पार रेत और बदरपुर की कच्ची सड़क पर होते हुए मुख्य सड़क पर आ मिलते थे। मैनेँ अनगिनत बार इस पुल को साइकल से पार किया होगा। वरन जब ये पुल होता था तो मैं लोहे की पुल पर जाने की अपेक्षा इस का प्रयोग करता था। इसके कई कारण थे।
पहला कारण तो हल्के वाहनों के कारण यँहा ज्यादा भीड़ भाड़ नहीं होती थी। दूसरा कारण इस पुल से यमुना जल को छुआ जा सकता था। आचमन भी कर सकते थे। तीसरा कारण इस की और जाता रास्ता सब्जियों के खेतों से हो कर जाता था और मुझे इस से गुजरना बहुत भला लगता था। चौथा कारण इस की ओर जाते रास्ते पर दोनों तरफ खेतों से आई ताज़ी सब्ज़ियां मिलती थी। बड़े बड़े तरबूज़ों की बेले खेतों मेँ फैली रहती थी। पर सबसे बड़ा कारण था यँहा मिलने वाला गन्ने का रस।
गन्ने के मौसम मेँ , गांधी नगर की ओर से यदि आप नावों के पुल पर जाते थे तो यमुना का पाट शुरू होने से पहले आपके दायीं ओर तम्बुओं की कतार लगी मिल जाती थी। गन्ने पेरने की मशीन उन दिनों भैंसा गाड़ी से चलाई जाती थी। मोटी धूप बत्ती का धुंआ भीनी भीनी सुगंध बिखेरता रहता था। इस धुंए से मक्खियाँ नहीं आती थी। कँही कँही इस काम के लिए उपले भी जलाये जाते थे। मोटे मोटे रसीले गन्ने जब पेरे जाते थे तो गाढा गाढा फेन दार रस निकलता था। गन्ने के साथ साथ अदरक, पोदीना और नीबू भी पेरा जाता था। बोरियों में लिपटी बर्फ की सिल्ली में से बर्फ तोड़ कर ठंडा ठंडा रस जब पिया जाता था तो जो तृप्ति मिलती थी वो शब्दों मेँ नहीं लिखी जा सकती। अपनी अपनी साइकल स्टेण्ड पर लगा के कितने ही लोग इस रस के मोह में खींचे चले आते थे। ऑफिस से लौटते समय यमुना किनारे मूढो पर बैठ कर ढलती शाम मेँ इस रस का आनंद लेना ग्राहकों के लिए अपने आप में एक अलग ही अनुभव हुआ करता था। मैनेँ असंख्य बार इस रस का आस्वादन किया होगा।
आज न नावों का वो पुल है। न ही वो गन्ने का रस। समय के साथ साथ सब बदल गया। कँही अतीत में लुप्त हो गया। आज हम अपने बच्चों को गन्ने का रस नहीं पीने देते। कच्ची बर्फ डला तो कतई नहीं। एमोबाइसिस, हेपिटाइटिस और न जाने क्या क्या घातक बीमारियां डराती है। पानी भी आर ओ का पिया जाता है। कँहा गए वो दिन जब यमुना का ससुस्वाद मीठा जल चुल्लू भर भर पीते थे। कच्ची बर्फ डले गन्ने के रस का बेख़ौफ़ सुस्वाद लेते थे। कच्ची बर्फ के ही गोले रंग बिरंगे रंग डाल कर चूसते थे। हैण्ड पंप से निकाल ठंडा मीठा जल प्रयोग करते थे।आज यमुना की दुर्दशा पर दुःख होता है। पीना तो दूर , आचमन की भी आप नहीं सोच सकते। कौन जिम्मेदार है इस दुर्दशा का?
इसी दुर्दशा ने कितना बदल दिया है तब का और अब का बचपन। और इस बदलाव के साक्ष्य मेँ खड़ा होता वो नावों का पुल अगर आज वो होता।
Tuesday, 17 November 2015
लोहे का पुल और मैं
बहुत पहले एक फ़िल्म आई थी - गीत गाया पत्थरों ने।तब लगता था कैसा अजीब सा नाम है । पत्थर भी कँही गाते हैं। पर बड़े होकर ये समझ आई की सुनो तो पत्थर भी बोलते हैं। पत्थर ही क्यों हर वो निर्जीव वस्तु बोलती है जिससे आप जुड़े हैं।
अगर आप कश्मीरी गेट बस अड्डे से आई टी ओ की ओर जाएँ तो आप लोहे के पुल को बिना देखे नहीं जा सकते। हालाँकि आप इस पुल पर नहीं जायेंगे ,पर ये बरसों पुराना पुल आपको अपनी मौजूदगी का एहसास अवश्य करवा देगा। यमुना जो आज सूख चुकी है और जँहा पानी है वँहा नाले में परिवर्तित हो चुकी है, उस पर खड़ा ये जर्जर पुल आज भी ढो रहा है वाहनों के और रेल गाड़ियों के भार को। बिना कोई शिकायत करे खड़ा है ये पुल जो मेरा बचपन से साथी रहा है।
ये जोड़ता है यमुना बाजार को गांधी नगर से। वो ही गांधी नगर जो आज एशिया का एक बड़ा रेडी मेड मार्किट है। उसी गांधी नगर से सटा है कैलाश नगर जँहा मेरा जन्म हुआ था। जँहा मेरी गर्भ नाल गडी है। तभी तो आज 57 वर्ष बाद भी वो स्थान मुझे बरबस खींचता है अपनी और। और ये पुल भी।
जब से मैनेँ होश संभाला है ये पुल मेरा साथी रहा है। सेंकडो बार मैनेँ इस पुल को पार किया होगा। कभी पैदल, कभी साइकल पर, कभी तांगे या फिर बस मेँ। नीचे बहती कलकल करती यमुना, ऊपर भागते वाहन और सबसे ऊपर दौड़ती रेल।
बात पुरानी है। जब कैलाश नगर इतना भीड़ भाड़ वाला नहीं था। स्कूटर तो एक दो के पास ही होता थे। कार की तो बात ही मत करिये। यमुना पर बना ये एक मात्र मुख्य पुल था । रंग रोगन हो कर जब ये चमकता हुआ दीखता था इसके बनाने वालों पर हैरानी होती थी। रात को इसके ऊपर लगी ट्यूब लाइट्स इसको रोशन कर देती थी।
पापा के साथ जब मैं साइकल पर आगे बैठ कर इस पुल से गुजरता था तो लगता था अब यमुना मेँ गिरा, तब यमुना मेँ गिरा। पापा बिलकुल इसकी रेलिंग से सटा कर साइकल चलाते थे। नीचे बहती गहरी यमुना की नीली आभा लिए अथाह जल राशि और ऊपर वाहन।
इस पर अगर ऊपर रेल आ जाय तो सारा पुल काँप उठता था। मानो हिल कर अपनी ख़ुशी प्रगट कर रहा हो। लाख कोशिश करने पर भी पुल पर से कभी रेल दिखती नहीं थी। रेल के गुजर जाने पर फिर से थम जाता था कांपता हुआ पुल।
जब यमुना मेँ जल राशि कम होती थी और यमुना आस पास का क्षेत्र छोड़कर सिमट जाती थी तो उसका फैलाव और गहराई दोनों कम हो जाते थे । आस पास किसानों की झोपड़ियां कुकर मुत्ते सी उग आती थीं। किसान वँहा फूलों की और सब्जियों की खेती करते थे। पुल पर से गुजरते हुये नीचे गेंदे के बासन्ती और पीले फूलों की देखना बहुत भला लगता था। फूलों की खेती के चारों और लगी हरी सब्जियां देख कर लगता था मानो कोई हरे बार्डर की चादर बिछा दी गई हो जिसके बीच में बासन्ती फूल काढे गए है।
मुझे याद है किशोरावस्था मेँ मैं पैदल वाले पुल पर आ खड़ा हो घण्टों इस सुंदरता को निहारता रहता था । यमुना की ठंडी हवा और वातावरण में फैली गेंदे की महक युवा होते मन को और बेचैन कर देती थी। यमुना को बहते देख लगता था जैसे यमुना नहीं पुल बहे जा रहा है और साथ में बह रहा हूँ मैं - भावनाओ मेँ जो उमड़ती है किशोरावस्था के हर मन मेँ। मेरी एकाग्रता भंग होती थी ऊपर से धड़धड़ाती किसी रेल गाड़ी से।
मैं शुरू से अंतर्मुखी रहा हूँ। मेरे मित्र बहुत कम हैं।तब तो एक दो ही थे। गर्मियों मेँ रात का खाना खा कर मैं अकेला ही टहलने निकल पड़ता था। पुस्ता पार कर के कब पैदल पुल पर आ जाता था पता ही नहीं चलता था। चांदनी रात मेँ पुल पर खड़े हो कर नीचे बिछी बालू को देखता रहता था। उस पर पड़े चाँदी के कण चाँद की रौशनी मेँ चमकते थे। चाँद का प्रतिबंब यमुना जल मेँ पड़ता था। शांत मंथर गति से बहती यमुना भी चाँद के प्रतिबिम्ब को स्थिर नहीं रख पाती थी।
जैसे जैसे रात गहराती थी पुल पर वाहनों की आवाजाही कम होती जाती थी। ग्यारह बजते बजते इक्का दुक्का वाहन ही पुल से गुजर रहे होते थे। जब मैं लौटता था तो तांगे वाले अपना अपना घोड़ा खोल रहे होते थे। तांगे के पिछले हिस्से में रखा घास का गट्ठर निकाल बंधे हुए घोड़े के आगे डाल वो घर जाने का उपक्रम करते दीखते थे। दिन भर का थका पशु भी अब आराम करेगा - ये सोच कर मुझे अच्छा लगता था।
मेरा बिस्तर भी छत पर तैयार होता था। नीचे से सुराई मेँ पानी भर कर ठन्डे बिस्तर पर जब मैं जा लेटता था तो मन अभी भी उसी पुल पर अटका होता था। ऊपर टंगे चमकते चाँद को देखते देखते कब निंद्रा अपनी गोद मेँ ले जाती पता नहीं चलता। मैं सो जाता था एक और सुबह का स्वागत करने के लिए। और पुल भी विश्राम करता था अगली सुबह वाहनों का बोझ ढोने के लिए। वो क्रम जो आज भी जारी है।
Wednesday, 11 November 2015
त्यौहार और तिरोहित होता आनंद
कहते हैं जो आप बचपन मेँ होते हैं वही आप ता उम्र मरने तक रहते हैं। ये बात आत्मा की दृष्टि से तो ठीक है पर मन के सन्दर्भ मेँ मुझे ठीक नहीं लगती। बचपन का मन, किशोरावस्था का मन, यौवन का मन और वृद्धावस्था का मन सब अलग अलग होते है। यही कारण है कि आज की दीवाली - जब हम अपेक्षाकृत ज्यादा सम्पन्न हैं, बचपन की दीवाली जब इतनी सम्पन्ता नहीं थी, उस के मुकाबले फीकी सी प्रतीत होती है।
यूँ तो त्योहारों का सिलसिला तब हरियाली तीजों से ही शुरू हो जाता था जब माँ के साथ मैं यमुना किनारे बने बाग़ मेँ उन्हें झूला झूलते देखने जाया करता था, पर दीवाली की आहट दशहरे से आने लगती थी। हल्की हल्की गुलाबी सर्दी पड़नी शुरू हो जाती थी दिन जल्दी छिपने लगता था। मूंगफली के ठेलों से उठता धुंआ और शाल मेँ लिपटे हम बच्चे जब राम लीला देखते थे तो आज की मॉल मेँ बने पीवीआर थियटर से कँही अधिक आनंद आता था।
कार्तिक मास के प्रारम्भ से सुबह शाम तुलसी पर माँ दिया जलाया करती थी। शाम के झुटपुटे मेँ तुलसी पर जलता दिया कितना भला लगता था। शरद पूर्णिमा पर चांदनी रात मेँ भगवान को छत पर ले जा कर खीर भोग आती थी। पूरी रात खुली खीर में चंद्र किरण पड़ती रहती थी और सुबह वो अमृत तुल्य खीर प्रसाद मेँ मिलती थी।
फिर आती थी करवा चौथ। व्रत माँ का और चरत हमारा। फिर अहोई अष्टमी आ जाती थी । माँ हम बच्चों की दीर्घ आयु के लिए व्रत रखती थी। जँहा अहोई की पूजा होती थी वंही दीवाली पूजन किया जाता था। मिट्टी के करुओं को हल्दी से सजा कर उनमे पानी भर कर दस दस पैसे के सिक्के डाल देते थे। उनके ऊपर मैदा की पपड़िया रख दी जाती थी। मीठे और नमकीन टुनटुने मुनमुने बनते थे। अहोई माता का चित्र लगाकर सिंघाड़े,गन्ने, बैंगन,शकरकंदी आदि से पूजा होती थी। मीठे गुलगुले बनते थे। फिर धन तेरस पर कोई एक बर्तन ख़रीदा जाता था।
फिर छोटी दीवाली पर माँ सुबह जल्दी उठा देती थी। दही में चाँदी को देखा जाता था। दिया जला कर हल्दी उबटन लगा कर माँ नहलाती थी। और इंतज़ार होता था अगले दिन आने वाली दीवाली का। रात मे हटरी रख कर उसमे खीलें डाली जाती थी।
माँ सारे त्यौहार खूब रच बस कर करती थी।कहती थी सौ दुश्मनों के सर पर पैर रख कर साल भर का त्यौहार आता है। उन दिनों गैस कँहा होती थी। अंगीठी जला करती थी। माँ बहुत सारे पकवान व मिठाईयां बनाया करती थी। सुबह माँ स्नान कर के घी और तेल से जले दीये मनसा करती थी।
दीवाली की पूजा के स्थान को हटरी से सजाया जाता था। गणेश लक्ष्मी की मिट्टी से बनी प्रीतिमा के साथ चौखटे रखते थे। सेठ सेठानी, शेर चीते और भी कई तरह के मिट्टी के खिलौनों से पूजा स्थल को खूब सजाया जाता था।चौखटों में खील बताशे भर कर ऊपर खांड से बने खिलोने रख दिए जाते थे। पूजा के समय हटरी के ऊपर और सब तरफ रखे दिये और रंग बिरंगी मोमबत्तियां जब एक साथ जलती थी तो शोभा देखते ही बन पड़ती थी। फल, मेवा, मिठाई और पकवानों के साथ धूम धाम से माँ लक्ष्मी की पूजा होती थी। बीच बीच में बड़े लोग शंख नाद करते थे। पंचामृत स्नान कराया जाता था।
और इसके बाद शुरू होता था पटाखों का सिलसिला। रंग बिरंगी माचिस, फुलझड़ी, रौशनी देने वाले तार, फिरकनी और अनार खूब चलते थे। एक टिकिया को जलाने पर साँप बनता था। आवाज करने वाले बम मुझे कभी नहीं भाये। पर कर क्या सकता था सिवाय कानों पर हाथ रखने के आलावा। फिर पक्का खाना खाने को मिलता था।
पूजा स्थल की मोमबत्तियां तब तक बुझ चुकी होती थीं। पर एक बड़ा दीया हटरी पर सारी रात जलता रहता था। माँ कहा करती थी कि लक्ष्मी जी जब आएं अंधकार नहीं मिलना चाहिए। मैं पूजा स्थल के पास बैठ जाता था और कल्पना करता था कि सभी खिलोने जीवित हैं और एक गावँ में हैं। यँहा सभी मिल जुल कर रहते हैं। धीरे धीरे गावँ की सीमा समाप्त हो रही है और जंगल शुरू हो गया है। वँहा शेर चीते हैं। और भी बहुत सी कल्पनायें बाल मन में जन्म लेती थीं। इसी मैं रात गहरा जाती थी। पर हम नहीं सोते थे।
रात को 12 बजे माँ शोर्ति पूजती थी। देहरी पर ऊपर वाली चोखट के बीच में रोली से सतिया बना कर एक बताशा चिपकाया जाता था।
जैसे जैसे रात ढलती पटाखों का शोर कम होता जाता था। और रात मेँ थक कर बाल मन गाढ़ निंद्रा मेँ लीन हो जाता था।
सुबह हम उन पटाखों को बीन लेते थे जो बिना चले रह जाते थे। उन्हें खोल कर उनका बारूद एकत्रित कर के उसे रात मेँ जलाते थे और खुश होते थे। इस दिन गोवेर्धन पूजा होती थी। अन्न कूट का आयोजन किया जाता था। फिर भाई दूज सम्प्पन होने पर ही दीवाली पूजन का सामान उठाया जाता था।
ये सब आज भी होता है। पर आज माँ नहीं है। और सब भाई बंधु भी दूर दूर हैं।आज व्यक्ति अकेला हो गया है। बचपन का मन भी कँही खो गया है। सब कुछ वैसे ही होता है पर वो आनंद कँही तिरोहित हो चुका है।