बोर्ड के परिणाम आ रहे हैं। बच्चे तो चिन्तित हैं ही उनसे ज्यादा उनके माँ बाप चिंतित हैं। प्रश्न उठता है कि ज्यादा से ज्यादा नम्बरों की ये प्रतिस्पर्धा बच्चों को क्या सिखा रही है। हम उन्हें क्या बनाना चाहते हैं। शायद पैसे बनाने की मशीन। जो ज्यादा से ज्यादा पैसे बना सके वह बेहतर मशीन है। शायद यही एक मापदंड बचा है सफलता का। इसके लिए चाहे आप को कोई से भी रास्ता अपनाना पड़े, अपनायें। यँहा तक कि माँ बाप को भी तिलांजलि देनी पड़े तो दें। उन्हें बुढ़ापे में अकेला छोड़े, विदेश जाएं, करोड़ो कमाएं और फिर सब यंही छोड़ कर दुनिया से विदा हो जायें। क्या यही जीवन है? क्या पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसा ही चलता रहेगा। अब से कुछ समय पहले ये सब नहीं था। पैसे के लिये लोग नहीं जीते थे। पैसा जीवन की बहुत बड़ी आवश्यकता है। पर आवश्कता से अधिक पैसा अभिशाप है। यदि आप के पास 10 लाख हैं तो वह आपका पैसा हो सकता है। यदि यही 1 करोड़ है तो ये समस्या का आरंभ हो सकता है। और यदि आप के पास 10 करोड़ है तो यकीन मानिये वह आपका पैसा नहीं है चाहे आपने उसे कमाया ही क्यों न हो। आवश्यकता से अधिक पैसा समाज का है जो समाज़ ने आप पर विश्वास कर के आपको दिया है, ये आशा करते हुए कि आप उस पैसे को अच्छी तरह समाज़ की भलाई के लिए खर्च करेंगें। तो हम क्यों चाहते हैं कि हमारा बच्चा 99% ले कर आये और पैसे कमाने की एक बेहतर मशीन बन सके! जो बच्चे मेधावी हैं वह ही ऐसे नम्बर ला सकते हैं। और सभी बच्चे मेधावी नहीं होते। हम दूसरे बच्चों से अपने बच्चे की तुलना क्यों करते हैं! इससे बच्चे में न केवल नकारात्मकता आती है वरन वह अपनी ही नज़रो में गिर जाता है। मैंने चूंकि अपने बचपन मे ऐसी तुलनायें सही हैं, अतः इस बारे में मुझ से बेहतर उस बच्चे की मानसिकता को कोई नहीं समझ सकता जिसकी तुलना उससे बेहतर बच्चे से की जा रही हो। जीवन का उद्देश्य बड़े होकर मात्र पैसे कमाना नहीं है वरन एक अच्छा बेटा या बेटी बनना है। एक अच्छा भाई या बहन बनना है। एक अच्छा पति या पत्नी बनना है। एक अच्छा नागरिक बनना है। और एक बात और; जिंदगी में आप क्या हासिल करेंगे ये आपके 10वीं या 12वीं के नम्बर तय नहीं करते। ऐसा मैं सुनी सुनाई बातों के आधार पर नहीं कह रहा हूँ वरन अपनी बात कर रहा हूँ। आपको ऐसे लाखों सफ़ल व्यक्ति मिल जाएंगे जो अपनी पढ़ाई में बहुत अच्छे नहीं थे। मेरा बचपन आभाव ग्रस्त था। पढ़ाई पर इसका असर पढ़ा। उच्च गणित उन दिनों नया नया सिलेबस में आया था। अध्यापक पहले स्वयं पढने जाते फिर हमें पढ़ाते। मेरे लिए वह काला अक्षर भैंस बराबर था। नतीज़न हायर सेकेंडरी में गणित में मेरी कंपार्टमेंट आ गई। इसी वजह से मुझे कॉलेज में प्रवेश नहीं मिल पाया क्योंकि जब तक कंपार्टमेंट का परिणाम आया, कॉलेज प्रवेश बंद हो चुके थे। अतः बाहरी छात्र के रूप में प्रवेश लेना पड़ा। घर में एक और कमाने वाले कि सख्त ज़रूरत थी तो रेलवे अप्रेन्टिस में जॉइन कर लिया। फिर रेलवे का इलाहबाद सर्विस कमीशन का पेपर पास किया और सबसे नीचे वाली पोस्ट पर नोकरी शुरू की। पर एक जनून था कि यँहा नहीं रुकना है। मुझे इससे ऊपर निकलना है। और सीढ़ी दर सीढ़ी मैं चढ़ता चला गया। फिर रुक कर नहीं देखा। आज मेरे नम्बरों का क्या महत्व है? कोई भी सर्टिफ़िकेट, डिप्लोमा या डिग्री आपको बस किसी जॉब तक पंहुचाने की सीढ़ी मात्र है। आपकी बाद की सफलता का उस डिग्री से कुछ लेना देना नहीं है। हम में से कितने हैं जो यह कह सकते हैं कि जो पढ़ा था वह हमारी नोकरी में काम आ रहा है। शायद बहुत कम। इंजीनियर की डिग्री ले , सामाजिक शास्त्र जैसे विषयों से लोग सिविल सर्विस का एग्जाम पास करते हैं । MBA की डिग्री ले लोग एक्टर बनते हैं। ऐसे और भी सैंकड़ो उदहारण मिल जायेंगे जब हमने जो पढ़ा और हम जो कर रहे हैं उस दोंनो में कोई तालमेल नहीं है। तो फिर हम क्यों चिंतित है और क्यों अपने बच्चे को भी व्यर्थ चितां में डाल रहे हैं। इस बारे में गीता कहती है अपना कर्म पूरी ईमानदारी से करो और फल की चिंता मत करो। यही सीख मैंने अपने बच्चों को दी और यही आप भी अपने बच्चों को दें। उन्हें जीवन में हार का भी सामना करना सिखायें। क्योंकि हर हार के आगे जीत जरूर है। इंतज़ार लम्बा हो सकता है पर जीत अवश्यम्भावी है।
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