वैशाख और ज्येष्ट के महीनों में खूब तप ली थी धरा। सूरज ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी इन दो माह में। जलाशय सूख चुके थे, नदियां अपना फैलाव छोड़ कर छोटी छोटी धाराओं में विभक्त हो चुकी थीं। यँहा तक कि पेड़ पौधों से भी सारी आद्रता सूर्य के प्रखर ताप ने हर ली थी। पर इतनी आद्रता कितनी देर तक आसमान में ठहर सकती थीं। सब सिमट कर एकत्रित हो गई। धरा का दुःख इससे देखा नहीं गया। पयोधि के खारे जल ने वाष्प बन उड़ते हुए न जाने अपना खारापन कब और कँहा त्याग दिया। घने काले बादलों में परिवर्तित हो लौट चला जलधि का जल धरा की प्यास बुझाने, उसे तृप्त करने। देखते ही देखते दक्षिण से उठा ये पयोधर उत्तर में आ पँहुचा।
दिल्ली के आसमान पर कल से ही छाया है ये पानी से भरा वारिद। अब बरसूं कि तब बरसूं, कब बरसूं , कँहा बरसूं - कल से ही सोच रहा था। शायद किसी मुहर्त के इंतज़ार में था। और आज संध्या को सूरज डूबते न डूबते इसने दिल्ली के आकाश को ढक लिया। तेज पवन बह चली आद्रता लिए हुए। कब तक रोक पाता अपने को ये जलद आखिर। टप टप टप - कुछ बूंदे क्या गिरी फिर तो झड़ी ही लग गई। तेज़ हवा के साथ सारी क़ायनात झूम उठी इसके स्वागत में।
बूढ़ा नीम कैसे यूँ ही खड़ा रहता। थिरक उठा अचानक से बिना ये सोचे कि सामने वाला कीकर क्या कहेगा। कहे तो कहे, उम्र दराज़ हूं तो क्या मानसून की इस प्रथम फुहार का स्वागत भी न करूं! कितनी दूर से ये पाहुने आये है। ऐसा न हो कि नाराज़ हो आगे बढ़ जाएं। अरे, कुछ दिन तो यँहा रुकें, बरसे और मेरी निबौलियों की गुठलियों को जो नीचे मिट्टी में दब गई हैं, अंकुरित करें। मैं भी चाहता हूँ कि मेरे भी बेटे, पोते, नाती, नातियाँ हों। बोलता ही जा रहा था बूढा नीम स्वयं से। कीकर आंखे फाड़ कर उसे टकटकी लगाए देखता रहा। कमो बेश ऐसा ही कुछ आम और जामुन भी सोच रहे हैं।
पास लगी नाज़ुक जूही की लता वायु के तेज प्रवाह और बूंदों के प्रखर आघात को झेल नहीं पाई और नीचे आ पड़ी। जोर से बिजली कौंधी। पूरा आकाश क्षण भर के लिए चमक उठा। उसी रोशनी में मैंने देखा कि हार-श्रृंगार ने अपने सारे पुष्प इस पहली फुहार के स्वागत में बिछा दिए थे। और पानी के बहाब के साथ बह चली ये सौगात जो दी थी हार-श्रृंगार ने मानसून की पहली बौछार को। लैम्प पोस्ट की रौशनी के नीचे देखने से पता चलता है कितने वेग से बरस रहा है मेघ। मानो आज ही उलीच देना चाहता है अपना सारा जल।
मैं बॉलकोनी में आ जाता हूं। हवा के साथ कुछ बौछार मुझे भी भिगो देती है। मैं कुछ देर खड़ा हो बूढ़े नीम का झूमना देखता हूं फिर कह उठता हूँ- आओ मानसून। भले आये। तुम्हारा स्वागत है। आषाढ़ बरसना और बरसना सावन। भादो के आते आते जब तुम लौटने लगो तो घाटियों और वादियों को भर देना अपने जल से। जिससे नदियां फिर भरी पूरी हो धरा को सींचें और इतना परिपूर्ण कर देना कि वर्ष भर जल की कमी न हो। क्योंकि तुम कौनसे जल्दी से वापस आओगे। वर्ष भर बाद लौटोगे। आओ मानसून, तुम्हारा स्वागत है!
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