Saturday, 26 December 2020

परधर्मो भयावहः

मेरा मानना है कि धर्म एक बहुत ही नाज़ुक और व्यक्तिगत विषय है। यही कारण है कि मैं इस विषय पर सामान्य तौर पर नहीं लिखता। 

परन्तु कल जब एक के बाद एक क्रिसमस के बधाई संदेश पोस्ट होते रहे और लोग एक दूसरे को सोशल मीडिया पर क्रिसमस के अवसर पर मुबारकबाद देते रहे, तो मुझे एक बार फिर सनातन धर्म की विशालता का अनुभव हुआ। कितना विशाल है ये धर्म कि अन्य धर्मों को इतनी सुगमता से आत्मसात कर लेता है कि पता ही नहीं चलता कि ये उत्सव इस धर्म का नहीं है। इसके ठीक विपरीत अन्य धर्मों की संकीर्णता  का भी विचार आया जब मैंने सोचा कि पिछले वर्षों में जन्माष्टमी या रामनवमी के उत्सवों पर कितने ईसाई मित्रों ने बधाई दी थी!

 व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि मूल रूप में कोई भी धर्म बुरा नहीं है। पर यदि हम  अपने अपने धर्मों में स्थित रहें, उसी का उत्सव मनाएं, अपने बच्चों को स्वधर्म के बारे में शिक्षित करें, उन्हें ये बताएं कि इस धर्म में उनका जन्म कोई अनायास घटना नहीं है, वरन प्रभु की सोची समझी लीला के कारण वे यँहा हैं, तो मैं समझता हूँ अधिक उचित होगा। वरन इसके कि हम उन्हें सांता क्लॉज बना कर क्रिसमस ट्री का सामने खड़ा कर फ़ोटो खिंचवाए। बच्चे के कोमल मन पर इन सबका बड़ा गहरा प्रभाव होता है जो भविष्य में स्वधर्म के प्रति उनकी सोच को प्रभावित कर सकता है। 

गीता कहती है ;
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।

अतः आइये, हम सब जिस जिस धर्म में स्थित हैं उन्हीं का उत्सव मनाएं और इसमें गौरान्वित महसूस करें।
 

Friday, 25 December 2020

क्रिसमस की छुट्टी

छुट्टी के दिन सारा कार्यक्रम अस्त व्यस्त सा हो जाता है। अलसाते रहो, कम्बल की गर्माहट में। चाय पर चाय के दौर चलते रहें। अदरक और लौंग की चाय का जायका और वो भी कम्बल में बैठ कर लिया जाय तो आनन्द ही कुछ और हो जाता है। न शेव करने की हड़बड़ी, न नहाने की ही। काम वाली बाई अल्ल सुबह आ जाती है। वो अपना काम कर रही थी और हम पति पत्नी चाय की चुस्कियों का स्वाद ले रहे थे। क्रिसमस का और कोई जश्न मेरे लिए हो न हो, छुट्टी अपने आप में एक जश्न होता है। अख़बार आ चुका था और मैं उसके पन्ने पलट रहा था। सारी खबरें निराशा से भरी थीं। एक ही ख़बर कुछ उल्लास की थी कि कोरोना का टीका जनवरी से लगना शुरू हो जाएगा और हम जैसे वरिष्ठ नागरिकों का नम्बर जल्द आएगा। अब वो अलग विषय है कि टीका कामयाब कितना होगा। इसीके पास एक ख़बर छपी थी कि कोरोना से उबर चुके लोगो में लकवा हो रहा है। ये खबर मैंने उच्च स्वर में पढ़ी जिससे पत्नी सुन ले। ख़बर सुनते ही वह बोली कि तुम ये अख़बार पढ़ना बिल्कुल बन्द कर दो। ऐसी खबरें पढ़ते हो फिर चिंतित भी रहते हो। बात तो चिन्ता की ही थी। मैं भी कोरोना से उबरा था। मैंने अपने हाथ पैर हिला डुला के देखे। मुँह से कुछ उल्टी सीधी भंगिमाएं बनाई। सब ठीक ही लगा। अख़बार फेंक मैं उठ खड़ा हुआ। बाहर  सूर्य अपने समय से निकल आया था। मैंने खिड़की पर पड़े लम्बे पर्दे दोनों और सरका दिए। सुनहरी धूप खड़की के शीशों से छन कमरे में आ ठहरी। मैंने कम्बल तह कर सलीके से रखा, बिस्तर की सलवटें ठीक करी और तकिये सिरहाने पर यथा स्थान रख दिये। नीम के पेड़ की शाखों के बीच से भुवन  भास्कर झाँक रहे थे। दरवाज़ा खोल मैं बॉलकोनी में आ गया। सर्द हवा के झोंकों ने सारी खुमारी उतार दी। रीढ़ की हड्डी में एक सिरहन सी दौड़ पड़ी। कुछ पक्षी मधुर स्वर में कलरव करते हुए किलोल कर रहे थे। मैं अधिक देर बाहर नहीं ठहर पाया और अंदर आ दरवाज़ा बन्द कर लिया। एक और छुट्टी के दिन की शुरुआत हो चुकी थी। क्या करना है कुछ भी तय नहीं था। जैसे चाहो रहो। जो चाहो करो। मैंने गूगल को आदेश दिया कि सूरदास जी का भजन 'तुम मेरी राखो लाज हरि' जगजीत सिंह के स्वर में प्रस्तुत करे। आदेश का पालन हुआ और भजन के बोल घर में गूँजने लगे।  ये तो सबको पता है कि आज क्रिसमस है। बहुतों ने क्रिसमस ट्री भी सज़ाए हैं। बच्चों के लिए उपहार भी लाये होंगे  । पर कितने जानते हैं कि आज गीता जयंती भी है। वैसे आज मोक्षदा एकादशी भी है। आप सब पर भगवान श्री कृष्ण की कृपा बनी रहे, इसी कामना के साथ गीता जयंती की बधाई। चलें इस छुट्टी का आनंद लें।

उपेक्षित बचपन

सुबह के साढ़े आठ बजे रहे हैं। सूरज अभी भी कोहरे की चादर के पीछे छिपा है। रिंग रोड से कश्मीरी गेट बस अड्डे की तरफ़ आते हुए कोहरा और घना हो गया है। कोहरा उड़ते हुए भाग रहा है। कार की सीट बर्फ की भांति ठंडी है। मैंने ड्राइवर से थोड़ी देर हीटर चलाने को कहा जिससे कार में कुछ गर्मी आये। यमुना का पुराना पुल पूरी तरह से कोहरे से ढका है।  रात किसी ट्रक ने डिवाडर पर गाड़ी चढ़ा दी थी। सड़क पर बोरियां बिखरी पड़ी हैं। यातायात धीरे धीरे निकल रहा है। राजघाट की लाल बत्ती पर कार रुकी है। एक लड़की कोई आठ दस वर्ष की, कमर पर चुन्नी बाँधे, एक छोटे से लोहे के रिंग से निकल अपना करतब दिखा रही है। गर्म कपड़ों के नाम पर एक पतला सा स्वेटर पहने है। पैरों में हवाई चप्पल हैं। मैं उसे ध्यान से देखता हूँ। उसके चेहरे पर कोई भाव नहीं है। न प्रसन्ता का न ही विषाद का। दो चार करतब दिखा वह कारों के बंद शीशे खटखटाती है। माँगते हुए उसके चेहरे पर दया या लाचारी नहीं है। मानो अपनी मेहनत का पुरस्कार चाहती हो। अब वो मेरी कार की तरफ़ आती है। पहले ड्राइवर का शीशा बजाती है । फिर उसी तरफ से पीछे की सीट का शीशा ठोकती है। मैं बाईं ओर बैठा हूँ। मैं उससे नज़रें नहीं मिला पा रहा हूँ। चाहता हूँ कि इसे कुछ दे दूं। पर पर्स आगे ब्रीफ केस में पड़ा है। बत्ती हरी हो चुकी है। कार ने सरकना शुरू कर दिया है और गति पकड़ ली है। वह पीछे छूट गई है। फिर बत्ती के लाल होने के इंतज़ार में सड़क किनारे खड़ी हो गई है। दिल्ली के चौराहों पर दिन भर ऐसे ही कितने बच्चे आपको दिख जाएंगे। इनकी इस दुर्दशा का ज़िम्मेदार कौन है? वो माता पिता जिन्होंने इन्हें पैदा कर सड़कों पर छोड़ दिया। या फिर वो सरकार जो इनके प्रति पूर्णतया उदासीन है। या हम सब जो इन्हें देखकर भी अनदेखा कर देते हैं।

Sunday, 20 December 2020

समय कैसे कटे

ये दो दिन की छुट्टियाँ भी अलसाने वाली होती हैं। जब छात्र था तो सोचता था कि एक बार पढ़ाई समाप्त हो जाये फिर तो खूब मजा करूँगा। अब समय ही नहीं कटता । सोचता हूँ फ़िर से पढ़ाई शुरू करूँ। जीवन की यही विडम्बना है। जो नहीं होता उसकी पीछे भागता है। 

पिछले दिनों यूँ ही बैठे बैठे सोचा कि फेस बुक समय नष्ट करने के अलावा कुछ नहीं है। सो एकाउंट डिलीट कर दिया। फिर जब कोरोना से ग्रस्त हो चौदह दिन का एकान्तवास काटा तो सोचा समय कैसे काटा जाय। पर ये निश्चय तो दृढ था कि कुछ भी हो, फेस बुक पुनः नहीं जॉइन करूँगा। इन दिनों साहित्य खूब पढ़ा।  फिर कुछ शुभचिंतको के फोन आये जो जानना चाहते थे कि मैं फेस बुक से अचानक कँहा लापता हो गया। वो सभी मित्र मेरी ख़बर न मिलने से चिंतित थे। मैंने कहा कि मैं ठीक हूँ।  इस बीच मेरी सासू मां ने इस नश्वर सँसार को अलविदा कह दिया। उनका स्वास्थ्य पिछले कुछ समय से ठीक नहीं चल रहा था। सो जयपुर चक्कर लगते रहे।  

आज कई दिनों बाद करने को कुछ नहीं था। जैसे तैसे शानिवार कटा। दो फिल्में देख डाली। आज  रविवार था। फिर वही प्रश्न आ खड़ा हुआ - क्या करूँ ! सोचा सो लेता हूँ।  पर सो भी कितना सकते हैं? दिन में सो जाओ तो रात में नींद रूठ जाती है। कोरोना के चलते बाहर निकलना तो लगभग बंद ही है। फ़िर सोचा पुनः फेस बुक एकाउंट बनाया जाय। सो पुनः उपस्थित हूँ। सोचता हूँ जब जॉब नहीं होगी तो समय कैसे कटेगा। जयपुर प्रवास के दौरान यही प्रश्र मैंने अपने एक परिचित से किया जिन्हें सेवा निवृत हुए ग्यारह वर्ष हो गए हैं। उनका उत्तर अप्रत्याशित था। बोले, "हरा साग ले आओ। पत्ता पत्ता कर तोड़ो। पत्नी भी खुश और समय भी कटेगा।" 

कल  मैंने यही किया। बथुआ, पालक, सेंगरी, धनियां जो भी पत्नी ने लिया था सब अच्छे से सँवार दिया। पर मुश्किल से घंटा भर ही कट पाया। यँहा तो पूरा दिन काटना है। और दिन ही नहीं वर्षों काटने हैं। कुछ और सोचना पड़ेगा।

किसी ने कहा है कि हम समय नहीं काटते, समय हमें काट रहा है। शायद यही सत्य है। काफ़ी विचार करने के बाद भी यक्ष प्रश्न अपनी जगह खड़ा है- समय कैसे कटे? आपके पास कोई उत्तर हो तो बताएं। फ़िलहाल तो कल से ऑफिस है।