आज तथा कथित मदर्स डे है। सुबह से सभी "माँ" को याद कर रहे हैं। माँ की ममता पर लिख रहे हैं। पर माँ क्या बस एक दिन याद करने के लिए है? ये देह माँ के ही गर्भ में बनी है। इसकी हर आती जाती श्वास माँ ही तो है। वास्तव में ये रिश्तों को बस एक दिन ही याद करना पश्चिमी संस्कृति है। वँहा लोगो के पास समय नहीं है कि रिश्ते सँजोये और संभालें। अतः हर रिश्ते को एक दिन मना कर अपने कर्तव्य की इति श्री समझ लेते हैं। ये उनकी परम्परा है। हमारी संस्कृति में तो माँ जैसे रिश्ते मनाने या किसी एक दिन विशेष याद करने के लिए नहीं हैं, वरन यँहा तो रिश्तों को दिन प्रतिदिन जिये जाने की परम्परा है। वो कौनसा दिन है जब माँ याद नहीं आती? जिनके सिर पर माँ है वह उसे प्रतिदिन सम्मान दें। जिनके नहीं है, वह प्रतिदिन याद करें। इसके लिए किसी दिन विशेष की दरकार क्यों हो ? हम आंख मीच कर बिना सोचे समझे पश्चिमी परम्पराएं अपनाये चले जा रहे हैं। चाहे वह मदर्स डे हो, या फादर्स डे या फिर वेलंटाइन डे। हमने कभी कोशिश ही नहीं कि ये जानने कि कुछ वर्ष पहले हम जिन दिनों को जानते ही नहीं थे, वह कैसे इतनी तेजी से हमारे जीवन का अंग हो गए? कुछ का तो ये मानना है कि दुनियां ही इस राह पर चल पड़ी है हमारे एक अकेले के अलग चलने से क्या होगा? जब मैं इस तर्क को सुनता हूँ तो मुझे दुष्यंत की ये पंक्तियां याद हो आती हैं-
कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता।
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों।
Sunday, 13 May 2018
बिना किसी लाग लपेट के
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