Saturday, 21 July 2018

विजयोल्लास

सिद्धान्त बना लेना और उस पर टिके रहना दो अलग अलग बातें हैं। उसने सिद्धान्त बना तो लिया था कि वो नशा नहीं करेगा पर क्या मौका पड़ने पर वो डगमगा जाएगा? ये नशा न करने की प्रतिज्ञा से स्वयं को बांधने की उसे क्या सूझी?

ये उन दिनों की बात है जब वो स्कूल में था। किसी एक व्यक्ति ने एक दिन उसकी माँ से चुगली करी।

'आन्टी जी, ये आपका बेटा किसी गलत संगत में पड़ गया है। मैंने आज स्कूल के बाहर अपनी आँखों से इसे  सिगरेट पीते देखा है।'

उसने पीछे से आते हुए माँ का जवाब सुन लिया था, ' तुम्हें कोई ग़लतफ़हमी हुई होगी। मैं मान ही नहीं सकती की उसने सिगरेट पी होगी। तुमने जरूर किसी और को देखा होगा। '

चुगली करने वाला तो अपना सा मुँह लेकर चला गया पर उस पर एक बड़ी जिम्मेदारी छोड़ गया था , माँ का विश्वास बनाये रखने की।  माँ ने उससे इस बारे में कभी नहीं पूँछा। तभी से उसने सोच लिया था कि यदि कभी सिगरेट पीयेगा तो माँ को बता कर पीयेगा। पर अब तो वो कोई भी नशा न करने की प्रतिज्ञा से बंध चुका था।

उसकी पहली पोस्टिंग राजस्थान के एक छोटे से शहर में हुई थी। मुश्किल से 18 से कुछ ही ऊपर का रहा होगा। अभी ठीक से मूंछे भी नहीं आईं थी कि घर का आराम छोड़ अकेला घर से दूर आ गया था।

स्वतन्त्रता एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी भी साथ लाती है यदि कोई समझे तो।

माँ ने समझाया था, 'तू घर का सबसे बड़ा बच्चा है। मुझे तुझसे बहुत उम्मीदें हैं। अकेला इतनी दूर जा रहा है। मुझे पता है तू संभल के चलेगा, पर फिर भी कोई ऐसा काम न करना जिससे मुझे शर्मिंदा होना पड़े।'

पहली बार उसे चार सौ पच्चीस  रुपए वेतन मिला था। इतनी बड़ी रक़म उसने हाथ में पहले नहीं ली थी। वेतन उन दिनों नक़द मिलता था। वो वेतन ले सीधा डाक घर गया। दो सौ रुपये उसने घर मनीऑर्डर करा दिए । बाकी बचे पैसे उसके लिए बहुत थे। चालीस  रुपए कमरे का किराया दे कर भी वो  आराम से महीना काट सकता था। फिर तो यह हर माह का उपक्रम हो गया था। माँ को उसके मनीऑर्डर का बेसब्री से इंतज़ार रहता। वो भी कभी चूक नहीं करता था- एक दिन की भी नहीं। पैसों का आभाव क्या होता है, वो इस कच्ची उम्र में ही जानता था।

आज भी उसे आनन्द याद है। सम्पन्न घर से था। घर उसे कुछ नहीं भेजना होता था। वरन आवश्यकता होती तो घर से और पैसे मंगा लिया करता था। आनन्द उससे अक़्सर पूँछता कि वो पैसे घर क्यों भेजता है?

'अरे यही तो दिन हैं, अपने पर खर्च कर।' आनन्द अक़्सर कहा करता।

आनन्द को सिगरेट पीने की लत थी। सिगरेट सुलगा कर जब वो गहरे कश लेता तो सिगरेट का अग्र भाग चमक उठता। फिर जब  वह धुंए के छल्ले बना हवा में उड़ाता तो उसके चेहरे पर एक सन्तुष्टी का भाव होता। आंखे बंद कर सिगरेट उँगलियों में दबाये वह उसे कोई विचारक लगता। गोल्डन फ़्रेम का चश्मा उसकी इस मुद्रा पर बहुत जमता था। बची सिगरेट के टुकड़े को जब वह नीचे फ़ेंक अपने चमचमाते नुकीले जूते के अगले हिस्से से मसलता तो लगता सिगरेट को नहीं अपने किसी विरोधी का सर कुचल रहा हो। पर जल्द ही उसे बेचैनी होने लगती और एक नई सिगरेट सुलगा लेता। आनन्द ने कई बार कोशिश की उसे सिगरेट पिलाने की पर वो  हर बार कोई न कोई बहाना बना टाल जाता।

उस दिन पहली तारीख थी। वेतन मिला ही था और वो  डाक घर जाने का विचार कर रहा था, कि आनन्द उसके साथ हो लिया। कार्यालय से कुछ दूरी पर पान की दुकान थी । आनन्द अक़्सर वंही से सिगरेट खरीदता था। चलते चलते वह वँहा रुक गया। एक पैकेट सिगरेट ख़रीदी और उसमें से एक निकाली। उसे ठेले पर लटकती मोटी सी जलती रस्सी से सिगरेट सुलगाना पसंद नहीं था। वो हमेशा सिगरेट सुलगाने के लिए अपना लाइटर प्रयोग करता था। उसने सिगरेट सुलगाई, एक गहरा कश लिया और उसकी और बढ़ा दी।

'ले आज पी कर तो देख',उसने आग्रह किया। पर उसने सदा की तरह मना कर दिया।

पान वाला उन दोनों से परिचित था। बोला, 'आनन्द बाबू ! हम तो जब मानें तब तुम इन्हें सिगरेट पिला कर दिखाओ।'

आनन्द ने चुनोती स्वीकार ली, 'अच्छा ये बात है तो आज मैं इसे सिगरेट पिला कर ही मानूँगा।'

आनन्द ने जेब से पर्स निकाला और पचास का नया नोट सामने रख दिया।

सिगरेट आगे बढ़ाते हुए बोला, 'बस एक कश और ये नोट तेरा।' 

उस समय पचास रुपये एक बड़ी रक़म थी। कम से कम उसके लिए तो थी ही। चालीस रुपए महीना तो उसके कमरे का किराया ही था। उसने न करते हुए सिर हिलाया। आनन्द का पर्स फिर खुला, इस बार नया सौ रुपए का नोट उसने निकाला और पचास के ऊपर रख दिया, 'एक कश और ये डेढ़ सौ रुपये तेरे।' वो नहीं डिगा।

आनन्द के अहम को शायद चोट पँहुची थी। आख़िर ऐसी भी क्या जिद! रकम बढ़ती रही और वह अड़ा रहा। तमाशबीनों की वहाँ भीड़ जुट गई थी। तंग आकर आनन्द ने अपना पर्स ही रख दिया,' इसमें जो भी रक़म है, सब तेरी। बस एक कश लगाना है।' वो बस मुस्करा दिया था।  सिगरेट भी इतनी देर में जल के समाप्त होने को थी। आनन्द की उँगलियों ने जलन का अहसास किया तो उसने बचा हुआ टुकड़ा नीचे डाल दिया और जूते के पंजे से मसल दिया। उसका क्रोध, उसकी निराशा उस बचे हुए टुकड़े को मसलते हुए उसके चेहरे पर आ ही गई थी।

आनन्द ने अपना पर्स उठाया और पैर पटकता हुआ चला गया। वह भी डाक घर की और मुड़ गया। माँ प्रतीक्षा में होगी। आज मनीऑर्डर न हुआ तो कल रविवार था। उसने अपनी गति बढ़ा ली थी। बिना शीशे के भी वो अपने चेहरे पर आई हुई विजयोल्लास की चमक देख पा रहा था। वह अपनी परीक्षा में उत्तीर्ण हुआ था।

Sunday, 15 July 2018

जीवन सिद्धान्त

आज उसकी सेवा निवृत्ति का दिन था। चालीस वर्षो की लंबी सेवा के बाद वह एक उच्च पद से सेवा निवृत्त हो रहा था। उसने कँहा से शुरू किया था और कँहा पँहुच सका था! विगत चालीस वर्ष कितनी उठा पटक के बीते थे। माता पिता साथ छोड़ गए थे। और भी कई साथी काल कलवित हो चुके थे। जीवन की जिम्मेदारियों को निभाते निभाते कब जीवन की संध्या आ गई उसे पता ही नहीं चला। कल से उसे कँही नहीं जाना था। सेवा निवृत्ति की विदाई पार्टी पर किसीने पूछा, 'आप की सफलता का राज़ क्या है?' तो उसने बिना सोचे कहा, 'मेरे सिद्धान्त और दृढ़ निश्चय।' ऐसा कहते हुए उसका जीवन किसी चल चित्र की भांति उसके स्मृति पटल पर चल निकला।

वो एक सीधा सादा शर्मीले स्वभाव का लड़का था। जब से होश संभाला, अपने को एक छोटे से घर में पाया। एक कमरा , छोटा सा आंगन जिसमें तीन तरफ कमरे थे और एक तरफ़ बॉथरूम और एक अलग से पार्टीशन में हैंड पम्प लगा था। सारा दिन वो और उसका छोटा भाई खेलते थे उस आंगन में। एक तीन पहियों की साइकिल थी जिसे पूरे आंगन में दौड़ाते। कभी कबूतरों के पीछे भागते तो कभी खुली छत पर  चढ़ जाते। गर्मियों की दुपहरी में सामने वाली माता जी जब चरखा चलातीं तो उसका चुरम चूं का संगीत उसे बहुत भाता। वो कपास की पूनियों से सूत कतता देखता। कभी कभी वह मैदा की सेवाइंया भी बनातीं थी । बड़े बड़े कानों में बड़ी सी गोल बालियों के भार से उनके कान कट गए थे। चेहरे और हाथों में ढेरों झुर्रियां थी। पर दुपहरी भर खाट पर  बैठ वो कुछ न कुछ करती रहतीं।

कुछ बड़ा हुआ तो माता पिता ने सामने बने एक स्कूल में डाल दिया। स्कूल क्या था पहली मंजिल पर बना एक मकान था जिसकी बॉलकोनी में आस पास के बच्चे टाट दरी पर बैठते थे। बॉलकनी की छत तो थी पर बाहर की तरफ से खुली हुई थी। नीचे लगे विशाल वट वृक्ष की ढेरों डालियां अपने चिकने कोमल पत्तो के साथ अंदर आ जाती। उस पर बैठे पक्षी भी "अ" से अनार और बड़े "आ" से आम पढ़ते थे। दो एकम दो और दो दूनी चार के पहाड़े जब बच्चे जोर जोर से बोलते, तो नीचे बने मकानों तक आवाज़ गूंजती। मासी सुबह सुबह चाय का गिलास और परांठा लाकर स्कूल में ही खिलाती। उसका ध्यान पढ़ाई में कम और नीचे की गतिविधियों में ज़्यादा रहता। वो सोचता कि मैं इस पेड़ की डालियों से नीचे उतर जाऊँ तो क्या ही मज़ा आये। मास्टरनी जब भी उसे देखती ज़ोर से चिल्लाती, 'बोर्ड की तरफ़ देख।बाहर देखेगा तो आंखों में मिर्चे डाल दूंगी।' और वो डर जाता। मासी स्लेट पर बड़ा सा 'आ' बना देती और उसका हाथ पकड़ उसके ऊपर स्लेटी चलवाती। पर उसे ये सब नहीं भाता था।

वो तो शाम होने का इंतज़ार करता और शाम होते ही छत पर चढ़ जाता। दूर आसमान में उड़ती रंग बिरंगी पतंगे देखता। नीड में लौटते परिंदे देखता। उनका सम्मिलित गान सुनता। दूर लोहे के पुल से जाती रेल गाड़ी को देख कर हाथ हिलाता। तप्त मुंडेरों पर पानी डाल उनसे उठती भाप को  सूंघता। गुलाबी, स्लेटी लाल, पीले होते आसमान के रंग उसे बहुत भाते। नाना जी की आंख बनी थी। हरे रंग के मोटे से कपड़े से एक आंख ढक कर वह भी छत पर आ जाते। वो ज़िद करता, 'नाना जी, कोई कहानी सुनाओ न।' और नाना जी उसे नित नई कहानी सुनाते। बीच बीच में वह कई सवाल करता तो नाना जी झुंझला जाते,'तू सवाल बहुत करता है। चल पांच का पहाड़ा सुना।' और वो बोलने लगता, 'पांच एकम पांच' पांच दूनी दस....' और यूं ही शाम ढल जाती थी। वो सोचता ये सब कितना भला है। अगर मरना न हो तो ये संसार कितना सुन्दर है। 'ये भगवान ने मरण क्यों बनाया?' ये प्रश्न उसके बाल मन को उद्देलित करता रहता। तब वह कँहा जानता था कि मरण ही तो जीवन है!

माँ धार्मिक थीं। उसका बचपन रामायण की कहानियां सुनते हुए बीता। भगवान कृष्ण की बाल कथायें भी उसने कई बार सुनी। कुछ बड़ा हुआ तो कहानियों की किताबों के स्थान पर उसे गीता प्रेस की  बाल कहानियां पढ़ने को मिली। उसके बाल मन पर इन सब का प्रभाव पड़ा। एक प्रश्न उसे कई बार परेशान करता था कि वो इस संसार में आया कैसे? वो माँ से पूछता,'माँ, मैं कैसे आया और कँहा से आया? ' माँ मुस्कराती और कहती,'जैसे लव और कुश आये थे।'
'लव कुश कैसे आये थे?' उसका अगला प्रश्न होता था।
माँ बताती कि वन में सीता जी ने दो घास के पुतले बना कर रख दिये थे। भगवान आये और उनमें जान डाल गए।  'तो क्या मैं भी घास का पुतला था?' माँ कहती ,और नहीं तो क्या! भगवान आये और तुझ में जान डाल दी। चल अब सो जा।'  उसका बाल मन समझ नहीं पाता था और माँ के आँचल को ओढ़ वह सो जाता। सुबह तक वह ये सब भूल जाता।

कुछ और बड़ा हुआ तो नाना जी ने सेकेंडरी स्कूल में भर्ती करा दिया। पिता जी तो व्यस्त ही बहुत थे। स्कूल जनसंघ की विचारधारा से प्रेरित था। हर शनिवार सुबह हवन होता। उसे हवन के सारे मन्त्र याद हो गए थे। फिर  प्रिंसिपल का भाषण होता जिसमें नैतिकता और चरित्र निर्माण पर बल दिया जाता।

प्रिंसिपल कहते, 'यदि तुमने चरित्र खो दिया तो समझो सब खो दिया। तुम्हें अभी लंबा जीवन जीना है। तुम में से कुछ ही अभागे होंगे जो अल्पआयु में चले जायेंगे। शेष सभी के आगे एक लंबा जीवन है। तुम्हारे सामने कई चुनोतियाँ आएंगी जब तुम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाओगे। जब तुम्हें ये निर्णय लेना कठिन होगा कि तुम्हें क्या करना चाहिए। ऐसे समय में तुम्हारा चरित्र ही तुम्हारा सम्बल होगा।जीवन में तुम में से हर किसी के कुछ सिद्धान्त होने चाहिए। ये सिद्धांत तुम्हें स्वयं तय करने है। बिना सिद्धान्तों के जीवन बिना पाल की नाव के समान होता है जो हवा के थपेडों से इधर उधर बहती रहती है और अंत में डूब जाती है। तो अपने सिद्धांत तय करो और इन पर अडिग रहो। तुम अपने घरों में सिनेमा तारिकाओं की तस्वीरें लगाते हो। उनसे तुम क्या सीखोगे? महापुरुषों की तस्वीरें लगाओ, उसने शिक्षा लो......'  और भाषण जारी रहता।

प्रत्येक शनिवार कुछ ऐसा ही भाषण होता। उसे नहीं लगता था कि इसका कुछ भी असर बच्चों पर होता था। उसकी क्लास में ही कई गुंडे, मवाली टाइप लड़के थे। वह सब मिल कर प्रिंसिपल का मज़ाक उड़ाते, गालियां देते और साथ में बने नर्सरी स्कूल की अध्यापिकाओं पर फब्ती कसते। उसे ये कतई पसंद नहीं आता था। एक दिन उसकी क्लास में एक छात्र देर से आया। क्लास टीचर ने स्पष्टीकरण मांगा तो बोला, 'मास्टर जी, भैंस हरी कराने गया था। उसी में टाइम लग गया।' पूरी क्लास जोर से हँसी थी और वह यही सोच रहा था कि काली भैंस हरी कैसे हो सकती है। उसने आज तक हरे रंग की भैंस नहीं देखी थी। वह पूछना चाहता था पर मज़ाक बनने के डर से नहीं पूछ पाया था। जँहा तक उसे पता है, उसकी क्लास से मात्र तीन छात्र ही कुछ कर पाए थे  जीवन में। शेष में से किसीने साड़ी छापे की दुकान खोल ली थी, किसी ने आटा चक्की लगा ली थी तो कोई सिनेमा पर टिकट ब्लैक में बेचता । कोई पुलिस की गोली से मारा गया तो कोई अपराधी जगत में प्रवेश कर गया। शायद वो ठीक ही सोचता था। प्रिंसिपल की बातों का कोई असर बच्चों पर नहीं पड़ा था।

शायद ये उसके बचपन के संस्कारों का प्रभाव था या पूर्व जन्म के संचित संस्कारो का कि उसके मन की माटी पर सिद्धान्त बनाने का बीज अंकुरित हो चला था। सेकेंडरी पास करते न करते उसने ठान लिया था कि जीवन में कुछ सिद्धान्त अवश्य बनायेगा। वह अपने जीवन की नाव को बिना पाल के भटकने नहीं देगा। और बहुत सोच विचार कर उसने तीन सिद्धान्त अपने लिए तय किये थे। पहला, कोई भी नशा नहीं करेगा। दूसरा, लड़कियों से दूर रहेगा और तीसरा घूस नहीं लेगा। तब वह नहीं जानता था कि सिद्धान्त बनाना और उन पर अडिग रहने में कितने और कैसे कैसे प्रलोभन आने वाले हैं। परीक्षा तो अभी शेष थी।

Thursday, 12 July 2018

क्रिकेट से मोह भंग

वैसे तो खेलों में मेरी कोई अधिक दिलचस्पी नहीं है, पर क्रिकेट खेलने में तो बिल्कुल नहीं हैं। अलबत्ता क्रिकेट देख लेता हूं वो भी कभी कभी टी वी पर -  स्टेडियम में जाना तो कदापि नहीं चाहूंगा। हालांकि मेरी पत्नी की उत्कट इच्छा है कि वह कम से कम एक मैच तो स्टेडियम में बैठ कर देखे। वैसे भी फील्डिंग पोजीशन मुझे आज भी समझ नहीं आती।

आखिर इस खेल से मुझे इतनी एलर्जी क्यों है, इसे जानने के लिए चलिए मेरे बचपन में चलते हैं। बात उन दिनों की है जब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था। क्रिकेट का मानो भूत सा सवार था मुझ पर उन दिनों। इतने पैसे तो थे नहीं कि क्रिकेट बैट और बाल ले सकें । कपड़े धोने का सोटा बैट था, पटरा विकेट का काम करता था और रबड़ की गेंद थी। घर का आंगन क्रिकेट का मैदान था। सब ठीक ठाक चल रहा था कि एक दिन मेरे दूर के भाई ने मुझे बताया कि उसे जन्म दिन पर क्रिकेट सेट उपहार  में मिला है। वह मेरे साथ मेरे ही स्कूल में पढ़ता था। छुट्टी के बाद वह मुझे अपने घर ले जा कर वह अपना उपहार  दिखाना चाहता था।

ये भाई जिसकी मैं बात कर  रहा हूँ  ये तो चांदी के चमच्च को मुंह मे ले कर  ही जन्मा था। घर परिवार सपंन्न था। बड़ी सी कोठी थी। घर इतना बड़ा की खूब धमाचौकड़ी करो। इसके विपरीत हम एक कमरे के छोटे से किराये के मकान में चार भाई बहन रहते थे। कमरा इतना बड़ा था कि शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाता था। मैं शाम को अक्सर इसकी कोठी पर चला जाता और खुली छत पर चढ़कर उड़ती पतंगों को ताका करता। इसकी माँ जिन्हें मैंं मासी कहता था, सरल ह्दय स्त्री थीं और मुझ पर स्नेह भी रखती थीं। तो शाम को जब मैं इसकी कोठी पर पँहुचा ये मेरा इंतज़ार ही कर रहा था। मैं तो समझा था कि बैट बाल होंगे उपहार में । पर ये तो पूरा सैट था  जिसमें विकेट से लेकर दस्ताने, पैड , हैल्मेट, जूते, टी शर्ट सभी कुछ तो था।

क्रिकेट  सैट तो मिल गया था पर अभी भी दो समस्याएँ बाकी थी । क्रिकेट का मैदान कौनसा होगा और टीम कहाँ से आयेगी। उस की कोठी की दीवार से लगी एक स्कूल की दीवार थी। उस पार एक सरकारी स्कूल की इमारत थी जो दो बजे तक चलता था।उस स्कूल का आदर्श वाक्य था - एक स्कूल खोलना सौ जेल बंद करने के समान है। वो अलग बात थी कि उस स्कूल ने ही न जाने कितने अपराधियों की खेप समाज को दी थी। तो तय ये हुआ कि हम स्कूल बंद होने के बाद दीवार फांद  कर स्कूल  में जाएँगे और खाली पड़े मैदान का  इस्तेमाल करेंगे। रही टीम की बात तो क्रिकेट के लिए कम से कम दो खिलाड़ी तो चाहिए थे और हम दो ही थे । और वैसे भी मेरा भाई अपना क्रिकेट गियर किसी से साझा करने के लिए सहमत नहीं था - मुझसे भी नहीं।

अगले दिन तय समय पर हम दीवार के पास पहुँचे । पहले उसने अपना बैग उस पार फेंका। फिर एक एक करके हम उस पार कूद गए । अब ख़ाली पड़ा मैदान था और हम थे।अब हमसे सब्र नहीं हो रहा था। मैंने सुझाव दिया कि टॉस कर लेते हैं। पर वह नहीं माना । बोला की सारा समान मेरा है तो बेटिंग भी मैं ही करूँगा। मेरे विरोध के बावजूद भी वह गियर पहनने लगा।

मैंने पास पड़ी ईंट उठा कर स्टम्प्स ठोके। तब तक वह बैटिंग के लिए तैयार था। क्रीच पर खड़ा होकर उसने किसी पेशेवर खिलाड़ी की तरह बल्ला हवा में घुमाया और चारों ओर नज़र घुमा के फील्ड का मुआयना किया। मैंने बॉल उठा ली। पहली बार क्रिकेट बॉल मेरे हाथ में थी। लाल रंग की चमकदार लैदर की बॉल जिस पर मोटे सफ़ेद धागे से गोलाइ में सिलाई की गईं थी, मेरे हाथ में थी। उसने मुझे धीमी गति से बॉल डालने को कहा। मैं दौड़ता हुआ आया और हाथ घुमा कर पहली डिलीवरी डाली। पर ये क्या! बॉल बिना कोई टप्पा खाये सीधी स्टम्प्स में जा लगी और दो स्टम्प्स गिर पड़े। मैं जोर से चिल्लाया - आउट। और विजयपूर्ण गर्व से बोला, देखा कर दिया न पहली ही बॉल पर क्लीन बोल्ड। पर मुझे क्या पता था कि इसका कोई लाभ नहीं होने वाला था। वह बोला, चल चल बॉलिंग कर। एक तो तू ने स्टम्प्स ठीक से नहीं ठोके। दूसरे फुल टॉस बॉल डाली और फिर मैं तो तैयार ही नहीं था। फ़िर क्या था। मैं उसे आउट करता रहा और वह बैट लिए क्रीच पर किसी न किसी बहाने से टिका रहा।

अब मैं बॉलिंग और फ़ील्डिंग कर के थक चुका था। और मेरे हाथ बैट थामने को मचल रहे थे। मैंने खेल छोड़ कर जाने की धमकी दी। तब कँही बड़े ही अनमने मन से उसने बैट मुझे थमा दिया। बोला, देखता हूँ कितनी देर बैटिंग कर पाता है।

मेरे हाथों में अब असली का क्रिकेट बैट था। ये कपड़े धोने वाले सोटे से कँही भारी था और बड़ा भी। मैं निक्कर और चप्पल पहने बैट थामे स्टम्प्स के सामने खड़ा था। मेरी निक्कर से निकली पतली पतली टांगे और हड्डियां निकले घुटने मुझे ही अज़ीब से लगे। मानो कह रहे थे कि बिना ढाल के युद्ध में उतर पड़े हो। हमारा क्या होगा। मैंने बैट संभाला और कस के पकड़ कर स्टम्प्स घेर के खड़ा हो गया। पता नहीं मुझे बैटिंग देने का गुस्सा था या पहली बॉल पर आउट करने का जनून, उसने तेज़ी से बॉल डाली। बॉल ने मुझ से कुछ ही दूरी पर टप्पा खाया और जब तक मैं समझ पाता, सीधी मेरे घुटने से आ लगी। जिसका डर था वही हो गया। उस दिन मुझे दिन में तारे दिखना कहावत का असली अर्थ समझ आया। मेरे सामने गहन अँधेरा आ गया और उस अंधकार में असंख्य तारे चमक उठे। मेरी चेतना कुछ देर को खो गई थी। ग़नीमत ये रही कि बॉल सिर पर नहीं लगी। वर्ना आज आप मेरी कहानी नहीं सुन रहे होते।

जब चेतना लौटी तो भाई सामान बैग में पैक कर चुका था और मुझे उठाने के प्रयास में रत था। घुटना सूज चुका था और असहनीय दर्द था। अब दीवार चढ़ना और उसे फांद कर जाने का तो प्रश्न ही नहीं था। उसके कंधे का सहारा लेकर जैसे तैसे लंगड़ाते हुए मैं दीवार तक आया। भाई ने अपने कन्धे पर चढ़ा कर दीवार पर बिठाया और दूसरी तरफ आकर ऐसे भी उतारा भी। लंगड़ाते लंगड़ाते जैसे तैसे मैं घर तक आया। फिर कितने ही दिन लगे घुटने को अपने आकार में वापस आने में। क्रिकेट खेलने से मेरा मोह भंग हो चुका था।

पर अभी शायद कुछ मोह शेष था जिसे भंग होने में पूरे चार वर्ष लगे। मैं ग्याहरवीं कक्षा में आ चुका था और हम गांधी नगर छोड़ सब्ज़ी मंडी रेलवे कॉलोनी में शिफ़्ट हो चुके थे। चार क्वाटर्स का ये ब्लॉक बिल्कुल सब्ज़ी मंडी स्टेशन के पास ही था। बीच में एक छोटा सा घास का मैदान था और फिर एक कम ऊंचाई की टूटी हुई दीवार थी जो स्टेशन को कॉलोनी से अलग करती थी।

सर्दियों के दिन थे। महिलाएं बाहर बैठ कर बतियाते हुए स्वेटर बुनती थीं और बच्चे उस छोटे से मैदान में क्रिकेट खेलते थे। मैं सामने बने पार्क की मुंडेर पर बैठ उनका खेल देखा करता था और अच्छे शॉट पर ताली बजा उत्साह वर्धन भी किया करता था। न तो कभी मैंने उनके साथ खेलने की इच्छा जाहिर की और न ही उन्होंने कभी कहा ही। मेरा मानना था कि यदि सभी खिलाड़ी हो जाएंगे तो दर्शक कौन बनेगा।

ऐसी ही एक दोपहर खेल के लिए दोनों टीमें एकत्र हुईं। मैं मुंडेर पर बैठ उनके खेल शुरू करने का इंतज़ार कर रहा था। पता चला कि उनका एक खिलाड़ी कम था और वह इस दुविधा में थे कि किसको लिया जाए। कुछ सोच वह मेरे पास आये और खेलने की पेशकश की। मैंने कहा कि मुझे क्रिकेट खेलना नहीं आता और मैं फिर से चोटिल होना नहीं चाहता। उन्होंने कहा तुम अंपायर बन जाओ। और हमारा अंपायर खेल  लेगा। मैंने कहा कि मुझे करना क्या होगा तो वह बोले आउट होने पर उंगली उठानी है, चार रन पर ऐसे इशारा करना है और छः पर ऐसे। मैं तैयार हो गया और मैच शुरू हुआ।

तीन बज़ रहे थे। फिरोज़पुर डीलक्स का समय हो रहा था। नियत समय पर गाड़ी प्लेटफॉर्म पर आ रुकी। उसका स्टीम इंजन मेरे से कुछ ही दूरी पर था। क्या शानदार इंजन था !एक दम चमक रहा था। शायद सीधा शेड से आ रहा था। विशालकाय राक्षस सा ! उसके ऊपर बना वेंट गाढा काला धुंआ उगल रहा था। कोयले के जलने की गंध सब और घुल गई थी। उसके ऊपर उठते धुंए से सूर्य का प्रकाश मद्धम हो गया था। नीचे लगे वेंट सफ़ेद बुर्राक स्टीम फेंक रहे थे। बड़े बड़े काले पहिये जो शाफ़्ट से एक दूसरे से जुड़े थे एक भय सा पैदा कर रहे थे। अंदर लगे पीतल और ब्रास के वॉल्व चमचमा रहे थे।  सिग्नल हो चुका था। ड्राइवर ने ऊपर लगी तार नीचे खींची तो तीखी सीटी जोर से बज उठी। ड्राइवर पीछे की ओर देख गार्ड के सिग्नल का इंतज़ार कर रहा था। गार्ड से  संकेत मिलते ही उसने फिर एक छोटी सी सीटी बजाई और छुक छुक की आवाज़ करता इंजन आगे बढ़ा मानो मस्त चाल से जंगल का राजा चलना शुरू करे।

तभी आउट की अपील हुई- एल बी डब्ल्यू! पर अंपायर तो दूसरी ही दुनिया में था। वह क्या सुनता। फिर दूसरी अपील और जोर से हुई- आउट है। फ़ील्डिंग करने वाली टीम ने मुझे घेर लिया। बैट्समैन बल्ला पकड़े मेरे निर्णय का इंतज़ार कर रहा था। मैंने सोचा ग्यारह लड़के इतने विश्वास से ऑउट बता रहे हैं तो ऑउट ही होगा। उस समय मैं स्वयं को राजा विक्रमादित्य समझ रहा था। मैंने उंगली उठा दी - ऑउट। बैट्समैन ने क्रोध से बैट जमीन पर दे मारा। विरोधी टीम के खिलाड़ियों ने मुझे घेर लिया और धकियाते हुए बोले- कैसे ऑउट दे दिया। साफ़ नॉट ऑउट है। मैंने उंगली नीचे कर ली और अपना निर्णय पलट दिया - नॉट ऑउट।

बस फिर क्या था । मेरी पीठ थी और बाईस लड़को के मुक्के। मैं निकल भागा और घर मे घुस गया। पीछे से उनकी गालियां हवा में तैरती रही। मैंने समझ लिया था कि ये खेल मेरी चाय का प्याला नहीं है। पीठ सेकते हुए मेरा रहा सहा मोह भी भंग हो चला था। उस दिन से मैंने क्रिकेट खेलने से तौबा की।

आज भी जब बच्चों को गली में क्रिकेट खेलते देखता हूँ तो मन होता है फिर से बच्चा बनने का। पर ये सोच कर कि इस उम्र की चोट जल्दी नहीं भरती, कदम पीछे खींच लेता हूँ।