Tuesday, 29 January 2019

एक नेता का जाना

आज सुबह जार्ज फर्नांडीज़ अपनी दिवंगत यात्रा पर चले गए। दुनियां आनी जानी है। रोज़ न जाने कितने लोग आते हैं और जाते हैं। फिर उनके जाने से मुझे क्या अंतर पड़ा ? मैं तो  कभी व्यक्तिगत रूप से उनसे मिला भी नहीं। फिर मैं  व्यथित क्यों हूँ? ये जानने के लिए हमें अतीत में चलना होगा। वर्ष 1976-77 की बात होगी। हम कई  युवा रेलवे में एक वर्ष की  अप्रेंटिसशिप पूरी कर के सड़क पर थे। रेलवे ने इस आधार पर जॉब देने से मना कर दिया था। सभी निराश थे और गुस्से में भी थे। हम में से एक साथी ओम प्रकाश भटनागर की अगुआई में हम रोज धरना प्रदर्शन करते और रेलवे से अप्रेंटिसशिप के आधार पर जॉब  देने की मांग करते थे । पर रेलवे अधिकारियों के कान पर जूं भी नहीं रेंगती थी। मैंने तो आशा त्याग दी थी और इन धरनों में जाना बंद सा ही कर दिया था। मैं दूसरी प्रतियोगिताओं की तैयारियों में जुट गया था। तभी ख़बर आई कि आज रात स्टेट एंट्री रोड पर सारी रात धरने पर बैठना है। सभी से कहा गया कि इक्कठे होकर एकजुटता दिखानी है। लड़कियों से भी कहा गया कि अपने अपने घर से पूरी रात धरने पर बैठने के लिए अनुमति लेकर आएं। सोशलिस्ट नेता फर्नांडीज़ साहब के गेस्ट हाउस के बाहर धरना करना था। उस समय शायद जनता पार्टी की सरकार थी और जॉर्ज फेर्नांडीज़ लोक सभा सांसद थे। रेलवे से उनका पुराना नाता था जब  1974 की रेलवे हड़ताल में वह एक कद्दावर नेता बन कर उभरे थे । तब आल इंडिया रेलवे मेन फेडरेशन के प्रेजिडेंट के पद से जॉर्ज फर्नांडीज़ ने रेलवे हड़ताल की अगुआई की थी। उस रात हम सब उनसे बड़ी आशा के साथ संरक्षण और मदद की गुहार लगाने वाले थे। धरना शुरू हुआ। भटनागर ने ओज पूर्ण भाषण दिया। तभी रात 9 बजे के आस पास जॉर्ज साहिब बाहर आये। वो ही चिर परिचित वेश भूषा से सुस्सजित, आँखों पर बड़े फ्रेम का चश्मा, पैरो में साधारण चप्पल पहने हुए। सभी शांत थे । उन्होंने बोलना प्रारंभ किया। थोड़ा बोले पर सार्थक बोले। कहा कि यदि आज मैं आप लोगो को जॉब  दिलवा भी दूँ तो कल दूसरी सरकार के आते ही आप फिर सड़क पर आ जाओगे। रेलवे में जॉब रेलवे सर्विस कॉमिशन की परीक्षा पास करने से ही मिलती है। आप लोग इलाहाबाद रेलवे सर्विस कमीशन का फॉर्म भरो, परीक्षा दो, उत्तीर्ण हो और फिर जॉब लो। पक्की जॉब लो जिससे आप को कोई भी सरकार आये, निकाल न सके। कुछ लोग उनके इस सुझाव से सहमत नहीं थे। पर मुझे ये सुझाव अच्छा लगा। जॉब  लें तो अपनी क़ाबलियत से लें, खैरात में क्यूँ लें। उस रात धरना जारी रहा पर मैं घर आ गया था। अगले दिन से ही मैं रेलवे सर्विस कमीशन की परीक्षा की तैयारी में जुट गया। हमारे लिए एक विशेष परीक्षा का प्रबंध किया गया। हमने रेलवे सर्विस कमीशन के फॉर्म भरे। बडौदा हाउस में एक रविवार को परीक्षा आयोजित की गई। फिर साक्षात्कार के लिए बुलाया गया। इस परीक्षा में जो उत्तीर्ण हुए उन्हें इलाहाबाद सर्विस कमीशन से नियुक्ति पत्र मिला और फरवरी 1978 में हम रेलवे के बृहद परिवार का हिस्सा बने। इस पूरे प्रकरण में दिवंगत नेता जॉर्ज फर्नांडीज का बड़ा हाथ था। जो लोग अनुतीर्ण रहे वह संघर्ष करते रहे। और बाद में शायद उन्हें भी जॉब दे दी गई। पर आज जो मैं सिर उठा कर कह सकता हूँ कि मेरी जॉब मैंने अपनी मेहनत से पाई थी इसका श्रेय जॉर्ज फर्नांडीज़ को ही जाता है। बाद में जॉर्ज फर्नांडीज़ ने कुछ समय वी पी सिंह की सरकार में रेल मंत्री का कार्य भार भी संभाला। हालांकि उनकी यह पारी कुछ छोटी ही रही पर काफ़ी उपलब्धि पूर्ण थी। कोंकण रेलवे प्रॉजेक्ट जिसने मैंगलौर को मुम्बई से जोड़ दिया उन्हीं के प्रयासों का परिणाम था। पिछले काफ़ी समय से वह सक्रिय राजनीति में नहीं थे। आज उनके दिवंगत होने का समाचार पढ़ा तो पुरानी स्मृतियां ताज़ा हो गईं।

Saturday, 12 January 2019

एक अदद घर और आबोदाना

सुबह से आलस्य में कम्बल से निकला ही नहीं। देवानन्द और नूतन की "मंजिल" मूवी भी देख ली। पुराने गाने सुन लिए। किताब, अखबार सब पढ़ डाला। सो भी लिया। शाम ढलते ढलते उकताहट होने लगी। शाम लगभग ढल ही चुकी है और ठंड बढ़ रही है। बाहर ओस गिरनी शुरू हो चुकी है। दो तीन गर्म कपड़े पहन ऊपर से शॉल ले हम दोनों बाहर निकल आये हैं। कुछ उकताहट तो दूर होगी। ठंड बहुत है। अच्छा है कनटोप पहना हुआ है नहीं तो सिर दर्द हो जाता। आसमान साफ है, चाँद नाव का आकार लिए चमक रहा है। इक्का दुक्का लोग ही टहल रहे हैं। ज्यादातर अपने अपने घरों में बंद हैं। सामने वाली   महिला पीपल के पेड़ तले नन्हा सा दिया और दो अगरबत्ती रख अभी अभी गईं हैं। अगरबत्ती की भीनी सुगंध ने जल्द ही आस पास का वातावरण महका दिया है। साथ वालो की कोठी से एक सघन बेल दीवार पार कर हमारी तरफ़ आ गई है। आगे लगे आम के पेड़ से वह लिपटती जा रही है। पास की बेल लाल चटक फूलों के गुच्छों से लदी है। रंग इतना लाल चटक है कि कृत्रिम  प्रकाश में भी उतना ही लाल दिख रहा है जितना दिन के उजाले में।एक कुंज बनने जा रहा है। या फिर एक पुल का निर्माण प्रकृति कर रही है, जिस पर गिलहरियां जल्द ही दौड़ेंगी। और पक्षी नीड़ बनाएंगे। गिलहरियों और पक्षियों से याद आया कि दिन भर दौड़ लगाते, चिल्लाते, फुदकते ये जीव रात इतनी ठंड में कँहा होंगे! शायद किसी पेड़ में बने खोखल में सोते होंगे। या फिर सूखे तिनकों से बने नीड में दुबके होंगे। ये जो पेड़ो पर लाईटें लगा दी गई हैं, इनका चकाचौंध भरा प्रकाश इन्हें सोने भी कँहा देता होगा! फिर रात को तो इन्हें सुरक्षा कँहा है। बिल्लियों का डर तो लगा ही रहता है। इनका जीवन भी सरल नहीं है। रोज की लड़ाई है और ये रोज़ लड़ते हैं। कई बार सोचता हूँ इनके लिए लकड़ी का घर ला कर आम के पेड़ पर लटका दूँ। जिस में रुई का कोमल बिस्तर लगा दूँ। खाना पानी की व्यवस्था पास ही कर दूँ जिस से इन्हें भटकना न पड़े। पर कार्य में परिणित नहीं हो पाता। दाना पानी तो रख देता हूँ पर घर की व्यवस्था नहीं हो पाती। एक अदद घर की सभी को तलाश है। देखें कब तक मिल पाता है।

Saturday, 5 January 2019

बस यूं ही

सुबह का नाश्ता कर धूप में आ बैठा हूँ बॉलकोनी में। दीवार की ओट ले रखी है पर फिर भी हवा लग ही रही है। पास वाले बृहद नीम के वृक्ष पर गिलहरियां लगातार बिना विश्राम लिए शोर मचा रही हैं मानो कोई होड़ लगी हो। सामने वाले कीकर के पेड़ के ऊपर एक बड़ी चील अपने डैने फैलाये हवा में तैरती चक्कर लगा रही है। एक टिटेरी पक्षी लम्बी सी सीटी बजाता अभी अभी गया है। बचपन में माँ कहती थी छोटे भाई बहिनों की प्यास पीने से टिटेरी बन जाते हैं। और मैं डर कर पहले छोटो को पानी पीने देता था। बचपन भी कितना सरल होता था। "था" इसलिए कह रहा हूँ कि आज के बच्चों का बचपन इतना सरल नहीं होता कि वह कुछ भी मान जाएं। आज के बच्चे प्रश्न करते हैं, तर्क करते हैं और हर तथ्य को परखते हैं। आजकल के बच्चों के पास गूगल है। आज माँ उनसे ये नहीं कह सकती कि मैंने फूस का पुतला बना कर रखा था और रात में भगवान ने उसमें जान डाल दी और तुम मुझे मिल गए। यकीन मानिए मैं तो बहुत बड़े होने तक यही समझता था कि मैं संसार में इसी विधि आया था। क्योंकि माँ ऐसा कहती थी और माँ की बात को मैं जस का तस मान लेता था। पर ये सरलता आज नहीं है। बच्चे अपनी उम्र से जल्दी, बहुत जल्दी बड़े हो रहे हैं। पता नहीं ये बदलाव अच्छा है या बुरा, पर बचपन कंही खो गया है आजकल के बच्चों का।
चील सामने वाली कोठी की छत पर बनी पानी की टंकी पर आ बैठी है। उसकी मुड़ी हुई चोंच मैं देख सकता हूँ। सशंकित सी अपनी गर्दन घुमा इधर उधर देख रही है। जोधपुर के स्कूल की छत पर आधी छुट्टी के समय चीलें  झुंड बना कर मंडराया करती थी। हम बच्चे अपने लंच में से रोटी के टुकड़े हवा में उछाल दिया करते थे और जोर से चिल्लाते थे- चीलम चिलो, आटो गीलो। और उड़ती हुई चीलें हवा में ही रोटी के टुकड़े झपट लेती थीं। ऐसे ही दिल्ली से जोधपुर जाते हुए "डीडवाना" स्टेशन पर गर्मा गर्म दाल की बड़ी कचौरी मिलती थीं। यदि आप अनजान हैं और स्टेशन पर खड़े खड़े ही कचौरी का स्वाद ले रहे हैं तो बहुत संभव है कि आप के हाथ से वो कचौरी कोई चील झपट ले जाये और जाते जाते आपके सिर पर पंजा भी मार जाए। जो चीलों के इस आतंक से परिचित थे वह गाड़ी में बैठ कर ही कचौरी खाना पसंद करते थे। चील अब टँकी से उड़ चुकी है।

ये सब समय गुज़र गया है और इतिहास हो चुका है। एक लम्बा अरसा बीत गया है। देखते ही देखते जीवन गुज़र गया। अगले माह सेवा निवृत्त हो रहा हूँ। लगता है कल ही सेवारत हुआ था।

बॉलकोनी से धूप चली गई है। हवा अब ठंडी लग रही है। अंदर चलता हूँ।

Tuesday, 1 January 2019

सर्दियों की धूप - डायरी के कुछ पन्ने

रविवार की दोपहर में सर्दियों की कुनकुनी धूप में बैठ अख़बार पढ़ने का आनन्द तो वो ही जान सकता है जिसने इस आनन्द को कभी भोगा हो। आज वर्षों बाद मैंने इस का पुनः आनन्द लिया। मैं - जो अख़बार को सुर्ख़ियो से ज्यादा नहीं पढ़ता, आज सारा अख़बार पढ़ गया। तुलसी के गमलों के पास कुर्सी लगा बैठा तो बैठा ही रहा। अंग्रेजी, हिन्दी के दोनों अखबार पेज़ दर पेज़ पलट डाले। बीच बीच में चलती हवा से हिलते गैंदे के पौधे, जिन पर फूल आने हैं और गुलदाऊदी में खिले फूल निहार लेता। मिट्टी के पास बैठ कर मैं स्वयं से जुड़ा सा महसूस करता हूँ। अखबार हाथ से छूट कर नीचे गिर गया है और मैं चश्मा लगाए कुछ अधलेटा सा कुर्सी पर पसर गया हूँ। कुछ स्मृतियां धुंधली सी स्मृति पटल पर आ रही है। शायद मैं झपकी ले रहा हूँ।

दूसरी कक्षा में रहा हूँगा। फरीदाबाद न्यू टाउनशिप के बाटा चौक स्थित स्कूल में था। स्कूल का नाम तो याद नहीं पर बहनजी का नाम अभी भी याद है। हम उन्हें "सूत" बहनजी कहते थे।बहुत बाद में समझ आया कि उनका सर नेम शायद "सूद" रहा होगा। चटक रंग की सलवार कमीज़ और चुन्नी पहने पेड़ के नीचे लगे ब्लैक बोर्ड पर ऐसी ही सर्दियों की धूप में वो हमें पढ़ाती थीं। टाट पट्टी पर कतार से बैठे बच्चों में मैं अक़्सर वह जगह चुनता जँहा पेड़ से छन कर सबसे अधिक धूप आती हो।पास बहते नाले के ऊपर बहुत से टिड्डे मंडराते थे। एक दो जो पास आ बैठते थे उनकी पूँछ पर घर से लाई पेचक से धागे का फंदा कसना हम बच्चों का पसंदीदा खेल हुआ करता था। आस पास उगी घास की महक मन को पागल कर मथ देती थी। और बाल मन तितलियों, भौंरो और टिड्डों के पीछे दौड़ जाता था। ये स्कूल का बंधन उसे कँहा सुहाता था। समय देखने को बनाई धूप घड़ी चलती रहती और धूप हमारे चिन्हित किये निशानों के पास सरकती रहती। बारह बजे के आसपास जब धूप सरक के दीवार पर बने "छुट्टी के निशान" तक जा पँहुचती तो हमारे कान टन टन टन घण्टी की आवाज़ के लिए खड़े हो जाते। और ज्योंही घण्टी बजती हम बस्ता उठा के भाग खड़े होते। मुलतानी मिट्टी से तख्ती पोतते और धूप में सूखने रख देते। जब तक तख्ती सूखती हम तितलियों के पीछे भागते रहते। घर जाने की किसको जल्दी थी। स्कूल लगभग खाली हो जाता था। हम टिड्डे उड़ाने में व्यस्त रहते थे। केयर टेकर जब धकेलता तो हम  पीठ पर बस्ता लटकाये, हाथ में तख्ती झुलाते चल देते घर की ओर। धूल धूसरित हाथ-पैर, सामने पड़े हर पत्थर को जूते के अग्र भाग से हटाते, इमली के और जंगल जलेबी के पेड़ो की कतारों के नीचे से बतियाते, गुनगुनाते, लड़ते, झगड़ते चलते जाते घर की ओर। निगाहें पेड़ो पर रहती कि कोई इमली की कटार या जंगल जलेबी लटकी नज़र आये। जैसे ही कोई ऐसा फल दिखा, तो हम ठिठक जाते। बैग में रखी गुलेल निकालते और अर्जुन को जैसे मछली की आँख दीखती थी हमें बस फल ही नज़र आता था । इमली के पेड़ पर हम पत्थर नहीं फेंकते थे क्योंकि उस पर कंही भूत न रहते हो। हां, जँगल जलेबी को तो खूब निशाना बनाते थे। इन सभी में कई बार धूप ढलने लगती और भूख भी जोरों से लगी होती, तब हमें घर याद आता था। आधे रास्ते मे कई बार मासी मिल जाती जो इतना समय होने पर चिन्ता से स्कूल की ओर आ रही होती थी। हाथ पकड़ कर लगभग घसीटते हुए वह मुझे ले कर घर की और चल पड़ती। बाकी की वानर सेना तो भाग जाती थी।

स्मृति पटल पर दृश्य तेज़ी से बदल रहे हैं। मैं अभी भी तन्द्रा में हूँ। सामने वालो के कुत्ते ने भौंक कर मेरी तन्द्रा भंग की है। पर मैं पुनः आंखे मूंद लेता हूँ। धूप का कुनकुना सेक सारे बदन को आराम दे रहा है। मैंने आराम कुर्सी झूला दी है। चल चित्र पुनः चल पड़ता है। किशोरावस्था जीवंत हो गई है।

कक्षा आठ। डी ए वी स्कूल, दिल्ली। ऐसी ही सर्दियों में जब स्कूल से लौटता तो माँ छत पर दीवार की आड़ लिए धूप सेकती मिलती थी। किरोशिया या सलाइयां उसके हाथों में होती। पास में पड़ा नारियल के तेल के डिब्बे में जम चुका तेल धूप की उष्णता पाकर पिघल गया होता था। मैं सीधा छत पर चला जाता। बस्ता उतार माँ की गोद में सिर रख मैं लेट जाता। माँ अपने हाथ की चूड़ियों में लगा सेफ़्टी पिन उतार मेरे कान से वैक्स निकालने लगती। फिर कहती देख कितने रूखे कर रखें है हाथ-पैर। फिर पास पड़े डिब्बे से नारियल तेल ले मेरे सर्दियों में फटे हाथ-पैरों पर मलती रहती और मैं माँ की साड़ी की खुशबू लेता रहता। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि माँ की साड़ी से वो खुशबू कँहा से आती थी। इत्र-फुलेल लगाना तो माँ जानती न थी। तब तक मुझे भूख सताने लगती। मैं पूछता, खाने में क्या बनाया है।और माँ कहती, तेरा मनपसन्द चावल बेसन। सप्ताह में दो बार तो मुझे इसी उत्तर की आशा रहती थी। पर नीचे बहुत ठण्ड है, मैं कहता। तो माँ परोस कर ऊपर छत पर ही ले आती। भूख में माँ के हाथ का गरमा गरम बेसन चावल धूप में चटाई पर बैठ कर खाना आज भी याद है। खाना खा मैं वंही धूप में पसर जाता। माँ कहती, अरे ! हाथ तो धो ले। मैं अनमना सा नीचे उतरता और हैंड पम्प से हाथ धो फिर छत पर आ धमकता। धीरे धीरे धूप सरकती जाती और साथ ही सरकती जाती माँ की चटाई। ऊपर लगे टेलेविज़न एंटीना पर कुछ आबलील पक्षी आ बैठते। वो इतना शोर करते की मेरी नींद में ख़लल पड़ता। मैं उठता और उन्हें उड़ाता। वो पास के नीम पर जा बैठते। पीछे के घर में लगी हाथ की खड्डी में कुछ कारीगर दरियां और चद्दरें बुनते। उनकी खड्डी  की आवाज एक लय में चलती और मुझे सुला देती। आंखों को धूप की चमक से बचाने के लिए मैं माँ का पल्लू मुँह पर डाल लेता। नीचे कोई शक्करकन्दी, कमरख बेचने वाला ऊंची आवाज़ में चिल्ला उठता।

दृश्य पुनः बदला है। मैं यौवन काल के चरम पर आ गया हूँ। ऐसे में मन न जाने कैसा कैसा सा हो उठता था। इंडिया गेट के लॉन में दोपहर की सर्दियों की धूप में अधलेटा सा, नई उग आई घास की महक लेता इत्मीनान से भुनी मूंगफली का आस्वादन कर रहा होता था। जामुन के पेड़ों पर रहती गिलहरियां भी मुझे जानती थीं। बिना डर के मेरे बहुत पास आ कर टुकुर टुकुर देखती थीं। उनके मूक नयनों में मूंगफली की याचना होती थी। मैं कुछ मूंगफलियां उनकी और उछाल देता था। अगले दोनों पंजो से पकड़ कर आगे के दांतों से काट वह दाने निकाल लेती थीं। सशंकित सी इधर उधर देख वह फिर से जामुन के पेड़ों पर चढ़ जाती थीं। मैं आँखे मूंद दूर चारों और भागते वाहनों की आवाज़ सुनता था। उन सर्दियों की धूप में मन भटकने लगता । यौवनावस्था का मन जो ठहरा! धूप जब ढलने लगती और पेड़ो के साये लम्बे होने लगते तो मैं उठ जाता। सुस्त कदमों से मंडी हाऊस की तरफ़ चल देता। गुलमोहर के पेड़ों के नीचे से होता, ढलती धूप की बची खुची गरमाहट लेता चलता जाता- निरुद्देश्य सा। कँहा जाना है, क्या करना है पता नहीं। खादी का कुर्ता पजामा और बंडी पहने कंधे पर झोला लिए लोग मुझे पत्रकार समझते या फिर कलाकार। पर मैं तो इन दोनों विधाओं से बहुत दूर था। मन के भटकाव की शांति के लिए सर्दियों की इस दोपहरी में तब तक भटकता जब तक ये शाम में नहीं बदल जाती। फिर शुरू होता मंडी हाऊस पर कलाकारों का जमावड़ा, चाय के दौर और चर्चाएं। मैं चुपचाप सुनता। दुनियां कितनी आगे बढ़ी जा रही है! और मेरा क्या लक्ष्य है? भटकाव और बढ़ जाता। ये गुलमोहर के फूल, ये पक्षियों का कलरव, ये इतनी सुंदर प्रकृति आख़िर मेरे मन को इतना उद्वेलित क्यों करते हैं! ये भटकाव क्यों है? पता नहीं। मैं शायद अतीत में चला गया हूँ। कुछ कुछ तन्द्रा टूटी है। पर पूरी तरह से नहीं।

बंदरो की फ़ौज़ ने सामने की टीन की छत पर उठा-पटक शुरू की, तो मैं तन्द्रा से बाहर आ गया हूँ। धूप भी बालकॉनी से प्रस्थान कर चुकी है। अख़बार छोड़ धूप सेकता मैं कब वर्षों पीछे चला गया, पता ही नहीं चला । बचपन, किशोरावस्था और यौवनावस्था के उन पलों को मैंने अभी अभी पुनः जिया है। मन न जाने कैसा सा हो उठा है। अखबार समेट कुर्सी उठा मैं अंदर चल देता हूँ। भूख भी लग आई है। देखूँ, लंच में क्या है!