सुबह से आलस्य में कम्बल से निकला ही नहीं। देवानन्द और नूतन की "मंजिल" मूवी भी देख ली। पुराने गाने सुन लिए। किताब, अखबार सब पढ़ डाला। सो भी लिया। शाम ढलते ढलते उकताहट होने लगी। शाम लगभग ढल ही चुकी है और ठंड बढ़ रही है। बाहर ओस गिरनी शुरू हो चुकी है। दो तीन गर्म कपड़े पहन ऊपर से शॉल ले हम दोनों बाहर निकल आये हैं। कुछ उकताहट तो दूर होगी। ठंड बहुत है। अच्छा है कनटोप पहना हुआ है नहीं तो सिर दर्द हो जाता। आसमान साफ है, चाँद नाव का आकार लिए चमक रहा है। इक्का दुक्का लोग ही टहल रहे हैं। ज्यादातर अपने अपने घरों में बंद हैं। सामने वाली महिला पीपल के पेड़ तले नन्हा सा दिया और दो अगरबत्ती रख अभी अभी गईं हैं। अगरबत्ती की भीनी सुगंध ने जल्द ही आस पास का वातावरण महका दिया है। साथ वालो की कोठी से एक सघन बेल दीवार पार कर हमारी तरफ़ आ गई है। आगे लगे आम के पेड़ से वह लिपटती जा रही है। पास की बेल लाल चटक फूलों के गुच्छों से लदी है। रंग इतना लाल चटक है कि कृत्रिम प्रकाश में भी उतना ही लाल दिख रहा है जितना दिन के उजाले में।एक कुंज बनने जा रहा है। या फिर एक पुल का निर्माण प्रकृति कर रही है, जिस पर गिलहरियां जल्द ही दौड़ेंगी। और पक्षी नीड़ बनाएंगे। गिलहरियों और पक्षियों से याद आया कि दिन भर दौड़ लगाते, चिल्लाते, फुदकते ये जीव रात इतनी ठंड में कँहा होंगे! शायद किसी पेड़ में बने खोखल में सोते होंगे। या फिर सूखे तिनकों से बने नीड में दुबके होंगे। ये जो पेड़ो पर लाईटें लगा दी गई हैं, इनका चकाचौंध भरा प्रकाश इन्हें सोने भी कँहा देता होगा! फिर रात को तो इन्हें सुरक्षा कँहा है। बिल्लियों का डर तो लगा ही रहता है। इनका जीवन भी सरल नहीं है। रोज की लड़ाई है और ये रोज़ लड़ते हैं। कई बार सोचता हूँ इनके लिए लकड़ी का घर ला कर आम के पेड़ पर लटका दूँ। जिस में रुई का कोमल बिस्तर लगा दूँ। खाना पानी की व्यवस्था पास ही कर दूँ जिस से इन्हें भटकना न पड़े। पर कार्य में परिणित नहीं हो पाता। दाना पानी तो रख देता हूँ पर घर की व्यवस्था नहीं हो पाती। एक अदद घर की सभी को तलाश है। देखें कब तक मिल पाता है।
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