रविवार की दोपहर में सर्दियों की कुनकुनी धूप में बैठ अख़बार पढ़ने का आनन्द तो वो ही जान सकता है जिसने इस आनन्द को कभी भोगा हो। आज वर्षों बाद मैंने इस का पुनः आनन्द लिया। मैं - जो अख़बार को सुर्ख़ियो से ज्यादा नहीं पढ़ता, आज सारा अख़बार पढ़ गया। तुलसी के गमलों के पास कुर्सी लगा बैठा तो बैठा ही रहा। अंग्रेजी, हिन्दी के दोनों अखबार पेज़ दर पेज़ पलट डाले। बीच बीच में चलती हवा से हिलते गैंदे के पौधे, जिन पर फूल आने हैं और गुलदाऊदी में खिले फूल निहार लेता। मिट्टी के पास बैठ कर मैं स्वयं से जुड़ा सा महसूस करता हूँ। अखबार हाथ से छूट कर नीचे गिर गया है और मैं चश्मा लगाए कुछ अधलेटा सा कुर्सी पर पसर गया हूँ। कुछ स्मृतियां धुंधली सी स्मृति पटल पर आ रही है। शायद मैं झपकी ले रहा हूँ।
दूसरी कक्षा में रहा हूँगा। फरीदाबाद न्यू टाउनशिप के बाटा चौक स्थित स्कूल में था। स्कूल का नाम तो याद नहीं पर बहनजी का नाम अभी भी याद है। हम उन्हें "सूत" बहनजी कहते थे।बहुत बाद में समझ आया कि उनका सर नेम शायद "सूद" रहा होगा। चटक रंग की सलवार कमीज़ और चुन्नी पहने पेड़ के नीचे लगे ब्लैक बोर्ड पर ऐसी ही सर्दियों की धूप में वो हमें पढ़ाती थीं। टाट पट्टी पर कतार से बैठे बच्चों में मैं अक़्सर वह जगह चुनता जँहा पेड़ से छन कर सबसे अधिक धूप आती हो।पास बहते नाले के ऊपर बहुत से टिड्डे मंडराते थे। एक दो जो पास आ बैठते थे उनकी पूँछ पर घर से लाई पेचक से धागे का फंदा कसना हम बच्चों का पसंदीदा खेल हुआ करता था। आस पास उगी घास की महक मन को पागल कर मथ देती थी। और बाल मन तितलियों, भौंरो और टिड्डों के पीछे दौड़ जाता था। ये स्कूल का बंधन उसे कँहा सुहाता था। समय देखने को बनाई धूप घड़ी चलती रहती और धूप हमारे चिन्हित किये निशानों के पास सरकती रहती। बारह बजे के आसपास जब धूप सरक के दीवार पर बने "छुट्टी के निशान" तक जा पँहुचती तो हमारे कान टन टन टन घण्टी की आवाज़ के लिए खड़े हो जाते। और ज्योंही घण्टी बजती हम बस्ता उठा के भाग खड़े होते। मुलतानी मिट्टी से तख्ती पोतते और धूप में सूखने रख देते। जब तक तख्ती सूखती हम तितलियों के पीछे भागते रहते। घर जाने की किसको जल्दी थी। स्कूल लगभग खाली हो जाता था। हम टिड्डे उड़ाने में व्यस्त रहते थे। केयर टेकर जब धकेलता तो हम पीठ पर बस्ता लटकाये, हाथ में तख्ती झुलाते चल देते घर की ओर। धूल धूसरित हाथ-पैर, सामने पड़े हर पत्थर को जूते के अग्र भाग से हटाते, इमली के और जंगल जलेबी के पेड़ो की कतारों के नीचे से बतियाते, गुनगुनाते, लड़ते, झगड़ते चलते जाते घर की ओर। निगाहें पेड़ो पर रहती कि कोई इमली की कटार या जंगल जलेबी लटकी नज़र आये। जैसे ही कोई ऐसा फल दिखा, तो हम ठिठक जाते। बैग में रखी गुलेल निकालते और अर्जुन को जैसे मछली की आँख दीखती थी हमें बस फल ही नज़र आता था । इमली के पेड़ पर हम पत्थर नहीं फेंकते थे क्योंकि उस पर कंही भूत न रहते हो। हां, जँगल जलेबी को तो खूब निशाना बनाते थे। इन सभी में कई बार धूप ढलने लगती और भूख भी जोरों से लगी होती, तब हमें घर याद आता था। आधे रास्ते मे कई बार मासी मिल जाती जो इतना समय होने पर चिन्ता से स्कूल की ओर आ रही होती थी। हाथ पकड़ कर लगभग घसीटते हुए वह मुझे ले कर घर की और चल पड़ती। बाकी की वानर सेना तो भाग जाती थी।
स्मृति पटल पर दृश्य तेज़ी से बदल रहे हैं। मैं अभी भी तन्द्रा में हूँ। सामने वालो के कुत्ते ने भौंक कर मेरी तन्द्रा भंग की है। पर मैं पुनः आंखे मूंद लेता हूँ। धूप का कुनकुना सेक सारे बदन को आराम दे रहा है। मैंने आराम कुर्सी झूला दी है। चल चित्र पुनः चल पड़ता है। किशोरावस्था जीवंत हो गई है।
कक्षा आठ। डी ए वी स्कूल, दिल्ली। ऐसी ही सर्दियों में जब स्कूल से लौटता तो माँ छत पर दीवार की आड़ लिए धूप सेकती मिलती थी। किरोशिया या सलाइयां उसके हाथों में होती। पास में पड़ा नारियल के तेल के डिब्बे में जम चुका तेल धूप की उष्णता पाकर पिघल गया होता था। मैं सीधा छत पर चला जाता। बस्ता उतार माँ की गोद में सिर रख मैं लेट जाता। माँ अपने हाथ की चूड़ियों में लगा सेफ़्टी पिन उतार मेरे कान से वैक्स निकालने लगती। फिर कहती देख कितने रूखे कर रखें है हाथ-पैर। फिर पास पड़े डिब्बे से नारियल तेल ले मेरे सर्दियों में फटे हाथ-पैरों पर मलती रहती और मैं माँ की साड़ी की खुशबू लेता रहता। मैं आज तक नहीं समझ पाया कि माँ की साड़ी से वो खुशबू कँहा से आती थी। इत्र-फुलेल लगाना तो माँ जानती न थी। तब तक मुझे भूख सताने लगती। मैं पूछता, खाने में क्या बनाया है।और माँ कहती, तेरा मनपसन्द चावल बेसन। सप्ताह में दो बार तो मुझे इसी उत्तर की आशा रहती थी। पर नीचे बहुत ठण्ड है, मैं कहता। तो माँ परोस कर ऊपर छत पर ही ले आती। भूख में माँ के हाथ का गरमा गरम बेसन चावल धूप में चटाई पर बैठ कर खाना आज भी याद है। खाना खा मैं वंही धूप में पसर जाता। माँ कहती, अरे ! हाथ तो धो ले। मैं अनमना सा नीचे उतरता और हैंड पम्प से हाथ धो फिर छत पर आ धमकता। धीरे धीरे धूप सरकती जाती और साथ ही सरकती जाती माँ की चटाई। ऊपर लगे टेलेविज़न एंटीना पर कुछ आबलील पक्षी आ बैठते। वो इतना शोर करते की मेरी नींद में ख़लल पड़ता। मैं उठता और उन्हें उड़ाता। वो पास के नीम पर जा बैठते। पीछे के घर में लगी हाथ की खड्डी में कुछ कारीगर दरियां और चद्दरें बुनते। उनकी खड्डी की आवाज एक लय में चलती और मुझे सुला देती। आंखों को धूप की चमक से बचाने के लिए मैं माँ का पल्लू मुँह पर डाल लेता। नीचे कोई शक्करकन्दी, कमरख बेचने वाला ऊंची आवाज़ में चिल्ला उठता।
दृश्य पुनः बदला है। मैं यौवन काल के चरम पर आ गया हूँ। ऐसे में मन न जाने कैसा कैसा सा हो उठता था। इंडिया गेट के लॉन में दोपहर की सर्दियों की धूप में अधलेटा सा, नई उग आई घास की महक लेता इत्मीनान से भुनी मूंगफली का आस्वादन कर रहा होता था। जामुन के पेड़ों पर रहती गिलहरियां भी मुझे जानती थीं। बिना डर के मेरे बहुत पास आ कर टुकुर टुकुर देखती थीं। उनके मूक नयनों में मूंगफली की याचना होती थी। मैं कुछ मूंगफलियां उनकी और उछाल देता था। अगले दोनों पंजो से पकड़ कर आगे के दांतों से काट वह दाने निकाल लेती थीं। सशंकित सी इधर उधर देख वह फिर से जामुन के पेड़ों पर चढ़ जाती थीं। मैं आँखे मूंद दूर चारों और भागते वाहनों की आवाज़ सुनता था। उन सर्दियों की धूप में मन भटकने लगता । यौवनावस्था का मन जो ठहरा! धूप जब ढलने लगती और पेड़ो के साये लम्बे होने लगते तो मैं उठ जाता। सुस्त कदमों से मंडी हाऊस की तरफ़ चल देता। गुलमोहर के पेड़ों के नीचे से होता, ढलती धूप की बची खुची गरमाहट लेता चलता जाता- निरुद्देश्य सा। कँहा जाना है, क्या करना है पता नहीं। खादी का कुर्ता पजामा और बंडी पहने कंधे पर झोला लिए लोग मुझे पत्रकार समझते या फिर कलाकार। पर मैं तो इन दोनों विधाओं से बहुत दूर था। मन के भटकाव की शांति के लिए सर्दियों की इस दोपहरी में तब तक भटकता जब तक ये शाम में नहीं बदल जाती। फिर शुरू होता मंडी हाऊस पर कलाकारों का जमावड़ा, चाय के दौर और चर्चाएं। मैं चुपचाप सुनता। दुनियां कितनी आगे बढ़ी जा रही है! और मेरा क्या लक्ष्य है? भटकाव और बढ़ जाता। ये गुलमोहर के फूल, ये पक्षियों का कलरव, ये इतनी सुंदर प्रकृति आख़िर मेरे मन को इतना उद्वेलित क्यों करते हैं! ये भटकाव क्यों है? पता नहीं। मैं शायद अतीत में चला गया हूँ। कुछ कुछ तन्द्रा टूटी है। पर पूरी तरह से नहीं।
बंदरो की फ़ौज़ ने सामने की टीन की छत पर उठा-पटक शुरू की, तो मैं तन्द्रा से बाहर आ गया हूँ। धूप भी बालकॉनी से प्रस्थान कर चुकी है। अख़बार छोड़ धूप सेकता मैं कब वर्षों पीछे चला गया, पता ही नहीं चला । बचपन, किशोरावस्था और यौवनावस्था के उन पलों को मैंने अभी अभी पुनः जिया है। मन न जाने कैसा सा हो उठा है। अखबार समेट कुर्सी उठा मैं अंदर चल देता हूँ। भूख भी लग आई है। देखूँ, लंच में क्या है!
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