वैसे तो खेलों में मेरी कोई अधिक दिलचस्पी नहीं है, पर क्रिकेट खेलने में तो बिल्कुल नहीं हैं। अलबत्ता क्रिकेट देख लेता हूं वो भी कभी कभी टी वी पर - स्टेडियम में जाना तो कदापि नहीं चाहूंगा। हालांकि मेरी पत्नी की उत्कट इच्छा है कि वह कम से कम एक मैच तो स्टेडियम में बैठ कर देखे। वैसे भी फील्डिंग पोजीशन मुझे आज भी समझ नहीं आती।
आखिर इस खेल से मुझे इतनी एलर्जी क्यों है, इसे जानने के लिए चलिए मेरे बचपन में चलते हैं। बात उन दिनों की है जब मैं सातवीं कक्षा में पढ़ता था। क्रिकेट का मानो भूत सा सवार था मुझ पर उन दिनों। इतने पैसे तो थे नहीं कि क्रिकेट बैट और बाल ले सकें । कपड़े धोने का सोटा बैट था, पटरा विकेट का काम करता था और रबड़ की गेंद थी। घर का आंगन क्रिकेट का मैदान था। सब ठीक ठाक चल रहा था कि एक दिन मेरे दूर के भाई ने मुझे बताया कि उसे जन्म दिन पर क्रिकेट सेट उपहार में मिला है। वह मेरे साथ मेरे ही स्कूल में पढ़ता था। छुट्टी के बाद वह मुझे अपने घर ले जा कर वह अपना उपहार दिखाना चाहता था।
ये भाई जिसकी मैं बात कर रहा हूँ ये तो चांदी के चमच्च को मुंह मे ले कर ही जन्मा था। घर परिवार सपंन्न था। बड़ी सी कोठी थी। घर इतना बड़ा की खूब धमाचौकड़ी करो। इसके विपरीत हम एक कमरे के छोटे से किराये के मकान में चार भाई बहन रहते थे। कमरा इतना बड़ा था कि शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाता था। मैं शाम को अक्सर इसकी कोठी पर चला जाता और खुली छत पर चढ़कर उड़ती पतंगों को ताका करता। इसकी माँ जिन्हें मैंं मासी कहता था, सरल ह्दय स्त्री थीं और मुझ पर स्नेह भी रखती थीं। तो शाम को जब मैं इसकी कोठी पर पँहुचा ये मेरा इंतज़ार ही कर रहा था। मैं तो समझा था कि बैट बाल होंगे उपहार में । पर ये तो पूरा सैट था जिसमें विकेट से लेकर दस्ताने, पैड , हैल्मेट, जूते, टी शर्ट सभी कुछ तो था।
क्रिकेट सैट तो मिल गया था पर अभी भी दो समस्याएँ बाकी थी । क्रिकेट का मैदान कौनसा होगा और टीम कहाँ से आयेगी। उस की कोठी की दीवार से लगी एक स्कूल की दीवार थी। उस पार एक सरकारी स्कूल की इमारत थी जो दो बजे तक चलता था।उस स्कूल का आदर्श वाक्य था - एक स्कूल खोलना सौ जेल बंद करने के समान है। वो अलग बात थी कि उस स्कूल ने ही न जाने कितने अपराधियों की खेप समाज को दी थी। तो तय ये हुआ कि हम स्कूल बंद होने के बाद दीवार फांद कर स्कूल में जाएँगे और खाली पड़े मैदान का इस्तेमाल करेंगे। रही टीम की बात तो क्रिकेट के लिए कम से कम दो खिलाड़ी तो चाहिए थे और हम दो ही थे । और वैसे भी मेरा भाई अपना क्रिकेट गियर किसी से साझा करने के लिए सहमत नहीं था - मुझसे भी नहीं।
अगले दिन तय समय पर हम दीवार के पास पहुँचे । पहले उसने अपना बैग उस पार फेंका। फिर एक एक करके हम उस पार कूद गए । अब ख़ाली पड़ा मैदान था और हम थे।अब हमसे सब्र नहीं हो रहा था। मैंने सुझाव दिया कि टॉस कर लेते हैं। पर वह नहीं माना । बोला की सारा समान मेरा है तो बेटिंग भी मैं ही करूँगा। मेरे विरोध के बावजूद भी वह गियर पहनने लगा।
मैंने पास पड़ी ईंट उठा कर स्टम्प्स ठोके। तब तक वह बैटिंग के लिए तैयार था। क्रीच पर खड़ा होकर उसने किसी पेशेवर खिलाड़ी की तरह बल्ला हवा में घुमाया और चारों ओर नज़र घुमा के फील्ड का मुआयना किया। मैंने बॉल उठा ली। पहली बार क्रिकेट बॉल मेरे हाथ में थी। लाल रंग की चमकदार लैदर की बॉल जिस पर मोटे सफ़ेद धागे से गोलाइ में सिलाई की गईं थी, मेरे हाथ में थी। उसने मुझे धीमी गति से बॉल डालने को कहा। मैं दौड़ता हुआ आया और हाथ घुमा कर पहली डिलीवरी डाली। पर ये क्या! बॉल बिना कोई टप्पा खाये सीधी स्टम्प्स में जा लगी और दो स्टम्प्स गिर पड़े। मैं जोर से चिल्लाया - आउट। और विजयपूर्ण गर्व से बोला, देखा कर दिया न पहली ही बॉल पर क्लीन बोल्ड। पर मुझे क्या पता था कि इसका कोई लाभ नहीं होने वाला था। वह बोला, चल चल बॉलिंग कर। एक तो तू ने स्टम्प्स ठीक से नहीं ठोके। दूसरे फुल टॉस बॉल डाली और फिर मैं तो तैयार ही नहीं था। फ़िर क्या था। मैं उसे आउट करता रहा और वह बैट लिए क्रीच पर किसी न किसी बहाने से टिका रहा।
अब मैं बॉलिंग और फ़ील्डिंग कर के थक चुका था। और मेरे हाथ बैट थामने को मचल रहे थे। मैंने खेल छोड़ कर जाने की धमकी दी। तब कँही बड़े ही अनमने मन से उसने बैट मुझे थमा दिया। बोला, देखता हूँ कितनी देर बैटिंग कर पाता है।
मेरे हाथों में अब असली का क्रिकेट बैट था। ये कपड़े धोने वाले सोटे से कँही भारी था और बड़ा भी। मैं निक्कर और चप्पल पहने बैट थामे स्टम्प्स के सामने खड़ा था। मेरी निक्कर से निकली पतली पतली टांगे और हड्डियां निकले घुटने मुझे ही अज़ीब से लगे। मानो कह रहे थे कि बिना ढाल के युद्ध में उतर पड़े हो। हमारा क्या होगा। मैंने बैट संभाला और कस के पकड़ कर स्टम्प्स घेर के खड़ा हो गया। पता नहीं मुझे बैटिंग देने का गुस्सा था या पहली बॉल पर आउट करने का जनून, उसने तेज़ी से बॉल डाली। बॉल ने मुझ से कुछ ही दूरी पर टप्पा खाया और जब तक मैं समझ पाता, सीधी मेरे घुटने से आ लगी। जिसका डर था वही हो गया। उस दिन मुझे दिन में तारे दिखना कहावत का असली अर्थ समझ आया। मेरे सामने गहन अँधेरा आ गया और उस अंधकार में असंख्य तारे चमक उठे। मेरी चेतना कुछ देर को खो गई थी। ग़नीमत ये रही कि बॉल सिर पर नहीं लगी। वर्ना आज आप मेरी कहानी नहीं सुन रहे होते।
जब चेतना लौटी तो भाई सामान बैग में पैक कर चुका था और मुझे उठाने के प्रयास में रत था। घुटना सूज चुका था और असहनीय दर्द था। अब दीवार चढ़ना और उसे फांद कर जाने का तो प्रश्न ही नहीं था। उसके कंधे का सहारा लेकर जैसे तैसे लंगड़ाते हुए मैं दीवार तक आया। भाई ने अपने कन्धे पर चढ़ा कर दीवार पर बिठाया और दूसरी तरफ आकर ऐसे भी उतारा भी। लंगड़ाते लंगड़ाते जैसे तैसे मैं घर तक आया। फिर कितने ही दिन लगे घुटने को अपने आकार में वापस आने में। क्रिकेट खेलने से मेरा मोह भंग हो चुका था।
पर अभी शायद कुछ मोह शेष था जिसे भंग होने में पूरे चार वर्ष लगे। मैं ग्याहरवीं कक्षा में आ चुका था और हम गांधी नगर छोड़ सब्ज़ी मंडी रेलवे कॉलोनी में शिफ़्ट हो चुके थे। चार क्वाटर्स का ये ब्लॉक बिल्कुल सब्ज़ी मंडी स्टेशन के पास ही था। बीच में एक छोटा सा घास का मैदान था और फिर एक कम ऊंचाई की टूटी हुई दीवार थी जो स्टेशन को कॉलोनी से अलग करती थी।
सर्दियों के दिन थे। महिलाएं बाहर बैठ कर बतियाते हुए स्वेटर बुनती थीं और बच्चे उस छोटे से मैदान में क्रिकेट खेलते थे। मैं सामने बने पार्क की मुंडेर पर बैठ उनका खेल देखा करता था और अच्छे शॉट पर ताली बजा उत्साह वर्धन भी किया करता था। न तो कभी मैंने उनके साथ खेलने की इच्छा जाहिर की और न ही उन्होंने कभी कहा ही। मेरा मानना था कि यदि सभी खिलाड़ी हो जाएंगे तो दर्शक कौन बनेगा।
ऐसी ही एक दोपहर खेल के लिए दोनों टीमें एकत्र हुईं। मैं मुंडेर पर बैठ उनके खेल शुरू करने का इंतज़ार कर रहा था। पता चला कि उनका एक खिलाड़ी कम था और वह इस दुविधा में थे कि किसको लिया जाए। कुछ सोच वह मेरे पास आये और खेलने की पेशकश की। मैंने कहा कि मुझे क्रिकेट खेलना नहीं आता और मैं फिर से चोटिल होना नहीं चाहता। उन्होंने कहा तुम अंपायर बन जाओ। और हमारा अंपायर खेल लेगा। मैंने कहा कि मुझे करना क्या होगा तो वह बोले आउट होने पर उंगली उठानी है, चार रन पर ऐसे इशारा करना है और छः पर ऐसे। मैं तैयार हो गया और मैच शुरू हुआ।
तीन बज़ रहे थे। फिरोज़पुर डीलक्स का समय हो रहा था। नियत समय पर गाड़ी प्लेटफॉर्म पर आ रुकी। उसका स्टीम इंजन मेरे से कुछ ही दूरी पर था। क्या शानदार इंजन था !एक दम चमक रहा था। शायद सीधा शेड से आ रहा था। विशालकाय राक्षस सा ! उसके ऊपर बना वेंट गाढा काला धुंआ उगल रहा था। कोयले के जलने की गंध सब और घुल गई थी। उसके ऊपर उठते धुंए से सूर्य का प्रकाश मद्धम हो गया था। नीचे लगे वेंट सफ़ेद बुर्राक स्टीम फेंक रहे थे। बड़े बड़े काले पहिये जो शाफ़्ट से एक दूसरे से जुड़े थे एक भय सा पैदा कर रहे थे। अंदर लगे पीतल और ब्रास के वॉल्व चमचमा रहे थे। सिग्नल हो चुका था। ड्राइवर ने ऊपर लगी तार नीचे खींची तो तीखी सीटी जोर से बज उठी। ड्राइवर पीछे की ओर देख गार्ड के सिग्नल का इंतज़ार कर रहा था। गार्ड से संकेत मिलते ही उसने फिर एक छोटी सी सीटी बजाई और छुक छुक की आवाज़ करता इंजन आगे बढ़ा मानो मस्त चाल से जंगल का राजा चलना शुरू करे।
तभी आउट की अपील हुई- एल बी डब्ल्यू! पर अंपायर तो दूसरी ही दुनिया में था। वह क्या सुनता। फिर दूसरी अपील और जोर से हुई- आउट है। फ़ील्डिंग करने वाली टीम ने मुझे घेर लिया। बैट्समैन बल्ला पकड़े मेरे निर्णय का इंतज़ार कर रहा था। मैंने सोचा ग्यारह लड़के इतने विश्वास से ऑउट बता रहे हैं तो ऑउट ही होगा। उस समय मैं स्वयं को राजा विक्रमादित्य समझ रहा था। मैंने उंगली उठा दी - ऑउट। बैट्समैन ने क्रोध से बैट जमीन पर दे मारा। विरोधी टीम के खिलाड़ियों ने मुझे घेर लिया और धकियाते हुए बोले- कैसे ऑउट दे दिया। साफ़ नॉट ऑउट है। मैंने उंगली नीचे कर ली और अपना निर्णय पलट दिया - नॉट ऑउट।
बस फिर क्या था । मेरी पीठ थी और बाईस लड़को के मुक्के। मैं निकल भागा और घर मे घुस गया। पीछे से उनकी गालियां हवा में तैरती रही। मैंने समझ लिया था कि ये खेल मेरी चाय का प्याला नहीं है। पीठ सेकते हुए मेरा रहा सहा मोह भी भंग हो चला था। उस दिन से मैंने क्रिकेट खेलने से तौबा की।
आज भी जब बच्चों को गली में क्रिकेट खेलते देखता हूँ तो मन होता है फिर से बच्चा बनने का। पर ये सोच कर कि इस उम्र की चोट जल्दी नहीं भरती, कदम पीछे खींच लेता हूँ।
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