Sunday, 15 July 2018

जीवन सिद्धान्त

आज उसकी सेवा निवृत्ति का दिन था। चालीस वर्षो की लंबी सेवा के बाद वह एक उच्च पद से सेवा निवृत्त हो रहा था। उसने कँहा से शुरू किया था और कँहा पँहुच सका था! विगत चालीस वर्ष कितनी उठा पटक के बीते थे। माता पिता साथ छोड़ गए थे। और भी कई साथी काल कलवित हो चुके थे। जीवन की जिम्मेदारियों को निभाते निभाते कब जीवन की संध्या आ गई उसे पता ही नहीं चला। कल से उसे कँही नहीं जाना था। सेवा निवृत्ति की विदाई पार्टी पर किसीने पूछा, 'आप की सफलता का राज़ क्या है?' तो उसने बिना सोचे कहा, 'मेरे सिद्धान्त और दृढ़ निश्चय।' ऐसा कहते हुए उसका जीवन किसी चल चित्र की भांति उसके स्मृति पटल पर चल निकला।

वो एक सीधा सादा शर्मीले स्वभाव का लड़का था। जब से होश संभाला, अपने को एक छोटे से घर में पाया। एक कमरा , छोटा सा आंगन जिसमें तीन तरफ कमरे थे और एक तरफ़ बॉथरूम और एक अलग से पार्टीशन में हैंड पम्प लगा था। सारा दिन वो और उसका छोटा भाई खेलते थे उस आंगन में। एक तीन पहियों की साइकिल थी जिसे पूरे आंगन में दौड़ाते। कभी कबूतरों के पीछे भागते तो कभी खुली छत पर  चढ़ जाते। गर्मियों की दुपहरी में सामने वाली माता जी जब चरखा चलातीं तो उसका चुरम चूं का संगीत उसे बहुत भाता। वो कपास की पूनियों से सूत कतता देखता। कभी कभी वह मैदा की सेवाइंया भी बनातीं थी । बड़े बड़े कानों में बड़ी सी गोल बालियों के भार से उनके कान कट गए थे। चेहरे और हाथों में ढेरों झुर्रियां थी। पर दुपहरी भर खाट पर  बैठ वो कुछ न कुछ करती रहतीं।

कुछ बड़ा हुआ तो माता पिता ने सामने बने एक स्कूल में डाल दिया। स्कूल क्या था पहली मंजिल पर बना एक मकान था जिसकी बॉलकोनी में आस पास के बच्चे टाट दरी पर बैठते थे। बॉलकनी की छत तो थी पर बाहर की तरफ से खुली हुई थी। नीचे लगे विशाल वट वृक्ष की ढेरों डालियां अपने चिकने कोमल पत्तो के साथ अंदर आ जाती। उस पर बैठे पक्षी भी "अ" से अनार और बड़े "आ" से आम पढ़ते थे। दो एकम दो और दो दूनी चार के पहाड़े जब बच्चे जोर जोर से बोलते, तो नीचे बने मकानों तक आवाज़ गूंजती। मासी सुबह सुबह चाय का गिलास और परांठा लाकर स्कूल में ही खिलाती। उसका ध्यान पढ़ाई में कम और नीचे की गतिविधियों में ज़्यादा रहता। वो सोचता कि मैं इस पेड़ की डालियों से नीचे उतर जाऊँ तो क्या ही मज़ा आये। मास्टरनी जब भी उसे देखती ज़ोर से चिल्लाती, 'बोर्ड की तरफ़ देख।बाहर देखेगा तो आंखों में मिर्चे डाल दूंगी।' और वो डर जाता। मासी स्लेट पर बड़ा सा 'आ' बना देती और उसका हाथ पकड़ उसके ऊपर स्लेटी चलवाती। पर उसे ये सब नहीं भाता था।

वो तो शाम होने का इंतज़ार करता और शाम होते ही छत पर चढ़ जाता। दूर आसमान में उड़ती रंग बिरंगी पतंगे देखता। नीड में लौटते परिंदे देखता। उनका सम्मिलित गान सुनता। दूर लोहे के पुल से जाती रेल गाड़ी को देख कर हाथ हिलाता। तप्त मुंडेरों पर पानी डाल उनसे उठती भाप को  सूंघता। गुलाबी, स्लेटी लाल, पीले होते आसमान के रंग उसे बहुत भाते। नाना जी की आंख बनी थी। हरे रंग के मोटे से कपड़े से एक आंख ढक कर वह भी छत पर आ जाते। वो ज़िद करता, 'नाना जी, कोई कहानी सुनाओ न।' और नाना जी उसे नित नई कहानी सुनाते। बीच बीच में वह कई सवाल करता तो नाना जी झुंझला जाते,'तू सवाल बहुत करता है। चल पांच का पहाड़ा सुना।' और वो बोलने लगता, 'पांच एकम पांच' पांच दूनी दस....' और यूं ही शाम ढल जाती थी। वो सोचता ये सब कितना भला है। अगर मरना न हो तो ये संसार कितना सुन्दर है। 'ये भगवान ने मरण क्यों बनाया?' ये प्रश्न उसके बाल मन को उद्देलित करता रहता। तब वह कँहा जानता था कि मरण ही तो जीवन है!

माँ धार्मिक थीं। उसका बचपन रामायण की कहानियां सुनते हुए बीता। भगवान कृष्ण की बाल कथायें भी उसने कई बार सुनी। कुछ बड़ा हुआ तो कहानियों की किताबों के स्थान पर उसे गीता प्रेस की  बाल कहानियां पढ़ने को मिली। उसके बाल मन पर इन सब का प्रभाव पड़ा। एक प्रश्न उसे कई बार परेशान करता था कि वो इस संसार में आया कैसे? वो माँ से पूछता,'माँ, मैं कैसे आया और कँहा से आया? ' माँ मुस्कराती और कहती,'जैसे लव और कुश आये थे।'
'लव कुश कैसे आये थे?' उसका अगला प्रश्न होता था।
माँ बताती कि वन में सीता जी ने दो घास के पुतले बना कर रख दिये थे। भगवान आये और उनमें जान डाल गए।  'तो क्या मैं भी घास का पुतला था?' माँ कहती ,और नहीं तो क्या! भगवान आये और तुझ में जान डाल दी। चल अब सो जा।'  उसका बाल मन समझ नहीं पाता था और माँ के आँचल को ओढ़ वह सो जाता। सुबह तक वह ये सब भूल जाता।

कुछ और बड़ा हुआ तो नाना जी ने सेकेंडरी स्कूल में भर्ती करा दिया। पिता जी तो व्यस्त ही बहुत थे। स्कूल जनसंघ की विचारधारा से प्रेरित था। हर शनिवार सुबह हवन होता। उसे हवन के सारे मन्त्र याद हो गए थे। फिर  प्रिंसिपल का भाषण होता जिसमें नैतिकता और चरित्र निर्माण पर बल दिया जाता।

प्रिंसिपल कहते, 'यदि तुमने चरित्र खो दिया तो समझो सब खो दिया। तुम्हें अभी लंबा जीवन जीना है। तुम में से कुछ ही अभागे होंगे जो अल्पआयु में चले जायेंगे। शेष सभी के आगे एक लंबा जीवन है। तुम्हारे सामने कई चुनोतियाँ आएंगी जब तुम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाओगे। जब तुम्हें ये निर्णय लेना कठिन होगा कि तुम्हें क्या करना चाहिए। ऐसे समय में तुम्हारा चरित्र ही तुम्हारा सम्बल होगा।जीवन में तुम में से हर किसी के कुछ सिद्धान्त होने चाहिए। ये सिद्धांत तुम्हें स्वयं तय करने है। बिना सिद्धान्तों के जीवन बिना पाल की नाव के समान होता है जो हवा के थपेडों से इधर उधर बहती रहती है और अंत में डूब जाती है। तो अपने सिद्धांत तय करो और इन पर अडिग रहो। तुम अपने घरों में सिनेमा तारिकाओं की तस्वीरें लगाते हो। उनसे तुम क्या सीखोगे? महापुरुषों की तस्वीरें लगाओ, उसने शिक्षा लो......'  और भाषण जारी रहता।

प्रत्येक शनिवार कुछ ऐसा ही भाषण होता। उसे नहीं लगता था कि इसका कुछ भी असर बच्चों पर होता था। उसकी क्लास में ही कई गुंडे, मवाली टाइप लड़के थे। वह सब मिल कर प्रिंसिपल का मज़ाक उड़ाते, गालियां देते और साथ में बने नर्सरी स्कूल की अध्यापिकाओं पर फब्ती कसते। उसे ये कतई पसंद नहीं आता था। एक दिन उसकी क्लास में एक छात्र देर से आया। क्लास टीचर ने स्पष्टीकरण मांगा तो बोला, 'मास्टर जी, भैंस हरी कराने गया था। उसी में टाइम लग गया।' पूरी क्लास जोर से हँसी थी और वह यही सोच रहा था कि काली भैंस हरी कैसे हो सकती है। उसने आज तक हरे रंग की भैंस नहीं देखी थी। वह पूछना चाहता था पर मज़ाक बनने के डर से नहीं पूछ पाया था। जँहा तक उसे पता है, उसकी क्लास से मात्र तीन छात्र ही कुछ कर पाए थे  जीवन में। शेष में से किसीने साड़ी छापे की दुकान खोल ली थी, किसी ने आटा चक्की लगा ली थी तो कोई सिनेमा पर टिकट ब्लैक में बेचता । कोई पुलिस की गोली से मारा गया तो कोई अपराधी जगत में प्रवेश कर गया। शायद वो ठीक ही सोचता था। प्रिंसिपल की बातों का कोई असर बच्चों पर नहीं पड़ा था।

शायद ये उसके बचपन के संस्कारों का प्रभाव था या पूर्व जन्म के संचित संस्कारो का कि उसके मन की माटी पर सिद्धान्त बनाने का बीज अंकुरित हो चला था। सेकेंडरी पास करते न करते उसने ठान लिया था कि जीवन में कुछ सिद्धान्त अवश्य बनायेगा। वह अपने जीवन की नाव को बिना पाल के भटकने नहीं देगा। और बहुत सोच विचार कर उसने तीन सिद्धान्त अपने लिए तय किये थे। पहला, कोई भी नशा नहीं करेगा। दूसरा, लड़कियों से दूर रहेगा और तीसरा घूस नहीं लेगा। तब वह नहीं जानता था कि सिद्धान्त बनाना और उन पर अडिग रहने में कितने और कैसे कैसे प्रलोभन आने वाले हैं। परीक्षा तो अभी शेष थी।

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