रात का खाना खा कर मैं छत पर आ गया हूं। आसमान साफ है, हल्की हल्की हवा बह रही है। दूर क्षितिज पर हल्के बादल है। चारों और पहाड़ों से घिरा ये इलाका अपेक्षाकृत शांत है। अभी शाम को ही शहर से लौटा हूँ। पुराने इलाकों में दिल्ली के चान्दनी चौक सी ही भीड़ भाड़ है। मानो किसी कटरे में खड़े हों। कटरा अशर्फी हो या कटरा लच्छू सिंह या फिर दरीबे का किनारी बाजार, जैसी भीड़भाड़ वँहा दीखती है ठीक वैसी ही जयपुर के शहर में है। उस भीड़ से वापस आ कर ये छत और आसपास का इलाका शांति देता है। कुछ दूरी पर लाल रंग से चमकता उत्तर पश्चिम रेलवे के मुख्यालय का साइन बोर्ड दीख रहा है। कुछ दाईं और गर्दन घुमाओ तो हरे रंग की बत्तियों से चमकता फोर्टिस हॉस्पिटल का साइन बोर्ड है। उससे कुछ हट कर क्लार्क आमेर होटल का साइन बोर्ड चमक रहा है। वर्ड ट्रेड टावर की नाव के आकार की इमारत भी पास ही है। पीछे पहाड़ पर लाल बत्ती जल बुझ रही है। जयपुर हवाई अड्डा पास ही है। एक जहाज़ काफी नीचे उड़ान भरता हुआ चक्कर काट रहा है। ये इसका तीसरा चक्कर है। शायद उड़ान पट्टी खाली नही है। तभी एक और जहाज़ ने अभी अभी उड़ान भरी है। उसके आगे की तेज हेड लाइट आसमान का अंधकार चीरती आगे बढ़ रही है। जलती बुझती बत्तियों के साथ वह मेरे सिर के ऊपर से गुजरता है और दिल्ली की तरफ बढ़ जाता है। उसके पीछे एक और जहाज़ आ गया है। शायद इन के उड़ने से चक्कर काट रहे जहाज़ को उतरने का संकेत मिल गया है। अब वो लौट कर नहीं आया है। जरूर उतर गया होगा। जयपुर के आसमान पर हवाई यातायात काफी बढ़ गया है। इन जहाजों को देखते हुए मुझे अचानक आसमान पर सप्त ऋषि मंडल दीख पड़ता है। उसके अंतिम तारे की सीध में मैं ध्रुव तारा तलाशता हूँ। बहुत मुश्किल से मैं उसे देख पाता हूँ। मेरे ठीक ऊपर के आकाश में एक ग्रह चमक रहा है। तारे के विपरीत ग्रह टिमटिमाते नहीं है और अपेक्षाकृत अधिक चमकीले होते हैं। इन्हीं के बीच एक लाल रंग का ग्रह दिखाई पड़ता है। मैं अनुमान लगाता हूँ कि शायद ये मंगल ग्रह होगा। इसी उहा पौह में मुझे याद आता है कि मैं थक गया हूँ। आंखे भी नींद से बोझिल हैं। और मैं थके कदमो से नीचे उतर आता हूं। जयपुर प्रवास का प्रथम दिवस समाप्त हो चला है।
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